अमेरिका द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत टेरिफ लगाने का कूटनीतिक पहलू और भारत के हित के संदर्भ

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donald trump vs india

Parichay Das

— परिचय दास —

मेरिका द्वारा रूस से भारत के तेल खरीदने के विरोध में 50 प्रतिशत टैरिफ लगाया जाना केवल आर्थिक कदम नहीं है बल्कि यह एक बहुस्तरीय geopolitics, कूटनीति, मनोविज्ञान और वैश्विक शक्ति संघर्ष का जटिल रूप है। इसे एक विस्तृत दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह निर्णय अमेरिकी वर्चस्ववाद, उसके पूंजीवादी हितों की रक्षा, भारत की बढ़ती आत्मनिर्भरता और रूस-भारत की नई ऊर्जा साझेदारी के विरुद्ध एक प्रतिक्रियात्मक मुद्रा है।

अर्थशास्त्र के धरातल पर यह टैरिफ वैश्विक व्यापार के उस पुराने नियम को झुठलाता है जो मुक्त व्यापार और प्रतियोगी बाजार की शपथ लेता है। अमेरिका अपने ही बनाए वाशिंगटन कंसेंसस के उसूलों को ताक पर रखकर संरक्षणवाद की नीति पर चलता दिखाई दे रहा है। टैरिफ का अर्थ है कि भारतीय उत्पादों पर अमेरिकी बाजार में भारी शुल्क लगेगा, जिससे उनकी कीमतें बढ़ेंगी और प्रतिस्पर्धा में वे पिछड़ेंगे। यह भारत के निर्यात को सीधा प्रभावित करेगा, विशेषतः उन उत्पादों को जो पहले ही चीन, वियतनाम, बांग्लादेश आदि से प्रतिस्पर्धा में हैं लेकिन इससे अमेरिका को भी नुकसान होगा, क्योंकि अमेरिकी कंपनियाँ भारतीय टेक्सटाइल, रसायन, इंजीनियरिंग गुड्स और आईटी उत्पादों पर निर्भर हैं। यह एक ऐसा आत्मघाती कदम हो सकता है जो खुद अमेरिका की आपूर्ति श्रृंखला को बाधित कर देगा।

राजनीतिक स्तर पर यह एक शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपेक्षाकृत स्वतंत्र और उदार रूप से बढ़ते देश पर दबाव बनाने का प्रयास है। अमेरिका चाहता है कि रूस को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग किया जाए, जिससे यूक्रेन युद्ध में उसकी सामरिक और आर्थिक स्थिति कमजोर हो। भारत का रूस से तेल खरीदना अमेरिका की इस रणनीति के विरुद्ध है, क्योंकि इससे रूस को न केवल आर्थिक सहायता मिल रही है, बल्कि भारत को सस्ता कच्चा तेल भी उपलब्ध हो रहा है जो उसकी आर्थिक मजबूती का आधार बनता जा रहा है। अमेरिका इसे अपने नियंत्रण से बाहर जाता हुआ देख रहा है और यह टैरिफ एक राजनीतिक संदेश भी है कि यदि कोई राष्ट्र अमेरिकी नीतियों से हटकर स्वतंत्र निर्णय लेता है, तो उसे इसका मूल्य चुकाना पड़ेगा।

मनोविज्ञान की दृष्टि से यह एक प्रकार की ‘दबाव की राजनीति’ है जिसमें एक महाशक्ति अपनी सत्ता को पुनः स्थापित करने के लिए डर, असुरक्षा और दंड की भावना से प्रेरित होकर काम कर रही है। अमेरिका को यह भय सता रहा है कि वैश्विक बहुध्रुवीयता (Multipolarity) बढ़ रही है, और भारत जैसी शक्तियाँ अब अमेरिकी दिशा-निर्देशों को बिना प्रश्न स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। रूस से भारत की ऊर्जा साझेदारी को अमेरिका केवल आर्थिक नहीं, बल्कि वैचारिक चुनौती भी मानता है। भारत यदि तेल जैसे रणनीतिक संसाधन को स्वतंत्र रूप से रूस से खरीद सकता है तो भविष्य में वह अन्य रणनीतिक निर्णयों में भी अमेरिका के दबाव से मुक्त हो सकता है – यह बात अमेरिका के सामूहिक अचेतन में एक संकट की तरह उपस्थित है। इसलिए यह टैरिफ एक मनोवैज्ञानिक दबाव निर्माण की युक्ति है।

