— रणधीर कुमार गौतम —
प्रणाम है:
उन पराक्रमी सूरों को
जो विजय इतिहास का
एक गौरवमयी
अध्याय बन गए।
अपनी वीरता से
देश का नाम
उज्ज्वल कर गए।
वन्दन है :
उन बलिदानी वीरों का
जो मर कर भी
अमर हो गए
विजय-श्री से विमुख ।
नींव का पत्थर बनकर
मात अर्चना में
न्यौछावर हो गए।
पूजन है :
उन अज्ञात कर्मवीरों को
जो बिना रुके बिना झुके
सतत चलते रहे।
संघर्ष की ज्योति को
प्रकाशित करने के लिए
स्वयं अंधकार में खो गए।
– गोवर्धन लाल पुरोहित….
हर समाज की अपनी यात्रा में कुछ मील के पत्थर होते हैं, जिन्हें देखकर आत्मविश्वास बढ़ता है और कुछ आदर्श भी जागृत होते हैं। भारत की राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लड़ाई के लगभग 90 साल के इतिहास में, 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सैनिक विद्रोह से शुरू होकर, मंगल पांडे के नेतृत्व में, जिसे बाद में अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर के नेतृत्व में लड़ा गया, उन्हें भारत से गिरफ्तार करके बर्मा में रखा गया जहाँ उनकी मृत्यु हुई । इस यात्रा में 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन भी एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बना ।
यह सफर भारत की विरासत, आने वाली पीढ़ियों, और भारतीयता की विचारधारा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है । 9 अगस्त को अगस्त क्रांति दिवस के रूप में याद किया जाता है । यह 90 साल की एक बहुत ही रोमांचक और स्मरणीय यात्रा है । 9 अगस्त की खास बात यह थी कि अंग्रेजों का यह भ्रम टूट गया कि भारतीय समाज मुट्ठी भर नेताओं से चलता है । उनका यह दावा था कि केवल ये नेता ही अंग्रेजों के प्रगतिशील शासन के खिलाफ असंतोष भड़काते हैं, और अगर ये नेता न हों, तो जनता अंग्रेजों के साथ है।
भारत के समाजवाद के पितामह आचार्य नरेन्द्र देव के शब्दों में- ‘ अगस्त, 1942 का आन्दोलन भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का सबसे बड़ा जन संग्राम था।”
अनेकों इतिहासकार मानते हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर है कि विदेशी शासन के विरुद्ध इतना व्यापक संघर्ष छेड़ा गया।
प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक आर. दिवाकर ने अपने ग्रन्थ ‘सत्याग्रह : इसकी कला एवं इतिहास’ में बताया है—
”लगभग दो हजार निहत्थे लोग मारे गए। छह हजार से ऊपर जख्मी हुए। लाखों लाठियों से घायल हुए। डेढ़ लाख लोग जेल में डाले गए।”
अगस्त क्रांति सही मायने में भारत की आम जनता के द्वारा व्यापक पैमाने पर किया गया संघर्ष का एक ऐतिहासिक उदाहरण है , हर वर्ग के लोग हर जाति पंथ के लोग एक साथ आकर भारतीय स्वतंत्रता की संघर्ष में अपनी आहुति दिए.
