(01 दिसंबर 1925 के “सर्वे “ अमेरिकी पत्रिका में महात्मा गांधी का लेख का अंश)
भारत में अस्पृश्यता-निवारण आंदोलन हिन्दू धर्म की शुद्धि का आंदोलन है , हिन्दू धर्म के लगभग 24 करोड़ अनुयायी हैं । अनुमान लगाया गया है कि इनमें 4 करोड़ से उपर लोग अस्पृश्य माने जाते हैं । अस्पृश्यता की प्रथा में तथाकथित ऊँचे वर्गों के लोगों का अस्पृश्य कहलाने वाले लोगों के स्पर्श से बचना होता है ।
हिंदू समाज की ये बहिष्कृत जातियों जिन जगहों में सीमित रहती हैं, उन्हें “ गेटो “ कहना ठीक होगा ।
… अस्पृश्यता का नासूर हिंदू धर्म की शक्ति को क्षीण करता जा रहा है; यहां तक कि इसने किसी समय की एक महान संस्था को विकृत कर दिया है । संसार के एक श्रेष्ठ धर्म को खानपान और विवाह-संबंधी हास्यास्पद नियमों की संहिता-मात्र बना दिया है ।
प्रश्न किया जा सकता है कि ऐसी अवस्था में मैं ऐसे अभिशाप को सहन करने वाले धर्म से क्यों चिपका हूँ ? इसका कारण यही है कि मैं अस्पृश्यता को हिन्दू-धर्म का अनिवार्य अंग नहीं मानता, जो सत्य, अहिंसा और प्रेम का महान धर्म है । मैंने हिंदू शास्त्रों को, कुछ को मूल में और बाकी को अनुवादों की सहायता से समझने का प्रयत्न किया है । मैंने अपने नम्र तरीक़े से इस धर्म की शिक्षाओं के अनुरूप जीवन बिताने का प्रयत्न किया है ।
संसार के ईसाई, इस्लाम आदि महान् धर्मों का अध्ययन करने के बाद मैंने हिन्दू धर्म को ही अपना सबसे सुखद आश्रय-स्थान पाया है । मैंने देखा कि कोई भी धर्म सर्वांग संपूर्ण नहीं है । सभी धर्मों में अंधविश्वास और त्रुटियां पाई है । इसलिए मेरे लिए इतना ही काफी है कि मैं अस्पृश्यता में विश्वास नहीं करता । किसी परिवार या जाति में जन्म लेने मात्र से ही कोई सीधा-सादा व्यक्ति अस्पृश्य हो जाता है, इस विश्वास का हिंदू शास्त्रों में कोई प्रमाण मुझे नहीं मिल सका है । लेकिन यदि अपने को हिंदू कहते रहने का मेरा आग्रह हो, जैसा कि है, तो जिस तरह मेरे देश के प्रति मेरा कर्तव्य है, उसी तरह अपने धर्म के प्रति भी मेरा यह कर्तव्य है कि मैं अपने मन-प्राण से अस्पृश्यता की इस विकृति का विरोध करूँ और उसमें सुधार करने के लिए चाहे बड़ी से बड़ी कीमत चुकानी पड़े तो उसे भी अधिक न गिनूं । सभी समझदार हिंदुओं का यह एक मान्य सिद्धांत है अस्पृश्यता का अभिशाप मिटाये बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता ।
स्रोत: संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड: 29, पृष्ठ: 274-5