कूटनीति के स्तर पर यह घटना भारत-अमेरिका संबंधों की उस जटिलता को उजागर करती है जो एक ओर साझेदारी और दूसरी ओर संदेह से निर्मित है। अमेरिका ने हाल के वर्षों में QUAD, टेक्नोलॉजी साझेदारी, रक्षा सहयोग आदि क्षेत्रों में भारत के साथ घनिष्ठता बढ़ाई लेकिन वह भारत की आत्मनिर्भरता की नीति और रूस के साथ परंपरागत संबंधों को अब भी संदेह की दृष्टि से देखता है। यह टैरिफ भारत के ‘गैर-पक्षीय’ परंतु ‘राष्ट्रीय हित आधारित’ विदेश नीति के सिद्धांत को चुनौती देने का प्रयास है। अमेरिका चाहता है कि भारत रूस से दूरी बनाए और पश्चिमी ऊर्जा बाजारों की ओर झुके, जिससे न केवल रूस कमजोर हो, बल्कि अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों की ऊर्जा कंपनियों को नया ग्राहक मिले।

अब यह प्रश्न भी समीचीन है कि क्या यह टैरिफ भारत की स्वदेशी पर बल देने वाली नीतियों के विरोध में भी है? निश्चित ही भारत की ‘मेक इन इंडिया’, ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी योजनाएँ उस वैश्विक पूंजीवाद को चुनौती देती हैं जिसका नेतृत्व अमेरिका करता है। भारत अब विदेशी उत्पादों की निर्भरता को सीमित करना चाहता है, और यह आर्थिक संप्रभुता अमेरिका को असहज करती है। अमेरिका के विशाल बहुराष्ट्रीय निगमों को डर है कि यदि भारत अपनी घरेलू उत्पादन क्षमता बढ़ाता है और विदेशी कंपनियों पर निर्भरता घटाता है तो उनका बाजार सिकुड़ जाएगा। ऐसे में टैरिफ लगाकर भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में बनाए रखने और उसे ‘दुनिया के लिए उत्पादन केंद्र’ के बजाय ‘खुद के लिए उत्पादन केंद्र’ बनने से रोकने की एक कोशिश है।

इस पूरी स्थिति को व्यापक रूप में देखें तो अमेरिका का यह कदम उसकी वैश्विक नेतृत्व क्षमता की हताशा का संकेत है। वह एक ओर भारत को चीन के विरुद्ध रणनीतिक साझेदार बनाना चाहता है, दूसरी ओर जब भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपनाता है या घरेलू उत्पादन बढ़ाता है तो उसे आर्थिक दंड देने लगता है। यह परस्पर विरोधी व्यवहार अमेरिकी रणनीति की विफलता की ओर संकेत करता है। भारत अब न तो गुटनिरपेक्ष का रूढ़िवादी अनुयायी है, न ही पश्चिमी गुट का आज्ञाकारी साझेदार। वह अब अपने हितों के अनुसार वैश्विक शक्ति संतुलन में भूमिका निभा रहा है – यह भूमिका अमेरिका को अनिश्चित और भयभीत करती है।

इस प्रकार यह टैरिफ एक साथ कई क्षेत्रों – अर्थनीति, राजनीति, कूटनीति और मनोविज्ञान – में प्रभाव डालता है लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव भारत को और अधिक आत्मनिर्भर, रणनीतिक रूप से दृढ़ और वैश्विक स्तर पर एक स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में स्थापित कर सकते हैं। अमेरिका चाहे जितना भी दबाव डाले, भारत अब वह नहीं रहा जिसे दबाया जा सके। वह अब अपनी भाषा, अपने साधन, अपने हितों और अपनी नीति के अनुसार विश्व से संवाद करना चाहता है। यही संवाद अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती है – और यही भारत की सबसे बड़ी शक्ति।

