— परिचय दास —
सरकारी प्राइमरी स्कूल किसी भी राष्ट्र की भावी पीढ़ी के निर्माण की नींव होते हैं। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में यह नींव कहीं ढीली, कहीं मजबूत और कहीं उपेक्षित है। सरकारी प्राइमरी स्कूलों में सुधार का प्रश्न केवल एक शैक्षिक प्रश्न नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और नैतिक प्रश्न भी है। जब तक ये विद्यालय अपनी गरिमा, गुणवत्ता और प्रभाव को पुनः प्राप्त नहीं करते, तब तक देश में शिक्षा का समावेशी, समतामूलक और न्यायपूर्ण ढाँचा नहीं बन सकता।
सुधार की प्रक्रिया केवल इमारतें बनवाने या किताबें बाँटने तक सीमित नहीं हो सकती। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें नीतिगत निर्णय, प्रशासनिक पारदर्शिता, शिक्षकों का समर्पण, समुदाय की भागीदारी और बच्चों की वास्तविक ज़रूरतों की पहचान शामिल होती है। वर्तमान स्थिति यह है कि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों के हजारों विद्यालय अधकचरे संसाधनों, अप्रशिक्षित शिक्षकों और अनुपस्थित बच्चों के बोझ से दबे हुए हैं। एक ओर मिड-डे मील जैसी योजनाएँ बच्चों को स्कूल लाने की कोशिश करती हैं, तो दूसरी ओर शिक्षक विद्यालय छोड़कर दूसरे कार्यों में लगे पाए जाते हैं। बच्चे विद्यालय आते हैं परन्तु शिक्षा की मूल आत्मा, ज्ञान की परंपरा और सोचने की स्वतंत्रता उनके जीवन में दाख़िल नहीं हो पाती।
सरकारी प्राइमरी स्कूलों के सुधार की शुरुआत विद्यालय के भौतिक ढाँचे से नहीं, बल्कि दृष्टिकोण से होनी चाहिए। हमें यह स्वीकार करना होगा कि इन विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे किसी विशेष तबके, वर्ग या आर्थिक स्थिति के प्रतिनिधि हैं। इनमें बहुसंख्यक बच्चे वंचित और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों से आते हैं। इसलिए शिक्षा उनके लिए केवल किताब पढ़ना नहीं, बल्कि सामाजिक गतिशीलता, गरिमा और अवसर प्राप्त करने का माध्यम भी है। यदि हम इन विद्यालयों को उपेक्षित छोड़ देते हैं, तो हम एक बड़ी पीढ़ी को अंधेरे में धकेल रहे होते हैं।
शिक्षकों की भूमिका इस पूरी प्रक्रिया में केन्द्रीय है। सरकारी शिक्षक को सरकारी कर्मचारी के बजाय ज्ञान का संवाहक और सामाजिक परिवर्तन का अग्रदूत समझा जाना चाहिए। वर्तमान में शिक्षकों को दी जाने वाली ट्रेनिंग मात्र औपचारिकता बन गई है। इसमें नवीन शिक्षण विधियों, बाल मनोविज्ञान, स्थानीय भाषाओं की भूमिका और रचनात्मक गतिविधियों पर बल दिया जाना चाहिए। शिक्षकों की भर्ती में पारदर्शिता, योग्यता और संवेदनशीलता का ध्यान रखना अनिवार्य है। शिक्षकों को स्थानीय समुदाय से जोड़ने और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने के प्रयास भी सुधार के महत्त्वपूर्ण घटक हैं।
