— राजेंद्र राजन —
मृत्यु एक अनिवार्य घटना है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं कि अपने आस-पास उसका होना या उस व्यक्ति का न होना-काफी समय तक महसूस करते रहते हैं। एक तरह का शून्य उभर आता है। राजनारायणजी की मृत्यु से किस तरह का शून्य पैदा हुआ? राजनारायण के विरोधी भी मानेंगे कि उनके चले जाने से विपक्ष के करिश्मे का अन्त हो गया।
वह विपक्ष के इस अर्थ में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे कि उनका जैसा करिश्मा वाला व्यक्तित्व था, वह किसी के पास नहीं है। उनका जितना जनाधार था, सामान्यतः उसके बल पर बड़ी-बड़ी घटनाओं को जन्म देना, मौका आने पर घटनाओं को निर्णायक मोड़ देना सम्भव नहीं होता है। इतिहास उन्हें एक असाधारण राजनेता के रूप में याद करेगा। उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी की, एकदम स्थानीय स्तर से राजनीति शुरू की और जूझते जूझते और अपनी नाटकीय बुद्धि और परिश्रम के बल पर वह राजनीति शिखर पर पहुँचे। राजनीति को कई बार झकझोरा और नाटकीय ढंग से कई बार निर्णायक मोड़ दिया। नौजवानी से लेकर उनहत्तर वर्ष की उम्र में मृत्यु के समय तक उनका जीवन संघर्ष, उथल-पुथल और दूसरों को रोमांचित करने वाला जीवन था।
शुरू से ही वह लोहिया और आचार्य नरेन्द्रदेव के प्रभाव में आए। बाद में वह सोशलिस्ट पार्टी के एक महत्त्वपूर्ण नेता हो गए। विधान सभा, लोक सभा, राज्यसभा के अन्दर और बाहर उन्होंने अपनी अक्खड़ और दबंग उपस्थिति से भारतीय राजनीति को प्रभावित किया। उनकी प्रतिभा काफी ऊबड़-खाबड़ थी, इसलिए एक प्रतिभाशली राजनेता के रूप में बहुत से लोग उन्हें लक्षित नहीं कर पाते थे। समाजवाद की लीक से वह कब हटे, कितना हटे और फिर सोशलिस्ट पार्टी की पुर्नस्थापना कर वे उसकी ओर लौट आए, इस पर हम अभी नहीं जायेंगे क्योंकि मृत्यु के तुरन्त बाद का समय मूल्यांकन का समय नहीं होता है। लेकिन एक बात तो कभी भी कही जा सकती थी और कभी भी कही जा सकती है कि लोहिया के बाद वही एक सोशलिस्ट नेता हुए जिन्हें लोग ज्यादा जानते थे, जिन्हें इतनी ख्याति मिली, जिनके नाम और काम से देश का एक-एक आदमी वाकिफ था।
यह एक ऐसी चीज थी जो लोहिया के बाद सोशलिस्ट राजनीति में निर्णायक साबित हुई। राजनारायण के अलावा कोई दूसरा सोशलिस्ट नेता नहीं था जिसे जनता जानती हो। दूसरे सोशलिस्टों की ख्याति बुद्धिजीवियों, पढ़े-लिखे लोगों, विद्यार्थियों, शहरी नौजवानों और ट्रेड यूनियन तक सिमट कर रह गयी। इसीलिए राजनारायण जी लोहिया के बाद सोशलिस्ट राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक व्यक्ति थे। सोशलिस्टी फूट के कई कारण थे, लेकिन उनके ध्रुवीकरण की कोई चर्चा बिना राजनारायण के पूरी नहीं होती थी। जनता पार्टी बनने पर जब समाजवादी उसकें अंग हो गए और जनता पार्टी टूटने पर जब वे व्यक्तिवादी पार्टीयों में विलीन हो गए, तब देश के पैमाने पर समाजवादियों के इकट्ठा होने की कोई चर्चा नहीं होती थी। लेकिन सोशलिस्ट पार्टी की पुर्नस्थापना कर जब राजनारायण जी उसके अध्यक्ष हुए तब फिर से सोशलिस्टों के इकट्ठा होने की चर्चा निष्क्रिय हो चुके समाजवादी भी करने लगे। उनकी उपस्थिति से राजनीतिक घटनाओं का उनसे अप्रभावित रहना मुश्किल है। परिस्थिति का विश्लेषण करने में, पुनर्विचार करने में और अपनी वर्तमान भूमिका को सोशलिस्ट लोग राजनारायण की अनुपस्थिति से बराबर प्रभावित महसूस करेंगे।
राजनारायण में क्या था जो उनकी मौजूदगी को ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण बनाता था। राजनारायण जी में कुछ ऐसे गुण थे जो विपक्ष की राजनीति के लिए निहायत जरूरी है। याद करने वाले उन्हें एक प्रचंड साहसी व्यक्ति के रूप में याद करेंगे। उनके अन्दर जैसा साहस था, आज के किसी नेता में वह नहीं है। न केवल प्रतिकूल परिस्थितियों से निरंतर टकराते रहना, बल्कि उपेक्षा, उपहास, धमकी, सब कुछ झेल जाना और डटे रहना यह उनसे बराबर सम्भव होता था। उनके अन्दर साहस और परिश्रम का अद्भुत मेल था। जनता पार्टी में रहकर जब वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के खिलाफ अभियान चला रहे थे, तब कभी-कभी गंभीर धमकियां भी मिलती थीं। जिस शहर से उन्हें धमकी मिलती थीं कि आने नहीं दिया जाएगा या आने पर नतीजा इस तरह का होगा, धमकी मिलते ही वे वहाँ अपने अभियान समेत पहुँच जाते थे। प्रचार अभियान कितने परिश्रम से चलाया जाता है, अखबारों की उपेक्षा