भारत की स्वतंत्र विदेश नीति और स्वदेशी पर बल की यह नीति दरअसल उस नवविकसित वैश्विक व्यवस्था के विरुद्ध एक सौम्य किन्तु दृढ़ प्रतिरोध है, जिसकी कल्पना पश्चिमी राष्ट्रों, विशेषतः अमेरिका ने की थी। एक समय था जब भारत जैसे देश केवल सहायता, निवेश और तकनीक के लिए पश्चिम की ओर देखते थे लेकिन आज भारत ने अपनी आर्थिक, तकनीकी और सामरिक आत्मनिर्भरता के बल पर न केवल यह दूरी घटा दी है, बल्कि एक विकल्प के रूप में खड़ा होने की शुरुआत कर दी है। इसी कारण अमेरिका द्वारा लगाया गया यह टैरिफ भारत की आत्मनिर्भरता की राह में एक अवरोध नहीं, बल्कि एक कसौटी बन सकता है – कि क्या भारत अब भी झुकता है या अपनी राह पर अडिग रहता है।

इस टैरिफ के मनोवैज्ञानिक प्रभाव की एक और गहराई यह है कि अमेरिका भारत को एक “क्लाइंट स्टेट” के बजाय एक “सहयोगी” के रूप में नहीं देख पा रहा। वह भारत की वृद्धि को तब तक समर्थन देता है जब तक वह पश्चिमी नीतियों के अनुकूल हो, लेकिन जब भारत अपना स्वतंत्र पथ चुनता है – जैसे कि रूस से तेल खरीदना – तो अमेरिका तत्काल उसे दंडित करता है। यह मनोवैज्ञानिक तनाव दरअसल अमेरिका की उस ‘Exceptionalism’ की भावना का परिणाम है जिसमें वह खुद को नियम बनाने वाला और दूसरों को उस पर चलने वाला मानता है। लेकिन भारत का उदय इस विचार को चुनौती दे रहा है। भारत अब अपनी कूटनीति में संतुलन और बहुध्रुवीयता की स्पष्ट छाया लेकर चलता है – वह रूस के साथ ऊर्जा, अमेरिका के साथ तकनीक, फ्रांस के साथ रक्षा और खाड़ी देशों के साथ व्यापार को समान रूप से महत्व देता है। यह बहुस्तरीय कूटनीति अमेरिका के ‘या तो हमारे साथ, या हमारे विरुद्ध’ वाली सोच से मेल नहीं खाती।

एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि रूस से तेल खरीदने की भारत की नीति केवल आर्थिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। भारत की ऊर्जा जरूरतें बढ़ती हुई जनसंख्या और औद्योगीकरण के साथ बढ़ रही हैं। ऐसे में सस्ता कच्चा तेल भारत की अर्थव्यवस्था को संबल देता है, महँगाई को नियंत्रित करता है और विनिर्माण तथा परिवहन क्षेत्र को सुदृढ़ करता है। यदि भारत पश्चिमी दबाव में आकर महँगा तेल खरीदने लगे, तो उसकी विकास दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिससे अमेरिका के ही बहुराष्ट्रीय निवेशकों को नुकसान होगा। अतः अमेरिका का यह कदम रणनीतिक रूप से भी आत्मविरोधी है।

भारत के नीति निर्धारकों के सामने अब यह प्रश्न है कि क्या वे पश्चिमी दबाव के आगे झुककर रूस से ऊर्जा साझेदारी को सीमित करें, या दीर्घकालिक स्वायत्तता को प्राथमिकता दें। अब तक भारत का रुख स्पष्ट रूप से दूसरे विकल्प की ओर संकेत करता है। रूस से तेल आयात में वृद्धि, रूस के साथ रुपया-रूबल व्यापार, और वैश्विक मंचों पर रूस का प्रत्यक्ष विरोध न करने की नीति यही दर्शाती है कि भारत किसी भी एक गुट का पिछलग्गू बनने को तैयार नहीं।

इस पूरी परिस्थिति में एक और सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण आयाम यह है कि भारत के भीतर भी इस अमेरिकी टैरिफ का मनोवैज्ञानिक प्रभाव विभिन्न वर्गों पर पड़ेगा।आई उद्यमियों में चिंता का माहौल बनेगा, लेकिन साथ ही स्वदेशी उत्पादन के पक्षधर लोग इस संकट को अवसर में बदलने की कोशिश करेंगे। ‘लोकल फॉर ग्लोबल’ की अवधारणा को और सशक्त करने का यह उपयुक्त समय है। भारत को चाहिए कि वह अपने उत्पादन तंत्र, निर्यात नीति और कूटनीतिक संवाद को इस तरह पुनर्गठित करे कि अमेरिकी टैरिफ का सीमित असर ही रह जाए। साथ ही, यूरोपीय, एशियाई और अफ्रीकी बाजारों में नई संभावनाएँ तलाशने का भी यह अनुकूल समय है।