विद्यालय के माहौल को बच्चा-केंद्रित बनाना आवश्यक है। अधिकांश विद्यालयों में अभी भी अनुशासन के नाम पर भय और एकतरफा संवाद का वातावरण है। बच्चों की जिज्ञासा, रचनात्मकता और विश्लेषण क्षमता को बढ़ावा देने वाला वातावरण बनाए बिना हम गुणवत्ता की बात नहीं कर सकते। स्थानीय लोककथाएँ, खेल, चित्रकला, हस्तकला और स्थानीय इतिहास को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना बच्चों को अपने परिवेश से जोड़ता है और शिक्षा को जीवंत बनाता है। एक जड़ पाठ्यक्रम जो केवल परीक्षा की ओर देखता है, वह कभी भी बाल शिक्षा का सच्चा उद्देश्य पूरा नहीं कर सकता।
विद्यालयों की भौतिक सुविधाएँ भी सुधार के दायरे में आती हैं, परन्तु ये साधनमात्र हैं, उद्देश्य नहीं। एक साफ़-सुथरा, रंग-बिरंगा, बच्चों के अनुकूल विद्यालय ही उन्हें आकर्षित कर सकता है। शौचालय, पीने का पानी, पुस्तकालय, खेल का मैदान, और बैठने की सुविधा जैसी आधारभूत संरचनाओं की कमी बच्चों में विद्यालय के प्रति अरुचि पैदा करती है। सरकार द्वारा इन सुविधाओं के लिए आवंटित बजट का ईमानदारी से उपयोग सुनिश्चित करना भी प्रशासन की जवाबदेही है।
समुदाय की भागीदारी विद्यालय सुधार की सबसे मजबूत और सबसे उपेक्षित कड़ी है। जब तक अभिभावक विद्यालय को केवल एक सरकारी ढांचा मानते रहेंगे और उसमें अपनी भूमिका नहीं देखेंगे, तब तक परिवर्तन अधूरा रहेगा। ग्राम सभाएँ, अभिभावक-शिक्षक बैठकें, स्थानीय त्योहारों में विद्यालय की भागीदारी और पंचायतों की निगरानी से एक जीवंत संवाद स्थापित हो सकता है। जब गाँव का हर व्यक्ति विद्यालय को अपना मानेगा, तभी विद्यालय बच्चों का अपना बन सकेगा।
प्रौद्योगिकी का समुचित उपयोग भी सुधार का एक आधुनिक माध्यम बन सकता है। स्मार्ट क्लास, ऑनलाइन पाठ्यसामग्री, रेडियो और मोबाइल एप्स के माध्यम से दूरदराज़ के विद्यालयों में भी ज्ञान की पहुँच संभव है परन्तु यह तभी सार्थक है जब शिक्षक प्रशिक्षित हों, बिजली और नेटवर्क की सुविधाएँ हों और बच्चे प्रौद्योगिकी को आत्मसात करने को तैयार हों। तकनीक को शिक्षा में शामिल करना तभी उपयोगी होता है जब यह सिखाने के पारंपरिक और मानवीय पक्षों को कमजोर न करे, बल्कि उसे विस्तार दे।
विद्यालयों के मूल्यांकन की प्रक्रिया को भी मानवीय और वस्तुनिष्ठ बनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में कई निरीक्षण केवल कागज़ी खानापूर्ति होते हैं। मूल्यांकन में विद्यालय की उपस्थिति, शिक्षण गुणवत्ता, बच्चों की रुचि, गतिविधियों की विविधता और सामाजिक प्रभाव को मापा जाना चाहिए। स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाएँ, रिटायर्ड शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता इस प्रक्रिया में भागीदार बन सकते हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही की भावना प्रशासनिक सुधारों के केन्द्र में होनी चाहिए।
सरकारी स्कूलों की छवि सुधारना भी एक सामाजिक-मनोगतिक परिवर्तन है। लंबे समय तक इन विद्यालयों को ‘गरीबों के स्कूल’ या ‘निठल्लेपन की जगह’ कहा जाता रहा है। इससे एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक बहिष्कार तैयार हुआ है। मध्यमवर्ग और शहरी तबका इन विद्यालयों की ओर देखना भी बंद कर चुका है। यदि हम चाहते हैं कि सरकारी विद्यालय पुनः गरिमा प्राप्त करें तो हमें उनकी सार्वजनिक छवि को बदलना होगा। इसमें सरकार, मीडिया, लेखक, कलाकार, और स्वयं नागरिकों की भूमिका है। जब एक सरकारी विद्यालय अपनी गुणवत्ता से गाँव या शहर का गौरव बनेगा, तब निजी विद्यालय भी सुधरने को बाध्य होंगे और समतामूलक शिक्षा का सपना साकार हो सकेगा।
