स्त्री, स्वतंत्रता और अपराध : एक विचाराधीन कथा

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Parichay Das

— परिचय दास —

राजा रघुवंशी की हत्या के मामले में उनकी पत्नी सोनम रघुवंशी एक प्रमुख आरोपी के रूप में सामने आई हैं। पुलिस ने इस केस में विभिन्न डिजिटल, भौतिक और मौखिक साक्ष्यों के आधार पर सोनम की भूमिका की जांच की है और प्रथम दृष्ट्या जिन तथ्यों के आधार पर उन्हें गिरफ्तार किया गया, वे इस मामले की गंभीरता को स्पष्ट करते हैं परंतु, न्यायालय में अभी यह मामला विचाराधीन है और भारतीय संविधान के अनुसार सोनम को अभी ‘दोषी’ नहीं ठहराया जा सकता। इस स्थिति में प्रश्न यह नहीं है कि वह निर्दोष हैं या अपराधी, बल्कि यह कि यह घटना समाज, विवाह संस्था, स्त्री की मानसिकता और अपराध की प्रक्रिया को किस प्रकार सामने लाती है।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो भारतीय समाज में विवाह को केवल निजी सम्बन्ध नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था माना जाता है। विवाह के भीतर अपेक्षित भूमिकाएँ — विशेष रूप से स्त्री की भूमिका — वर्षों से नैतिकता, मर्यादा और अनुशासन की प्रतिमाओं में ढाली गई हैं। जब कोई स्त्री इस ढाँचे से बाहर जाती दिखती है तो समाज उस पर सहज ही संदेह करता है। सोनम पर लगे आरोप इस सामाजिक परिपाटी के भीतर कई प्रश्न उठाते हैं: क्या विवाह संस्था के भीतर असंतोष को खुलकर व्यक्त करना अब भी कठिन है? विवाह के बाहर संबंधों की संभावना एक “अनैतिकता” है और उसे कैसे देखें ? क्या स्त्री की स्वतंत्रता अब भी सामाजिक निगरानी के अधीन है?

दूसरी ओर, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इस मामले में “जटिल मानसिक स्थिति” (complex mental state) की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। समकाल में पति-पत्नी के संबंधों की व्याख्या किसी धार्मिक अनुशासन या सामाजिक अनुबंध के चौखटे में नहीं की जा सकती। यह संबंध अब केवल सात फेरों की बंदिशों या कुल परंपराओं के आदेशों से बँधा नहीं है—यह एक संवेदनशील, जटिल और बदलते मनोभावों का जीवंत रूप है, जो हर दिन नई भाषा रचता है, नए अनुबंध करता है, और कभी-कभी अनकहे असंतोष में टूट भी जाता है।

पत्नी अब ‘पतिव्रता’ नहीं, ‘सहचरी’ है। वह पति की छाया नहीं, उसकी समानांतर उपस्थिति है। पहले जहाँ पति का कहा हुआ अंतिम सत्य होता था, अब उसके हर वाक्य को पत्नी अपने अनुभवों, अपेक्षाओं और अधिकारों की कसौटी पर तौलती है। पहले जहाँ पति का क्रोध भी ‘धर्म’ माना जाता था, अब पत्नी उसे मानसिक हिंसा कहने लगी है।

यह व्याख्या उस युग की नहीं, जहाँ पत्नी ‘सिंदूर’ में स्वर्ग देखती थी, यह उस युग की है जहाँ पत्नी अपनी ‘चुप्पी’ में प्रश्न उठाती है। अब वह ‘प्रेम’ को त्याग से नहीं, संवाद से सींचती है। उसके लिए संबंध का आधार अब ‘भक्ति’ नहीं, ‘बराबरी’ है।

पति भी बदल रहा है—वह अब अपनी सत्ता पर अकेला गर्व नहीं कर सकता। उसे सुनना आता है तो रिश्ता बचेगा, नहीं तो वह पत्थर की तरह अकेला गिर जाएगा। आज का पति अगर संवेदनशील नहीं तो पत्नी के भीतर जन्मी असहमति, संदेह, या अनसुना प्रेम—कभी भी घातक हो सकता है।