यदि इस पूरी स्थिति को भारत के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह टैरिफ एक चुनौती जरूर है, लेकिन उससे अधिक यह एक परख है – एक परख कि क्या भारत वास्तव में अपने निर्णयों में स्वतंत्र है? क्या वह केवल साझेदार है या रणनीतिक रूप से संप्रभु शक्ति भी? क्या वह अमेरिका की सामरिक प्राथमिकताओं के अनुसार अपने राष्ट्रीय हित को बदलने को तैयार है या नहीं? भारत ने अब तक इन प्रश्नों के उत्तर साहस और दूरदर्शिता के साथ दिए हैं। वह अपने निर्णयों में संतुलन और धैर्य बनाए रखते हुए किसी भी पक्ष से पूरी तरह न टकराता है, न ही पूरी तरह झुकता है।

कहा जा सकता है कि अमेरिका द्वारा भारत पर लगाया गया 50 प्रतिशत टैरिफ महज एक व्यापारिक कदम नहीं है बल्कि एक वैश्विक शक्ति संतुलन के पुनर्गठन का हिस्सा है। यह एक ऐतिहासिक संक्रमणकाल का संकेत है, जहाँ पश्चिम का वर्चस्व समाप्त हो रहा है और नवोदित शक्तियाँ – विशेषतः भारत – अपनी संप्रभुता और देशहित के आधार पर विश्व व्यवस्था में नई भूमिका का निर्माण कर रही हैं। यह संघर्ष केवल बाजार का नहीं, बल्कि विचारों, नीतियों, स्वतंत्रता और आत्मबल का संघर्ष है। भारत इस संघर्ष में यदि अडिग रह सके तो टैरिफ चाहे जितने प्रतिशत हो, वह विश्व मंच पर अपने सम्मान और स्वाभिमान के साथ खड़ा रह सकेगा।

ऐसे समय में, जब अमेरिका जैसे महाशक्ति द्वारा भारत पर 50% टैरिफ जैसे दबावात्मक उपाय लगाए जा रहे हों — भारत को न तो घबराने की जरूरत है, न ही झुकने की। उसे संयम, दूरदृष्टि और आत्मनिर्भर आत्मबल से एक बहुस्तरीय रणनीति अपनानी चाहिए। भारत की जवाबी नीति केवल प्रतिक्रियावादी न होकर, दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता, वैश्विक कूटनीतिक संतुलन और आर्थिक विवेक पर आधारित होनी चाहिए। भारत को निम्नलिखित उपायों की दिशा में गंभीरतापूर्वक कार्य करना चाहिए—

1. कूटनीतिक संवाद में स्पष्टता और गरिमा बनाए रखना:
भारत को अमेरिका से खुला संवाद जारी रखते हुए यह स्पष्ट करना चाहिए कि उसका रूस से तेल खरीदना किसी गुटबंदी का हिस्सा नहीं है, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा और किफायती विकास का निर्णय है। भारत को “रणनीतिक स्वायत्तता” की अपनी नीति का मजबूती से बचाव करना चाहिए — बिना टकराव के, लेकिन बिना झुकाव के भी।

2. नए बाजारों की खोज और व्यापार विविधीकरण:
यदि अमेरिका भारतीय निर्यात पर भारी टैरिफ लगाता है, तो भारत को चाहिए कि वह अपने व्यापारिक साझेदारों का दायरा बढ़ाए — अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, मध्य एशिया और आसियान देशों में। यूरोपीय संघ, जापान और खाड़ी देशों के साथ व्यापारिक संबंधों को और मजबूत किया जाए। इससे अमेरिका पर निर्भरता कम होगी।