सरकारी प्राइमरी स्कूलों का सुधार एक दीर्घकालिक, बहुपरतीय और सामूहिक प्रक्रिया है। यह किसी एक योजना, एक बजट या एक रिपोर्ट से पूरा नहीं हो सकता। इसमें सरकार की इच्छाशक्ति, शिक्षकों का समर्पण, अभिभावकों की भागीदारी, समाज की समझ और बच्चों के सपनों का मेल आवश्यक है। जब तक हम सरकारी विद्यालयों को अपने भविष्य का प्रतिनिधि नहीं मानते, तब तक कोई सुधार गहन और स्थायी नहीं होगा। शिक्षा वह बीज है जो यदि सही भूमि, सही जलवायु और सही देखभाल में पड़े तो वह वृक्ष बनकर आने वाले समय को छाया दे सकता है। सरकारी प्राइमरी स्कूलों के सुधार में ही देश की सबसे गहरी छाया छिपी है। यही विद्यालय लोकतंत्र की पहली पाठशाला हैं, और इन्हीं से निकल कर आने वाला नागरिक अपने समाज को नए मूल्य, नई दृष्टि और नई गरिमा दे सकता है।
विद्यालय सुधार के प्रयासों में सबसे बड़ी बाधा यह रही है कि हम अक्सर समस्याओं को ऊपर-ऊपर से देखते हैं और सुधार के नाम पर योजनाओं की खानापूरी करते हैं। परंतु सच्चाई यह है कि किसी भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय की स्थिति जानने के लिए वहाँ एक पूरा दिन बिताना होगा—सुबह की प्रार्थना से लेकर दोपहर के भोजन और छुट्टी तक। तभी स्पष्ट हो पाएगा कि कक्षा में कितने बच्चे हैं, शिक्षक कितने पढ़ा रहे हैं, क्या पढ़ा रहे हैं, बच्चों के चेहरों पर जिज्ञासा है या ऊब, और क्या यह पूरा ढाँचा जीवंत है या बस एक ठिठकी हुई औपचारिकता। यही पहली जरूरत है—स्थिति का ईमानदार मूल्यांकन।
जब हम किसी विद्यालय की बात करते हैं, तो वह केवल एक इमारत नहीं होती, बल्कि वह उस क्षेत्र की सामूहिक आकांक्षाओं का केन्द्र होती है। इसलिए सुधार की प्रक्रिया में सबसे पहले उस विद्यालय की सामाजिक-सांस्कृतिक ज़मीन को समझना होगा। एक आदिवासी बहुल गाँव में और एक शहरी झुग्गी क्षेत्र में स्थित स्कूल की ज़रूरतें और चुनौतियाँ एक जैसी नहीं हो सकतीं। इसलिए सुधार की कोई एक रेखीय योजना नहीं हो सकती, बल्कि हर स्कूल के लिए एक स्थानीय, लचीला और सृजनात्मक मॉडल चाहिए।
आज जो सबसे बड़ी विडंबना है, वह यह कि स्कूलों को एक दफ्तर की तरह चलाया जा रहा है। वहाँ मानवीय संवेदना, रचनात्मकता और बच्चों के मन की थाह लेने वाली दृष्टि गायब है। शिक्षक, जो कभी एक प्रेरणास्रोत माने जाते थे, आज नौकरीशुदा अधिकारी की तरह केवल हाजिरी और रिपोर्टिंग तक सीमित हो गए हैं। स्कूल केवल सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन केन्द्र बन गए हैं—मिड डे मील, यूनिफॉर्म वितरण, बाल गणना, टीकाकरण आदि के लिए। इन सबका महत्व है, लेकिन जब शिक्षक की भूमिका रसोइए या डाटा एंट्री ऑपरेटर में बदल दी जाती है, तब वह शिक्षा की आत्मा को कैसे जिलाएगा?