अब दाम्पत्य में प्रेम से अधिक संवाद चाहिए, समर्पण से अधिक साझेदारी चाहिए। संबंधों की ज़मीन बदल चुकी है—जहाँ अब कोई एक ‘पालक’ नहीं, दोनों को मिलकर रोपना होता है। अगर ज़रा-सा भी संवाद कमज़ोर पड़ा, तो वही घर जो मंदिर था, जेल में बदल सकता है।

पति-पत्नी का संबंध अब एक “equal contract of love, respect and freedom” है—जहाँ न प्रेम स्थायी है, न विद्रोह अनपेक्षित। जहाँ प्रेम करना जितना स्वाभाविक है, उससे हट जाना भी उतना ही स्वाभाविक हो चुका है।

इस समकालीन व्याख्या का सबसे मार्मिक बिंदु यह है कि अब इस संबंध को बनाए रखने के लिए त्याग नहीं, बौद्धिक साझेदारी चाहिए। जहाँ दोनों अपनी असहमति, अपनी थकान, अपनी चाह और अपने डर को साझा कर सकें। वरना यह संबंध या तो शोषण बन जाएगा या फिर अपराध का कारण।

सोनम की कहानी एक उदाहरण है लेकिन समाज में असंख्य स्त्रियाँ और पुरुष हैं, जो इस द्वन्द्व को जी रहे हैं—हर रात एक बिस्तर पर, पर दो अलग-अलग दिशाओं में देखते हुए।

यह समय है जब पति-पत्नी के रिश्तों की परिभाषा फिर से लिखी जा रही है—लहजे में, चुप्पियों में, और कभी-कभी हत्या जैसी अतियों में।

हत्या की योजना बनाई या करवाई, तो यह कोई क्षणिक आवेग नहीं बल्कि दीर्घकालिक मानसिक प्रक्रिया का परिणाम हो सकता है। मनोविज्ञान कहता है कि जब व्यक्ति स्वयं को किसी नियंत्रित, असहज या भयावह परिस्थिति में लगातार फँसा हुआ पाता है, तब उसके निर्णयों में तर्क की जगह गहरे दबे हुए आक्रोश, भय या आत्मरक्षा की प्रवृत्तियाँ सक्रिय हो सकती हैं। यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति बाहर से सामान्य प्रतीत हो, पर उसके भीतर एक गहरे द्वन्द्व, अनसुने पीड़ा या उपेक्षा की धाराएँ बह रही हों, जिनका विस्फोट एक अप्रत्याशित परंतु भयानक रूप ले सकता है।

यह घटना दांपत्य जीवन में संवादहीनता, आपसी अविश्वास और मानसिक दूरी के परिणामस्वरूप उपजे अपराध की ओर भी संकेत करती है। यह सवाल भी सामने आता है कि क्या सोनम को अपने वैवाहिक जीवन में पर्याप्त मानसिक और भावनात्मक सुरक्षा मिली थी? क्या किसी पूर्व ट्रॉमा या पारिवारिक दबाव ने उसके निर्णयों को प्रभावित किया? यह भी सम्भव है कि भावनात्मक अथवा आर्थिक हानि का डर, या किसी अन्य व्यक्ति के प्रभाव में आकर उसने एक कठोर और घातक निर्णय लिया हो।

इस पूरे प्रसंग में एक बड़ी बात यह भी है कि स्त्री-अपराध को समाज किस दृष्टि से देखता है। जहाँ पुरुष अपराधी को उसके कृत्य के आधार पर देखा जाता है, वहीं स्त्री अपराधी को उसके लिंग, चरित्र और नैतिकता के चश्मे से भी आँका जाता है।

यह आवश्यक है कि हम इस मामले को किसी फिल्मी प्लॉट की तरह न देखें, बल्कि इसे हमारे समय की उन जटिल सामाजिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों के आईने की तरह देखें, जो विवाह, स्वतंत्रता, अपराध और स्त्री की स्थिति को गहराई से प्रभावित कर रही हैं। जब तक न्यायालय अपना अंतिम निर्णय नहीं देता, तब तक यह मामला केवल एक घटना नहीं, एक बहस है — समाज की संरचनाओं, संबंधों की बनावट और स्त्री की आत्मनिर्णय की आकांक्षा को लेकर।
इस बहस से भागने के बजाय हमें इसका सामना करना चाहिए — संवेदनशीलता, विवेक और वस्तुनिष्ठता के साथ।

