चुनाव आयोग का इरादा क्या है?

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जनतंत्र समाज (Citizens for Democracy -CFD) ने बिहार में मतदाता सूची का विशेष सघन संशोधन (special intensive revision) करने के चुनाव आयुक्त के आदेश का कड़ा विरोध किया है। बिहार राज्य विधानसभा का चुनाव अक्तूबर-नवंबर में होने वाला है, ठीक उससे पहले करोड़ों मतदाताओं की सही तरीके से जाँच करना संभव नहीं है। यह प्रक्रिया चुनाव से कम से कम एक साल पहले प्रारंभ किया जाना चाहिए था। ठीक चुनाव के पहले यह प्रक्रिया शुरु करने के पीछे चुनाव आयोग का इरादा ज़्यादा से ज़्यादा मतदाताओं को अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित करने का है। अन्यथा चुनाव को समय पर नहीं कराने का इरादा है। बिहार में आख़िरी मौक़े पर राष्ट्रपति शासन लागू हो जाने के ये आसार हैं।

तीन करोड़ बिहारियों पर आफत

बिहार के करीब तीन करोड़ से अधिक मतदाताओं को (कुल मतदाताओं का 40%), जिनका नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं है, अपने जन्म और स्थान का प्रमाण पत्र देना होगा। अगर आप युवा मतदाता हैं, आपका जन्म 1987 के बाद हुआ है ,तो आपको अपने माता या पिता का भी जन्म और स्थान का प्रमाण पत्र देना पड़ेगा भले ही आप पिछले चुनाव तक वोट डालते रहे हों। बिहार में केवल 16 प्रतिशत लोगों के पास अपने या परिवार के सदस्यों के जन्म प्रमाणपत्र हैं। बाढ, गरीबी और अशिक्षा के कारण प्रमाण पत्र सुरक्षित रखना कठिन है और नया हासिल करना और भी कठिन है। 2004 के बाद जन्मे युवाओं को तो माता-पिता दोनों का जन्म प्रमाणपत्र और स्थान प्रमाण पत्र भी देना होगा। यह नयी पीढ़ी पर सीधा हमला है। आज जब मानसून प्रारंभ हो गया है और बिहार का अधिकांश भाग बाढ़ की चपेट में आने का खतरा है, मतदाता अपने सत्यापन के लिए इधर-उधर भागते रहेंगे और अधिकतर सत्ता विरोधी माने जाने वाले समूहों के नाम मतदाता सूची से निकाल दिये जाएंगे।

क्या वर्तमान सरकार अवैध है?

आश्चर्य की बात है कि आधार कार्ड को प्रमाण नही माना गया है, जिसमें जन्म तिथि अंकित होती है। यह दर्शाता है कि चुनाव आयोग चाहता है कि लोगों को आसान विकल्प न दिया जाए और पूरा बिहार जन्म तिथि के दस्तावेज़ ढूँढने अपने पुराने काग़ज़ खंगालने में लग जाए। 2003 के बाद की सारी मतदाता सूचियों को रद्द करके यह संकेत दिया जा रहा है कि वे सब गलत थीं। तब उन गलत मतदाता सूचियों के आधार पर चुनी गई केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भी अवैध हैं।
खेल सिर्फ मतदान का नहीं है ।

अगर नागरिक के पास सत्यापन के लिए ज़रूरी जन्म प्रमाणपत्र और जन्म स्थान के दस्तावेज़ नही होंगे तो उनके साथ विदेशियों जैसा व्यवहार किया जाएगा। उनमें से नापसंद मतदाताओं, यादव, दलित, अल्पसंख्यक आदि को अरेस्ट भी किया जा सकता है और राशन आदि सुविधाओं से वंचित भी किया जा सकता है।एक अजीब खेल खेला जा रहा हैः पहले तो उनके नाम मतदाता सूची से हटाने की धमकी दो, फिर मतदाता सूची में बने रहने के लिए प्रमाण माँगो। प्रमाण न दे पाने की स्थिति में उसका नाम मतदाता सूची से हटा दो। अपने ही बदले नियमों के अनुसार मतदाता सूची से नाम हटाने भर से नागरिक अपराधी कैसे बन जाता है और उसे राशन सहित अन्य सुविधाओं से कैसे वंचित किया जा सकता है? अंग्रेज़ी हुकुमत ने भी मताधिकार से वंचित लोगों को कभी अपराधी नहीं माना।

क्या यह प्रक्रिया संवैधानिक है?