शिक्षा केवल सूचना का संप्रेषण नहीं है, वह प्रेरणा का संचार भी है। शिक्षक जब बच्चों को कहानी सुनाता है, कविता पढ़ाता है या मिट्टी से खिलौने बनवाता है, तब वह केवल पाठ्यक्रम नहीं पढ़ा रहा होता, वह उनकी कल्पना को पंख दे रहा होता है। और यही वह बिंदु है जहाँ सरकारी स्कूल पिछड़ते जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें यह उड़ान देने की स्वतंत्रता, प्रशिक्षण और वातावरण नहीं मिल रहा।
इस समस्या की एक जड़ यह भी है कि शिक्षा नीति और योजनाएं केंद्र या राज्य के मंत्रालयों से बनती हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन जमीनी स्तर पर होता है, जहाँ की ज़रूरतें, भाषाएँ, संदर्भ और समस्याएँ बिल्कुल अलग होती हैं। उदाहरण के लिए, एक ऐसे विद्यालय में जहाँ बच्चों की मातृभाषा गोंडी या भोजपुरी है, वहाँ हिंदी या अंग्रेज़ी माध्यम से शुरू में पढ़ाना कितना प्रभावी होगा? भाषा केवल पढ़ाई का माध्यम नहीं, सोचने और महसूस करने का औज़ार भी है। इसलिए स्थानीय भाषाओं को प्राथमिक शिक्षा में सम्मान देना जरूरी है। जब बच्चा अपनी भाषा में सोच सके, तभी वह दूसरे ज्ञान का आत्मसात कर सकेगा।
विद्यालयों को बालमैत्री और समावेशी बनाना भी सुधार की दिशा में एक जरूरी कदम है। बालक और बालिका के बीच, अमीर और गरीब के बीच अगर भेदभाव की मानसिकता शिक्षकों में ही होगी तो हम सामाजिक न्याय की कल्पना कैसे कर सकते हैं? बालिकाओं के लिए सुरक्षित, आत्मीय और प्रेरणादायक वातावरण बनाना हर शिक्षक और प्रधानाध्यापक की ज़िम्मेदारी है। ऐसे विद्यालय जहाँ लड़कियाँ खुलकर बोलें, खेलें, चित्र बनाएँ और विज्ञान की प्रयोगशाला में प्रयोग करें—वही सशक्तिकरण की शुरुआत कर सकते हैं।
शिक्षा के मूल्यांकन की पद्धतियाँ भी बेहद पुरानी और रट्टामार प्रकृति की हैं। केवल परीक्षा के अंकों से यह तय नहीं किया जा सकता कि बच्चा कुछ सीख पाया या नहीं। हमें मूल्यांकन को रचनात्मक बनाना होगा—जिसमें बच्चे के सोचने की क्षमता, सवाल पूछने की प्रवृत्ति, समूह में काम करने की योग्यता और भावनात्मक विकास को भी महत्व मिले। इसका एक सरल तरीका यह हो सकता है कि विद्यालयों में मासिक पोर्टफोलियो बनाए जाएँ, जिसमें शिक्षक बच्चों की प्रगति को शब्दों में दर्ज करें, न कि केवल अंकों में।
विद्यालय का संबंध आसपास की दुनिया से भी होना चाहिए। बच्चों को खेत, नदी, बाजार, डाकघर, अस्पताल और बगीचे की सैर पर ले जाना चाहिए ताकि वे अपने परिवेश से जुड़ सकें। ‘खुला विद्यालय’ की अवधारणा इसीलिए महत्वपूर्ण है कि शिक्षा को कक्षा की दीवारों से बाहर ले जाया जाए। जब बच्चा सीखे कि नदी कैसे बहती है, किसान कैसे बोता है, या कबूतर कैसे संदेश ले जाता था—तब उसकी शिक्षा जीवन से जुड़ती है।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों को नवाचार का केन्द्र बनाया जाए, न कि केवल योजनाओं का निष्पादन स्थल। हर ब्लॉक में 10-15 आदर्श विद्यालय चुने जाएँ और उन्हें नवाचार के लिए संसाधन, स्वायत्तता और प्रशिक्षण मिले। वहाँ की सफल शिक्षण पद्धतियाँ, गतिविधियाँ, और स्कूल प्रबंधन मॉडल अन्य विद्यालयों में प्रसारित किए जाएँ। इसी से एक प्रेरणास्पद लहर पैदा हो सकती है।