उपहास और प्रचार साधनों के अभाव के बावजूद कितनी दौड़-धूप से अपनी बात का प्रचार लोगों के बीच किया जाता है, यह साधन विहीन राजनीतिक लोग उनसे सीख सकते हैं।
उनके तमाम खुरदरेपन और समाजवादी दृष्टि से अप्रिय लगने वाले उनके कई कामों के बावजूद पहल करने का मन, जोखिम उठाने का हौंसला, विपरीत परिस्थितियों से टकराने का पराक्रम उनके व्यक्तित्व का ऐसा पक्ष था जो उन्हें नेतृत्व प्रदान करता था। उनके व्यक्तित्व के इसी दृढ़ पक्ष ने भारतीय राजनीति में कई ऐसे करिश्मों को जन्म दिया कि इतिहास उन्हें भुला नहीं सकेगा। शिखर राजनीति की दृष्टि से भारतीय राजनीति के सबसे उथल-पुथल भरे दौर के वह सबसे रोमांचक नेता थे। रायबरेली से चुनाव हारने के बाद हाई कोर्ट में उनका चुनाव याचिका दाखिल करना, इंदिरा गाँधी का मुकदमा हारना, 77 के चुनाव में इंदिरा गाँधी को हराना, चौधरी चरणसिंह को प्रधानमंत्री बनाना आदि ऐसी घटनाएँ हैं जो उनकी नाटकीय बुद्धि और करिश्माई व्यक्तित्व से सम्भव हुई। ये घटनाएँ आटवें दशक की देश की सबसे बड़ी घटनाएँ थीं।
घटनाओं को जन्म देना और घटनाओं को मोड़ देना, उनके इसी करिश्माई गुण के कारण लोगों की नजर उन पर लगी रहती थी। उनके राजनीतिक उतार के दिनों में भी उनके अनुयायी और सोशलिस्ट पार्टी कार्यकर्त्ता उनकी तरफ आशा भरी दृष्टि से देखते थे। इस तरह का एक विश्वास बन गया था कि राजनारायण जी घटनाओं का | रूख मोड़ देंगे और उनकी राजनीति चलने लगेगी। सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष के रूप में अपने अशक्त दिनों में भी उन्होंने अरूणाचल में प्रवेश के प्रतिबन्ध को तोड़ने का सोशलिस्ट पार्टी का कार्यक्रम बनाया था। अमल होने पर यह देश का ध्यान खींचने वाला कार्यक्रम होता। सरकार को उलट सकने या बहुतों को चुनाव जिताने का चरण सिंह का-सा जनासधार राजनारायण का नहीं था, लेकिन
चुनाव याचिका के द्वारा इंदिरा गाँधी की राजनीति को ध्वस्त करना और चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाना ऐसी शीर्ष घटनाओं को उन्होंने जन्म दिया। किसी पार्टी में उनके रहने या छोड़ने का बहुत महत्त्व होता था, क्योंकि उससे स्थिर समीकरण टूटने लगते थे। स्थिरता के समीकरण को तोड़ना और अपनी राजनीति के लिए घटनाएँ पैदा करना यह हर किसी से सम्भव नहीं होता है। इसके लिए परिश्रम और साहस का संगम चाहिए, पहल करने का मन चाहिए विपरीत परिस्थितियों से टकराने का पराक्रम चाहिए, नाटकीय बुद्धि चाहिए।
राजनारयण जी अब नहीं है। किसी नेता के चले जाने से जो शून्य पैदा होता है वह उसके अनुयायियों के लिए औरों से बड़ा होता है। राजनारायणजी के अनुयायियों या समर्थकों के समक्ष जिस तरह शून्य पैदा हो गया है, उसे वे किस तरह भरेंगे? व्यक्ति के रूप में इस शून्य को भरने की बात वे नहीं सोच सकते। किसी नाम के साथ अपने को जोड़कर राजनीति का सहारा अब उनके पास नहीं है। आने वाले दिनों में उनकी राजनीति तीन बातों पर निर्भर करेगी। (1) देश की वर्तमान परिस्थिति और चुनौतियों का विश्लेषण वे कहाँ तक करते हैं। (2) देश के निर्माण के संदर्भ में या समाजवाद की दिशा में विपक्षी पार्टियों की वे कैसी भूमिका देखते हैं। लोहिया के प्रति आस्था रखने वाले तमाम लोगों, निष्क्रिय हो चुके समाजवादियों, सोशलिस्ट पार्टी ‘जन’ आदि नामों और प्रतीकों में आकर्षण अनुभव करने वाले लोगों को नये प्रतिपक्ष की जरूरत महसूस होती है या नहीं। नये प्रतिपक्ष के लिए क्या-क्या करना होगा? (3) सोशलिस्टों की पुरानी गलतियों से कोई सबक लेते हैं या नहीं?
हमें आशा करनी चाहिए कि इन प्रश्नों का उत्तर मिलेगा। हम ‘वार्त्ता’ की ओर से राजनारायण जी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।