संविधान ने देश के नागरिकों को कुछ अपवादों को छोड़ कर देश में किसी जगह पर बसने का अधिकार दिया है। इसके बावजूद चुनाव आयोग जन्म स्थान का प्रमाणपत्र भी माँग रहा है। इसका मतदान के अधिकार से कोई संबंध नहीं है। कोई भी नागरिक अपना स्थान कभी भी बदल सकता है और हर चुनाव से पहले अपना नाम अपने नये स्थान पर दर्ज़ करवा सकता है। फ़िलहाल, चुनाव आयोग के आदेश के मुताबिक़ कोई भी व्यक्ति 2003 के बाद बिहार में बस गया है और अपना नाम अपने मूल स्टेट की मतदाता सूची से निकलवा कर बिहार में पंजीकृत हुआ है, तो उसे अब मतदाता नहीं माना जाएगा और उसे फिर से अपना पंजीकरण करवाना होगा।

गरीब प्रवासी मजदूरों की मुसीबत

सबसे ज़्यादा मुश्किल प्रवासी मजदूरों (माइग्रन्ट वर्करों )के लिए आएगी। एक तो चुनाव आयोग का कर्मचारी उसके घर जाएगा तो वह मिलेगा नहीं । चुनाव आयोग को उसके लिए हमदर्दी है और यह प्रावधान किया गया है कि वह फॉर्म डाउनलोड कर के अपनी नई फोटो चिपका कर अपलोड कर सकता है। ग़रीबों का इससे ज़्यादा भद्दा मज़ाक़ कोई नहीं है। चुनाव आयोग मान के चल रहा है कि मुंबई में काम करने वाले मजदूर के फोन में इंटरनेट की सुविधा होगी और वह डाउनलोड/अपलोड कैसे किया जाए वह भी जानता होगा। अपनी और परिवार की फोटो की कापियाँ वह अपनी जेब में रख कर काम करता होगा। और इधर डाउनलोड किया, उधर प्रिंटआउट निकाला, फोटो चिपकाई और अपलोड कर दिया। अगर मुंबई में वह अकेला है और गाँव में परिवार है तो उसकी पत्नी ये प्रक्रिया पूरी कर लेगी। उसके पास अपना और पति का जन्म प्रमाण पत्र, सास-ससूर के जन्म के प्रमाणपत्र, निवास के प्रमाण इत्यादि एक फाइल में रखे होंगे। वह अल्मारी से फाइल निकाल कर दिखा देगी और कॉपियाँ बनवा के चुनाव आयोग के कर्मचारी को दे देगी!

केन्द्र सरकार ने 16 जुलाई 2024 में लोक सभा में राजीव प्रताप रूदी के प्रश्न के जवाब में जानकारी दी है कि उस दिन तक 2.9 करोड़ बिहारी असंगठित कामगार और माइग्रन्ट वर्कर्स ई-श्रम पोर्टल पर दर्ज़ किये गये थे। माइग्रेशन मुख्य रूप से पिछड़े , दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक लोगों को करना पड़ता है। ज़्यादातर माइग्रेशन बिहार के सारन, मूँगेर, दरभंगा, कोसी, तिर्हूत, पूर्णिया ज़िलों से होता है । चुनाव आयोग के इस निर्णय का सबसे बुरा असर इन ज़िलों में पड़ेगा। दरिद्रता में जीने वाले ये लोग वोट देने के अधिकार के लिए लड़ नहीं पाएंगे। अगर चुनाव आयोग का यह प्रयोग चालू रहा तो एक दिन आएगा कि ग़रीब लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हो जाएंगे और देश पर सिर्फ अमीरों का शासन होगा।

NRC की चोर दरवाजे से वापसी

यह अप्रत्यक्ष रूप से NRC को मतदाताअ सूचियों को ठीक करने के नाम पर चोर दरवाज़े से घुसाने की कोशिश है और ऐसा “विशेष सघन संशोधन” SIR सिर्फ बिहार तक नहीं रुकने वाला। देश के अन्य भागों में भी लागू किया जाएगा। कोविड से पहले NRC लाया गया था । इसके विरोध में मुस्लिम महिलाओं ने विश्वप्रसिद्ध शाहीन बाग़ अहिंसक सत्याग्रह किया और सरकार ने फिर से NRC का नाम नहीं लिया। असल में सत्ता का उद्देश्य समाज में टकराहट पैदा करना और उसका चुनाव में फायदा उठाना है।

आज बिहार के सभी संगठनों को इकठ्ठा हो कर पूरे देश की जनता के मताधिकार की लड़ाई लड़नी है। बिहार एक क्रांतिकारी राज्य यह है, जिसने पूरे देश के लोकतंत्र के लिए कई बार लड़ाई लड़ी है। बिहार ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में राजा कुंवर सिंह जैसे वीर पैदा किये हैं और आज़ादी के संग्राम में बाबू राजेंद्र प्रसाद, राज कुमार शुक्ल, जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर जैसे कई नेता दिये। आज बिहार शांत नहीं बैठ सकता। बिहार ने पहले भी एक यात्रा को रोका था, आज फिर से लोकतंत्र को रौंदने के लिए नई यात्रा बिहार से ही शुरु हुई है। इस नापाक यात्रा को बिहार ही रोक पाएगा। हम इस आंदोलन में बिहार के जनसमूहों के साथ हैं।

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