सरकारी स्कूलों के प्रति समाज का दृष्टिकोण भी बदलना होगा। आज हर माता-पिता चाहता है कि उसका बच्चा प्राइवेट स्कूल में पढ़े—भले ही फीस भरने में उसे कर्ज लेना पड़े। इसका कारण केवल अंग्रेज़ी या बेहतर पोशाक नहीं, बल्कि एक विश्वास की कमी है। यह विश्वास हम तभी वापस ला सकते हैं जब सरकारें स्वयं अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजें, जब अधिकारी निरीक्षण की बजाय सहभागिता का दृष्टिकोण अपनाएँ, और जब शिक्षक अपने विद्यालय को केवल काम की जगह नहीं, बल्कि अपने सपनों की प्रयोगशाला मानें।
शिक्षा केवल विकास का साधन नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा की बुनियाद है। सरकारी प्राइमरी स्कूलों का पुनरुद्धार दरअसल भारतीय लोकतंत्र का पुनरुद्धार है, क्योंकि यहीं से वह नागरिक तैयार होता है जो प्रश्न पूछता है, निर्णय लेता है और समाज को बदलता है। यह सुधार केवल नीतिगत नहीं, नैतिक प्रश्न भी है—कि क्या हम अपनी अगली पीढ़ी को गुणवत्ता, गरिमा और अवसर दे पाएंगे?
सरकारी प्राइमरी स्कूलों के सुधार की प्रक्रिया में एक ऐसा पहलू भी है जो अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है — और वह है बच्चों की ‘उपस्थिति’ की वास्तविकता। बहुत से विद्यालयों में बच्चे पंजी में दर्ज हैं, पर कक्षा में नहीं। कारण अनेक हैं — पारिवारिक निर्धनता, अभिभावकों की उदासीनता, बच्चों से घर-गृहस्थी या खेत-खलिहान का काम लेना, या कभी-कभी विद्यालय का ही ऐसा वातावरण जो बच्चों को आकर्षित नहीं कर पाता। अतः ‘स्कूल में बच्चे क्यों नहीं आते?’ यह प्रश्न सुधार की जड़ तक पहुँचने का द्वार हो सकता है।
इसी संदर्भ में ‘विद्यालय पूर्व शिक्षा’ की अनदेखी भी एक बड़ी समस्या है। आंगनबाड़ी और कक्षा 1 के बीच का जो मानसिक और शैक्षिक संक्रमण होता है, उसे अगर सुगम नहीं बनाया गया, तो बच्चा शुरू से ही शिक्षा में पिछड़ने लगता है। इसलिए विद्यालयों को आंगनबाड़ी केन्द्रों से गहरे स्तर पर जोड़ा जाना चाहिए, ताकि वहाँ से आने वाले बच्चे कक्षा 1 में सहजता से प्रवेश कर सकें। पाठ्यक्रम, भाषा और गतिविधियों में एक सहजता और निरंतरता होनी चाहिए, जिससे बच्चा शिक्षा को बोझ नहीं, खेल और रचना माने।
एक अन्य चुनौती है शिक्षकों की अनुपलब्धता और स्थानांतरण की अव्यवस्थित व्यवस्था। बहुत से विद्यालयों में केवल एक शिक्षक होता है, जिसे पूरे विद्यालय की जिम्मेदारी निभानी होती है। कई बार योग्य और अनुभवी शिक्षक शहरी या सुविधाजनक क्षेत्रों में ही पदस्थ होते हैं, जबकि दूरस्थ और वंचित क्षेत्रों में सबसे कमज़ोर शिक्षण व्यवस्था होती है। ऐसे में जरूरत है एक ‘शिक्षक नीति’ की जो योग्यता, अनुभव, संवेदनशीलता और न्याय के आधार पर स्थानांतरण और नियुक्ति तय करे। डिजिटल निगरानी और जिला स्तर पर जवाबदेही तय करने से भी स्थिति में सुधार हो सकता है।