इस बहस का अगला और आवश्यक पहलू है परिवारों में घटती संवादशीलता और बढ़ती मनोवैज्ञानिक दूरी। आधुनिक शहरी परिवारों में, जहाँ भौतिक सुविधा और तकनीकी संसाधन उपलब्ध हैं, वहाँ भावनात्मक संवाद और पारस्परिक समझदारी अक्सर अनुपस्थित होती जा रही है। पति-पत्नी के बीच का रिश्ता, जो कभी सहजीवन की बुनियादी इकाई माना जाता था, अब अपेक्षाओं, उपलब्धियों और आत्मसम्मान के संघर्षों से जूझता दिखाई देता है।

राजा रघुवंशी और सोनम रघुवंशी के संदर्भ में भी यही प्रश्न सामने आता है: क्या उनके रिश्ते में पारदर्शिता थी? क्या वे दोनों अपनी असहमतियों और अपेक्षाओं को खुलकर साझा कर पा रहे थे? क्या दोनों एक-दूसरे की मानसिक स्थिति, भावनात्मक ज़रूरतों और वैवाहिक प्रतिबद्धता के प्रति सजग थे?

यदि नहीं, तो यह घटना केवल एक अपराध नहीं, बल्कि एक सामाजिक विफलता भी है—जहाँ विवाह का उद्देश्य केवल सामाजिक प्रतिष्ठा या पारिवारिक दबाव बनकर रह गया, और मनुष्य की संवेदनशीलता, इच्छाएँ, दुःख और असहमति को कोई स्थान नहीं मिला।

दूसरा विचारणीय पक्ष यह है कि भारत जैसे समाजों में प्रेम, विवाह और यौन स्वतंत्रता जैसे मुद्दे आज भी नैतिक और सांस्कृतिक ढाँचों में कसे हुए हैं। विवाह के बाहर प्रेम या संबंध को आज भी सीधे ‘पतन’, ‘अनैतिकता’ या ‘विकृति’ की दृष्टि से देखा जाता है, जबकि जीवन के यथार्थ में इन अनुभवों का जन्म जटिल परिस्थितियों में होता है, और उनका विश्लेषण केवल नैतिक चश्मे से नहीं किया जा सकता।

यदि यह मान भी लिया जाए कि सोनम का किसी अन्य व्यक्ति से संबंध था, तब भी यह देखना आवश्यक है कि क्या यह संबंध किसी जबरदस्ती के विवाह, मानसिक उपेक्षा या भावनात्मक शोषण की प्रतिक्रिया था? और यदि नहीं, तो क्या उसके निर्णय पूरी तरह से स्वार्थ और निजी सुख के लिए थे? इन दोनों ही स्थितियों में, हमें व्यवहारिकता के साथ देखना होगा कि समाज किस तरह व्यक्तियों को उनके चुनावों के लिए स्थान और सुरक्षा देता है या नहीं।

तीसरा और सबसे संवेदनशील पक्ष है क़ानून और न्याय की भूमिका। भारत का न्यायिक तंत्र यह स्पष्ट करता है कि किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि ठोस और प्रमाणित साक्ष्य उसके अपराध को सिद्ध न कर दें। सोनम रघुवंशी पर आरोप गंभीर हैं, परंतु अभी वे प्रमाणिकता की कसौटी पर खरे उतरने की प्रक्रिया में हैं।

इस पूरे मामले को देखकर यह स्पष्ट होता है कि आज के समय में विवाह, स्त्री-स्वतंत्रता, प्रेम, अपराध और सामाजिक नैतिकता—ये सभी धारणाएँ बदल रही हैं। इन सबके बीच सोनम का मामला एक केस-स्टडी की तरह हमारे सामने है, जिससे हम बहुत कुछ समझ सकते हैं, यदि हम उसे केवल घटना नहीं, चेतावनी और विमर्श की तरह पढ़ें।

यह घटना हमें याद दिलाती है कि हर हत्या के पीछे केवल हथियार नहीं, कई अदृश्य स्थितियाँ होती हैं—चुप्पियाँ, दबाव, अपमान, अस्वीकृति, आकांक्षाएँ और त्रासदियाँ और जब तक हम इन अदृश्य कारणों को देखने की संस्कृति नहीं विकसित करते, तब तक अपराध केवल पुलिस और अदालतों का मामला बना रहेगा—समाज का नहीं और यह चूक, सबसे बड़ी त्रासदी होगी।

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