गांधीजी ने अपने राजनैतिक संवाद में सभ्यता व शालीनता की एक अद्वितीय मिशाल पेश की।

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कोई भी आदमी इतिहास के कितने लंबे कालखंड पर प्रभाव डालता है इतिहास उसे तौलता है। गांधीजी ने भारत सहित पूरे विश्व पर जो प्रभाव डाला आज उनकी मृत्यु के 70 वर्ष बाद हम उसे तौल रहे हैं।

जब गांधीजी चम्पारण गए और उन्होंने वहां खादी पहनी तो इस पर तंज करते हुए ‘द पायोनियर’ अखबार ने लिखा कि गांधी नोटंकी करने यहां आए हैं। जब गांधीजी की चंपारण की चमक पूरे देश में पहुंचने लगी तो इसी अखबार ने 30 जून 1917 को अपने मुख्य पृष्ठ पर गांधीजी का बड़ा फोटो लगाकर उनका वक्तव्य बड़े बड़े अक्षरों में लिखा –

”मैंने यह राष्ट्रीय वस्त्र इसलिए पहना है क्योंकि एक भारतीय बनने का सबसे अच्छा तरीका यही है। अंग्रेजी कपड़े पहनना हमारे पतन और कमजोरी को दर्शाता है। इन कपडों को पहनकर हम राष्ट्रीय पाप करते हैं । हम लोग उस कपड़े को नजरअंदाज कर रहे हैं जो भारतीय परिवेश के एकदम अनुकूल है।”

जब गांधी जी कलकत्ता की हिंसा को रोकने कलकत्ता पहुंचते हैं तो श्री सी. राजगोपालाचारी को गांधीजी के उपवास पर भ्रम होता है कि क्या कलकत्ता की सड़कों पर स्टेनगन लिए घूम रहे गुंडों का मुकाबला उपवास से हो सकता हैं ? कलकत्ता में अंग्रेजों के अखबार स्टेट्समैन ने भी गांधीजी पर तंज करते हुए लिखा मिस्टर गांधी कलकत्ते में उपवास का नाटक करने आये हैं !

दरअसल गांधीजी के अहिंसात्मक उपवास पर सभी को भ्रम था पर गांधीजी को स्वयं पर कोई भृम नहीं था। वे अनन्त आशावादी थे, उसमें निराशा नाम की कोई चीज नहीं थी।इसलिए वह हर अंधेरे से कुछ न कुछ रोशनी ढूंढ ही निकलते थे।

जब गांधीजी 1 सितम्बर 1947 को कलकत्ता में आमरण अनशन पर बैठे तो फारवर्ड ब्लॉक के शरत चंद बोस, मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र घोष, सुहरावर्दी सहित हजारों लोग उपवास के साक्षी बनते हैं। उपवास का इतना गहरा असर होने लगा कि घरों में जो महिलाएं थीं उन्होंने गांधीजी के समर्थन में खाना खाना छोड़ दिया। वे खाना तैयार करती पर खुद नहीं खाती थीं। सभी स्टूडेंट्स भी कहने लगे कि अब हम इस उपवास में गांधीजी के साथ हैं।कलकत्ता के एंग्लो इंडियन व अंग्रेज पुलिस अफसरों ने भी गांधीजी के समर्थन में काले रंग का आर्म बेंड पहन लिया।

देखते दिखते उपवास के चौथे दिन कलकत्ता के सभी गुंडे स्टेनगन, हथियार, लोहे की रोड़ें लेकर गांधीजी के चरणों में डालकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े होने लगे। यहां तक कि गुंडों के सरदार ने गांधीजी से कहा कि आप हमें जो सजा देना चाहें वो हम भुगतने के लिए तैयार हैं। बस आप अपना अनशन तोड़ दीजिये। गांधीजी ने उनसे कहा कि मैं तुमको सजा देना चाहता हूँ जिन लोगों को तुमने सताया है, उन्हीं बस्तियों में फिर से जाओ और उनकी रक्षा के लिए अपने आप को समर्पित कर दो।

जिस स्टेट्समैन समाचार पत्र के प्रधान संपादक ने पहले गांधीजी का मजाक उड़ाया था उसने लिखा कि ”अब तक हम इन्हें मि. गांधी कहते थे, लेकिन इस चमत्कार को देखने के बाद आज से हम इनको महात्मा गांधी कहेंगे।”

स्टेट्समैन समाचार पत्र में गांधी के चमत्कारिक मिशन कलकत्ता के समाचार भरे पड़े थे। फोटो में एक गुंडा महात्मा गांधी के चरणों में स्टेनगन रख हाथ जोड़े खड़ा था।

रिचर्ड एटनबरो की गांधी फ़िल्म में एक दृश्य बहुत मार्मिक है जिसमें कलकत्ता में उपवास के दौरान गांधीजी चारपाई पर लेटे हुए हैं उनके एक ओर सुहरावर्दी दीवार से टिके खड़े हैं दूसरी ओर जवाहरलाल चिंतित मुद्रा में बैठे हैं। एक हिन्दू शक्श ओमपुरी आता है और गांधीजी के चरणों में तलवार फेंककर कहता है कि लो यही चाहते थे आप? अब मुझे इस तलवार की कोई जरूरत नहीं। मैंने एक 11 साल के बच्चे को दीवार पर सर पटक पटक कर मार डाला! यह नहीं पूछोगे कि क्यों मारा? गांधीजी चुपचाप टकटकी लगाए उसे देखते रहते हैं एक शब्द भी नहीं बोलते। वह शक्श कहता है कि मैंने इसलिए ऐसा किया क्योंकि उन्होंने( दूसरे समुदाय के) मेरे 11 साल के बच्चे को तलवार से मारा था। मेरा बदला पूरा हुआ। ऐसा कहकर वह शख्स जाने लगता है ।