विद्यालयों के लिए संसाधन जुटाने के पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ हमें नवाचारपूर्ण तरीकों पर भी विचार करना चाहिए। स्थानीय पंचायत, स्वयंसेवी संगठन, कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR), सेवानिवृत्त शिक्षक, कला समूह, स्थानीय इतिहासकार, किसान, मछुआरे—सभी को किसी न किसी रूप में विद्यालय के शैक्षिक और सांस्कृतिक जीवन से जोड़ा जा सकता है। इससे बच्चों को विविध जीवनानुभवों से परिचय मिलेगा और शिक्षा केवल ‘पाठ्यक्रम’ नहीं, एक समृद्ध जीवन दृष्टि बन जाएगी।
इस परिप्रेक्ष्य में यह भी आवश्यक है कि स्कूलों में केवल ‘पढ़ाना’ ही नहीं, बल्कि ‘जीवन जीना सिखाना’ भी हो। छोटे-छोटे अभ्यास जैसे पेड़ लगाना, बर्तन धोना, मिल बाँट कर खाना, किसी बीमार साथी की देखभाल करना—ये सब उस नागरिकता की नींव रखते हैं जो भारत को केवल शिक्षित ही नहीं, संवेदनशील भी बनाएगी। विद्यालयों को ‘सामाजिक प्रयोगशाला’ के रूप में विकसित करना होगा, जहाँ एक नया मनुष्य, एक नया नागरिक और एक नया दृष्टिकोण तैयार हो।
शिक्षा के साथ-साथ मूल्य-बोध का विकास भी ज़रूरी है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के जीवन में पहले से ही कई प्रकार की असुरक्षाएँ और अभाव होते हैं। उनके भीतर स्वाभिमान, आत्मविश्वास और करुणा जैसे गुणों का विकास विद्यालय में ही हो सकता है। शिक्षक यदि उन्हें उनके भीतर की संभावनाओं से परिचित करवा सके, तो शिक्षा का अर्थ केवल ‘कक्षा 5 पास’ होना नहीं रह जाएगा, बल्कि वह एक गहरा अनुभव होगा—जो उनके जीवन की दिशा बदल सकता है।
इसके अतिरिक्त, एक दीर्घकालिक सुधार के लिए यह भी आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा को केवल राज्य सरकारों पर न छोड़ा जाए। भारत में शिक्षा का संविधानिक ढाँचा केंद्र और राज्य दोनों को इसकी जिम्मेदारी देता है। यदि केंद्र सरकार इस बात को सुनिश्चित करे कि पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों के लिए न्यूनतम गुणवत्ता मानक हों, और इनका पालन अनिवार्य हो, तो क्षेत्रीय विषमता कम की जा सकती है।
हमारे समय की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हम शिक्षा को महज़ ‘डिग्री प्राप्त करने की प्रक्रिया’ न समझें, बल्कि एक संवेदनात्मक और बौद्धिक यात्रा के रूप में देखें। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाला बच्चा किसी भी निजी स्कूल के छात्र से कमतर नहीं है — उसके पास भी जिज्ञासा है, उत्सुकता है, और आगे बढ़ने का सपना है। जरूरत है कि उसे एक ऐसा वातावरण मिले जो उसकी आँखों में चमक भर दे, और उसके भीतर यह विश्वास रोपे कि वह भी कुछ कर सकता है।
यह भी ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी विद्यालय का सबसे प्रभावी सुधारक उसका अपना शिक्षक हो सकता है। यदि एक भी शिक्षक अपनी व्यक्तिगत दृष्टि, मेहनत और सृजनात्मकता से एक विद्यालय को जीवंत बना देता है, तो वह पूरे क्षेत्र के लिए एक आदर्श बन जाता है। ऐसे प्रेरणादायक उदाहरण देशभर में हैं—जहाँ एक शिक्षक ने अकेले विद्यालय को बदल दिया। सरकार को चाहिए कि ऐसे शिक्षकों की पहचान कर उन्हें मंच, साधन और सम्मान दे, ताकि अन्य शिक्षक भी प्रेरणा लें।
