हसरत मोहानी

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हसरत मोहानी

“दरवेशी-ओ-इंक़लाब मसलक है मेरा
सूफ़ी मोमिन हूँ, इश्तिराकी मुस्लिम”

सरत मोहानी: वह साम्यवादी थे और उन्हें मक्का, मथुरा और मास्को से प्रेम था. कानपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम अधिवेशन के स्वागत समिति के अध्यक्ष रहे, हसरत मोहानी ने अपना परिचय देते हुए कहा. मतलब वह वे मिज़ाजी तौर पर इंक़लाबी थे. अपने विचारों और सिद्धांतों से समझौता करना उन्हें तनिक पसंद नहीं था. वे साम्य के पक्षधर थे. यह वही हसरत मोहानी थे जिन्होंने सर्वप्रथम ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया था जो बाद में चलकर हर क्रांतिकारियों का नारा बन गया. इन्होंने ही सर्वप्रथम मुकम्मल आजादी का नारा दिया था. इसके पहले 1903 में उन्होंने मात्र 22 साल की उम्र में एक उर्दू पत्रिका ‘उर्दू-ए- मुअल्ला’ निकाली. 1904 में मोहानी कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में भी शामिल हुए. मोहानी ने ‘तज़किरात-उल- शुअरा’ और ‘मुस्तक़बिल’ सरीखी पत्रिकाएँ प्रकाशित की और ‘दीवान-ए-शेफ़्ता’ व ‘इंतख़ाब-ए-मीर हसन’ का भी सम्पादन किया.

1924 में जब हसरत मोहानी तीसरी बार जेल में ढाई साल बिताने के बाद रिहा हुए, तो गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ में लिखा,”हसरत मोहानी देश की उन पाक-हस्तियों में से एक हैं जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए, क़ौमियत के भाव की तरक़्क़ी के लिए, अत्याचारों को मिटा देने के लिए, हर प्रकार से अन्यायों का विरोध करने के लिए, जन्म-भर कठिनाइयों और विपत्तियों के साथ घोर से घोरतम संग्राम किया.” इसी साल गणेश शंकर विद्यार्थी लिखते हैं, “इस कठिन समय में जब हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन नापने में अपना बल और पुरुषार्थ दिखा रहे हैं, मौलाना का हमारे बीच में आ जाना, बहुत संभव है, देश के लिए बहुत हितकर सिद्ध हो.”

1936 में वह प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में शामिल हुए जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी. हसरत मोहानी ने भाषण देते हुए कहा,”हमारे साहित्य में आज़ादी के आंदोलन का प्रतिबिंबन होना चाहिए. इसे सामराजियों और जुल्म करने वाले अमीरों का विरोध करना चाहिए। इसे मज़दूरों और किसानों और तमाम पीड़ित इंसानों का पक्षधर होना चाहिए. इसमें अवाम के सुख-दुख,उनकी आकांक्षाओं और इच्छाओं को इस तरह व्यक्त किया जाना चाहिए कि वे संगठित होकर क्रांतिकारी संघर्ष को कामयाब बना सकें.”

उर्दू अदब के आकाश का चमचमाता सितारा हसरत मोहानी का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान गांव में 1 जनवरी, 1875 को हुआ था. हसरत मोहानी का असली नाम था सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन. पढ़ने-लिखने में बचपन से ही मेधावी थे. कम उम्र में ही शायरी का जुनून सिर पर सवार हो गया. अपने ज़माने के मशहूर शायर तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी की शागिर्दी मिली.

अख़बार ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ में ब्रिटिश नीतियों के ख़िलाफ़ एक लेख के कारण उन्हें प्रथम बार 1908 में गिरफ्तार कर लिया गया. अलीगढ़ जेल भेजा गया. इसके बाद उन्हें अलीगढ़ से नैनी जेल भेज दिया गया. नैनी जेल में सख्त सजा के रूप में अंग्रेज जेलर ने मोहानी को एक मन गेहूं रोज पीसने का फ़रमान सुनाया. बावजूद वे नहीं टूटे. यहां भी इंक़लाबी शायरी जारी रखी.

एक साल की सजा काटकर वे जेल से छूटे और फिर बगावत की राह पकड़ ली. बगावत की राह को उन्होंने नहीं छोड़ा. अलीगढ़ और बाद में कानपुर में स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोली. अंग्रेजों के काफी सितम के बावजूद भी वह अपनी धारदार कलम को जारी रखा. उनका शेर है:

हम कौल के हैं सादिक अगर जान भी जाती है
वल्लाह कभी खिदमत-ए-अंगे्रज न करते’

1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मोहानी को भी शामिल किया गया. मादर-ए-वतन के लिये जो बन पड़ी वह उन्होंने किया। देश आज़ाद हुआ, तो वे पाकिस्तान नहीं गये। इसी मिट्टी पर आखिरी सांस ली। उर्दू अदब का यह महान शायर 13 मई 1951 को मौत की आगोश में समा गया.

इश्क और इंकलाब के शायर हसरत मोहानी भगवान कृष्ण के भी अनन्य भक्त थे. कई बार हज कर चुके मोहानी हर साल जन्माष्टमी के दिन मथुरा जाया करते थे. वे हमेशा अपने पास बांसुरी रखते थे. अलीगढ़ जेल में जब उनका सामान ज़ब्त किया गया, तो झोले में बांसुरी भी मिली. अंग्रेज अफसर ने पूछा तो मोहानी ने बताया कि कृष्ण से प्रेम है, इसलिये उसकी बांसुरी अपने पास रखता हूं. कृष्ण पर उन्होंने काफी लिखा भी.

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