गांधीजी धीमी आवाज में उससे कहते हैं कि सुनो! तुम्हारा बदला अभी पूरा नहीं हुआ है । तुम एक 11 साल के यतीम बच्चे को गोद लो जो मुसलमान हो उसे मुसलमान पद्यति से पालकर बड़ा करो। यही तुम्हारे बच्चे को तुम्हारी सच्ची श्रद्धांजलि और तुम्हारा पश्चाताप होगा। यह सुनकर वह शख्स (ओमपुरी) गांधीजी के पैर पकड़कर जोर जोर से रोने लगता है।

5 सितम्बर को कलकत्ता पूरा शांत हो जाता है। सुहरावर्दी, ए सी चटर्जी और सरदार निरंजन सिंह तालीब गांधीजी को रिपोर्ट सौंपते हैं कि कलकत्ता में पूरी तरह शांति हो चुकी है तब गांधीजी अपना अनशन तोड़ते हैं।

राजगोपालाचारी जिनको गांधीजी के उपवास पर शुरू में भ्रम था उन्होंने कहा कि यह एक बड़ा चमत्कारिक उपवास था। गांधीजी ने बड़े बड़े कारनामे किये हैं , लेकिन कलकत्ता में उन्होंने बुराई और दुराचार पर जो विजय प्राप्त की है , उतना शानदार कारनामा कोई दूसरा नहीं है। भारत की स्वतंत्रता भी नहीं है।

यह सब कैसे हुआ? गांधीजी कैसे अहिंसा को अपना अचूक हथियार और उपवास को अपना असीम आत्मबल बना सके? वे अपने विरोधियों को प्रेम से कैसे जीत सके? आज गांधीजी की हत्या के 70 साल बाद हम इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि गांधी जैसे उपवास करना हर किसी के वश में नहीं है। उपवास करने के लिए अधिकार अर्जित करना पड़ता है, उसके लिए गांधीजी की तरह पूरी जिंदगी अपनी जनता के लिए झोंकनी पड़ती है। वह साहस हम में से ज्यादातर लोगों में नहीं दी। इसलिए अगर हम आज उपवास करने बैठ भी जाएं तो वह नकली उपवास होगा उसका कोई असर नहीं होगा, उससे पत्ता नहीं फड़केगा।

गांधी इसी सांसारिक मैदान में खड़े होकर हमारी आंखों के सामने अपनी साधना का सारा युद्ध लड़ते हैं। वे कुछ सिद्धि पा कर हमारे बीच नहीं आये और न ही उन्होंने खुद को भगवान का अवतार घोषित किया। वे इसी लोक -अखाड़े में ही अपना ज्ञान खोजते हैं और लोक को उसमें दीक्षित करते हैं। लोक का दीक्षित होना ही उनके ज्ञान की असली कसौटी था।

गांधी के लिए साध्य, साधन और विवेक आदर्श का नहीं, व्यवहारिकता का सवाल था। वे कहते थे कि तुम गलत रास्ते चल कर अपने साध्य तक पहुंचोगे, तो वह रास्ता ही तुम्हारे साध्य का स्वरूप बदल देगा। अहिंसा जब मूल्य बनकर हमारे पास आती है तब वह हमारे अंदर एक बुनियादी परिवर्तन कर देती है। तब हमारा चलना, बोलना, कहना और उपस्थित होना ही वह कसौटी बन जाता है। गांधीजी कहते थे कि मूल्य का स्वभाव ही है कि वह मूल को छूता है, रणनीति हमेशा चमड़ी तक पहुंच कर दम तोड़ देती है। इसलिए वे जनता के मूल को छूते थे , जनता उनके पीछे हो जाती थी।

गांधीजी ने संघर्ष का नया रास्ता दिया जिसे आज दुनिया समझने की कोशिश कर रही है। इस संघर्ष में लड़ते तो पूरी ताकत से हैं पर यह ध्यान रखते हुए कि अपने विरोधी को नीचा नहीं दिखाना है। गांधीजी और ब्रिटिश हुकूमत के बीच चलने वाले संघर्ष में ब्रिटिश पक्ष ने अपनी कठोरता कभी नहीं छोड़ी लेकिन सभ्यता का दामन भी नहीं छोड़ा। गांधी ने भी अपनी टेक नहीं बदली लेकिन कभी ब्रिटिश हुक्मरान को नीचा दिखाने वाला कोई वक्तव्य कभी नहीं दिया। दो धुर विरोधियों में तकरीबन चार दशक तक चलने वाली कशमकश को राजनीतिक संवाद में सभ्यता और शालीनता की मिसाल के तौर पर भी पढ़ा जा सकता है।


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