3. घरेलू उद्योग को प्रतिस्पर्धी बनाना:
यह संकट आत्मनिर्भर भारत को तेज़ गति देने का अवसर है। भारत को टेक्सटाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, दवा, रसायन और कृषि उत्पादों जैसे प्रमुख निर्यात क्षेत्रों में घरेलू उत्पादन की गुणवत्ता और लागत-दक्षता पर ध्यान देना चाहिए ताकि अन्य देशों के लिए भारतीय उत्पाद पहली पसंद बनें।

4. तेल और ऊर्जा में दीर्घकालिक रणनीतिक अनुबंध:
भारत को रूस, ईरान, वेनेजुएला, और खाड़ी देशों के साथ ऊर्जा के दीर्घकालिक समझौते करने चाहिए ताकि तेल और गैस की आपूर्ति बाधित न हो। अमेरिका या किसी अन्य गुट के प्रतिबंधों से बचते हुए, विकल्पों की व्यापकता ही भारत की शक्ति है।

5. घरेलू बाजार को सशक्त बनाना:
अमेरिका यदि भारत के निर्यात को प्रभावित करता है, तो भारत को अपने ही 140 करोड़ की आबादी वाले विशाल आंतरिक बाजार पर और अधिक ध्यान देना चाहिए। ग्रामीण मांग, कृषि आधारित उद्योग, लघु-मध्यम उद्योगों को सशक्त करके एक ऐसी आर्थिक दीवार बनाई जा सकती है जो वैश्विक दबावों को झेल सके।

6. तकनीकी आत्मनिर्भरता और R&D पर बल:
भारत को सेमीकंडक्टर, रक्षा तकनीक, सॉफ्टवेयर, ग्रीन एनर्जी और स्वास्थ्य सेवाओं में आत्मनिर्भरता की दिशा में निवेश बढ़ाना चाहिए। अमेरिका और चीन के तकनीकी वर्चस्व को चुनौती देने का यही रास्ता है।

7. घरेलू राजनीतिक एकता और नीति निरंतरता:
विदेशी दबावों का मुकाबला करने के लिए देश के भीतर राजनीतिक सहमति और नीति निरंतरता आवश्यक है। यदि भारत में राजनीतिक नेतृत्व बार-बार बदलता रहा और विदेश नीति दिशाहीन होती रही, तो ऐसी स्थितियों का लाभ अमेरिका जैसे देश उठा सकते हैं।

8. WTO और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कानूनी प्रतिक्रिया:
भारत अमेरिका के टैरिफ को विश्व व्यापार संगठन (WTO) में चुनौती दे सकता है, जहाँ व्यापारिक दंडों को नियमबद्ध किया गया है। भारत को इस वैश्विक मंच पर शांत और नियमसंगत ढंग से अपनी बात रखनी चाहिए।

9. जनता और उद्यमियों में विश्वास बनाए रखना:
भारत सरकार को पारदर्शी संचार के माध्यम से देश की जनता और उद्योगों को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि यह एक अस्थायी बाधा है, और भारत दीर्घकालिक रूप से मजबूत और आत्मनिर्भर बन रहा है। संकट को अवसर में बदलने की यह मनोवैज्ञानिक रणनीति सबसे ज़रूरी है।

10. आर्थिक बदले की नीति से बचते हुए विवेकपूर्ण प्रतिक्रिया:
भारत को अमेरिका पर समान रूप से टैरिफ लगाने जैसे तात्कालिक बदले की नीति से बचना चाहिए क्योंकि यह द्विपक्षीय तनाव को बढ़ा सकती है। उसे अधिक विवेकशील, सटीक और दीर्घकालिक रणनीति अपनानी चाहिए जो उसके हितों की रक्षा करते हुए भविष्य के द्विपक्षीय संबंधों को भी नष्ट न करे।

भारत को अमेरिका की इस टैरिफ राजनीति को एक चेतावनी के बजाय एक दर्पण की तरह देखना चाहिए—जिसमें उसे अपनी कमजोरी, क्षमता, आत्मनिर्भरता और वैश्विक नेतृत्व की सम्भावनाएँ स्पष्ट दिखें। अमेरिका का यह कदम भारत को रोकने के लिए नहीं बल्कि उसे अपने पथ पर और अधिक दृढ़ बनाने का ऐतिहासिक अवसर बन सकता है — यदि भारत इसका सामना बुद्धिमत्ता, संकल्प और दीर्घदृष्टि से करे।


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