संक्षेप में, सरकारी प्राइमरी स्कूलों के सुधार की प्रक्रिया कोई ‘प्रोजेक्ट’ नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, नैतिक और रचनात्मक क्रांति है। यह क्रांति योजनाओं से नहीं, बल्कि दृष्टिकोण से शुरू होती है। हमें अपनी प्राथमिक शिक्षा को केवल ‘कर्मचारी उत्पादन प्रणाली’ नहीं, बल्कि ‘मनुष्य निर्माण प्रक्रिया’ के रूप में देखना होगा। इस प्रक्रिया में प्रत्येक बच्चा एक बीज है—जिसे सही हाथ, सही मिट्टी और सही रोशनी मिल जाए, तो वह एक ऐसा वृक्ष बन सकता है जो आने वाले समय को भी छाया, फल और फूल दे सके।
सरकारी प्राइमरी स्कूलों का सुधार केवल शिक्षा तंत्र के किसी एक अंग की मरम्मत नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र के मानस और भविष्य को दिशा देने की प्रक्रिया है। ये विद्यालय उस समाज की परछाई हैं, जिसे हम बनाना चाहते हैं — समतामूलक, न्यायप्रिय, रचनात्मक और संवेदनशील। इसलिए इनका सशक्त होना केवल शैक्षिक लक्ष्य नहीं, बल्कि नैतिक और लोकतांत्रिक कर्तव्य है।
आज यदि कोई बच्चा सरकारी विद्यालय में बैठा है, तो वह केवल एक विद्यार्थी नहीं, बल्कि एक संभावित नागरिक, वैज्ञानिक, कलाकार, समाज-सुधारक या नेता है। उसकी आँखों में जो सपना है, वह सपना केवल उसका निजी सपना नहीं, बल्कि इस देश के भविष्य का दृश्य भी है। यदि वह बच्चा अपने विद्यालय में सम्मान, स्नेह, ज्ञान, गरिमा और अवसर नहीं पाता, तो हम एक नहीं, असंख्य संभावनाओं की हत्या कर रहे होते हैं — चुपचाप, योजनाओं और आंकड़ों की आड़ में।
यह भी सच है कि सरकारें योजनाएँ बना रही हैं, बजट दे रही हैं, और आँकड़े गिना रही हैं। परंतु सुधार तब तक गहरे नहीं होंगे जब तक इस पूरी प्रक्रिया में संवेदनशीलता, ज़मीनी समझ और दूरदृष्टि नहीं जुड़ती। शिक्षक को केवल सरकारी कर्मचारी नहीं, बल्कि ‘ग्राम-शास्त्री’ और ‘लोक-गुरु’ के रूप में प्रतिष्ठा मिले; विद्यालय केवल भवन नहीं, बाल मन की प्रयोगशाला बने; और समाज केवल दर्शक नहीं, सहभागी हो — तभी परिवर्तन साकार हो सकता है।
हमें यह स्वीकारना होगा कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों का सुधार कोई चमत्कारी कदमों से नहीं होगा। यह एक सतत प्रक्रिया है — छोटे-छोटे सुधार, लगातार प्रयास, और एक ईमानदार दृष्टिकोण। जब हर गाँव का विद्यालय एक ‘जीवंत संस्था’ बन जाएगा — जहाँ बच्चे केवल पढ़ते नहीं, सोचते हैं, रचते हैं, प्रश्न करते हैं, और अपने भविष्य का सपना देख सकते हैं — तभी हम यह कह पाएँगे कि हमने अपने लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत की हैं।
इसलिए विद्यालय सुधार का संघर्ष केवल शैक्षिक सुधार का संघर्ष नहीं है, यह एक सांस्कृतिक और नैतिक पुनर्जागरण की माँग है। वह माँग जो हमें हमारे भीतर के शिक्षक को पुकारने को कहती है — एक ऐसा शिक्षक जो व्यवस्था में नहीं, विचार में रहता है; जो पाठ्यपुस्तक में नहीं, बच्चे की आँखों में झाँकता है; जो केवल सिखाता नहीं, सुनता भी है।
इसी सुनने, समझने और सहजीवन की प्रक्रिया से एक नया भारत जन्म लेगा — जिसमें सरकारी विद्यालय केवल बच्चों की उपस्थिति नहीं, उनके सपनों की उपस्थिति से भरे होंगे।
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