7 और 8 अगस्त को जब मुंबई के “गोवालिया टैंक“ मैदान में कांग्रेस का कार्य समिति का बैठक हुआ उसके बाद हजारों की संख्या में लोगों को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने करो या मरो का नारा दिया था – “यहाँ एक छोटा-सा मंत्र है जो आपको देता हूँ। इसे आप अपने हृदय पटल पर अंकित कर लें। इसे आप अपने प्रत्येक श्वास-प्रश्वास द्वारा प्रकट करिए। वह मंत्र यह हैं “हम करेंगे या मरेंगे” या तो हम भारत को स्वतंत्र करेंगे या इसके प्रयत्न में अपने जीवन की बलि दे देंगे। हम गुलामी को देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेंगे। हर एक स्त्री-पुरुष को अपने जीवन की इस भावना के साथ जीना चाहिये कि वह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जीता है और समय आने बरं इस महान् उद्देश्य के लिए मरने को तैयार है। अपनी अन्तारात्मा को साक्षी रख कर, ईश्वर के सामने यह प्रतिज्ञा ले लें कि आप तब तक चैन न लेंगे जब तक कि स्वतंत्रता की प्राप्ति न हो जाए और इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहेंगे। जो मरना जानते हैं उन्होंने जीने की कला सीखी है। आज से तय करें कि आजादी लेनी है, नहीं लेनी है तो मरेंगे। आजादी कायरों के लिए नहीं है।”
9 अगस्त एक ऐसी तिथि बन गई जब ज्यादातर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों की पकड़ से बाहर नहीं थे । पूरी राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति, गांधीजी सहित, तमाम नेतृत्व को 8 अगस्त 1942 की रात को गिरफ्तार कर लिया गया था । इसके बावजूद नेतृत्व विहीन राष्ट्रीय आंदोलन जबरदस्त तैयारी के साथ आगे बढ़ता रहा और अंग्रेजी साम्राज्य से टकराया । इस दौरान 19 वर्ष की अरुणा आसफ अली ने भीड़ से निकलकर ग्वालिया टैंक मैदान में झंडा फहरा दिया । जिसे हम लोग अगस्त क्रांति मैदान के नाम से भी जानते हैं, मुंबई में उसी स्थान पर अरुणा आसफ अली ने सम्मेलन के प्रतिनिधियों को संबोधित किया, तिरंगा झंडा फहराया और पूरी हिम्मत के साथ अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गईं । उधर, भारत के अलग-अलग इलाकों में जो आधे-अधूरे समाचार मिले, उनके आधार पर जगह-जगह, खासकर कस्बों में, किसानों और विद्यार्थियों ने मिलकर प्रदर्शन किया । इस घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ लिया कि अगले तीन वर्षों तक, 9 अगस्त 1942 से लेकर 1946 तक, संघर्ष की गूंज बनी रही ।
इस दौरान, उत्तर प्रदेश के बलिया में जीतू पांडे के नेतृत्व में, महाराष्ट्र के सतारा में अच्युत पटवर्धन के नेतृत्व में, और बंगाल के कुछ हिस्सों में आजाद सरकारें कायम हो गईं, जो अंग्रेजों के काबू में नहीं आईं । अच्युत पटवर्धन, जो कांग्रेस समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में से एक थे और कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी थे, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के साथ मिलकर काम करते थे । उनकी वीरता के कारण सतारा आजाद कर लिया गया, और यह भारत की बड़ी घटनाओं में शामिल हो गया।
कई महीनों तक एक कांग्रेस रेडियो का संचालन किया गया, जिसके प्रमुख कर्ताधर्ता डॉ. राम मनोहर लोहिया और उषा मेहता थे । अखबारों और अन्य स्रोतों से आंदोलन की रिपोर्टें नियमित रूप से एक छात्रा, उषा मेहता, पढ़ती थीं, और कभी-कभी डॉ. राम मनोहर लोहिया भी पढ़ते थे । तमाम अंग्रेजों की कोशिशों के बावजूद यह अंडरग्राउंड रेडियो लगातार चलता रहा । उधर बिहार के हजारीबाग की एक महत्वपूर्ण जेल में सैकड़ों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बंदी थे । उनमें से 6 कैदी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, 20 फीट ऊंची दीवार फांदकर जेल से बाहर निकले।
मस्तराम कपूर जी लिखते हैं “9 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो अभियान’ के खिलाफ़ अंग्रेजी सल्तनत ने तमाम देशभक्तों पर भीषण प्रहार किया, पर तीन महीने के बाद 9 नवम्बर 42 की दीपावली की हैंसी-खुशी की छाया में, जान हथेली पर लेकर हजारीबाग़ सेण्ट्रल जेल की अलंघ्य काली दीवारों को लाँघ गये वीर बलिदानी देशभक्त जयप्रकाश, रामनन्दन मिश्र, योगेन्द्र शुक्ल, सूरजनारायण सिंह और गुलाबचन्द गुप्त। पैसे, भोजन की पोटली और वस्त्र जेल में ही गिर पड़े। अमावस की उस घनी काली अँधेरी रात में उन सघन जंगलों और हिंसक पशुओं, ऊँची-नीची पहाड़ी टीलों के बीच रास्ता बनाते चल पड़े। बाहर चाहे जितना अन्धकार रहा हो पर आजादी के इन दीवानों के दिलों में कितनी रोशनी और बेचैनी थी! उसी सहारे चलते रहे, चलते ही रहे वे।
फिर भी, आज 1942 के करीब 8 दशक के बाद, हम देख सकते हैं कि यह तिथि राष्ट्रीय आत्मविश्वास, बदलाव की क्षमता, और जनता की एकता का एक ज्वलंत उदाहरण है।
उन्होंने नेपाल के हनुमान नगर इलाके में “आज़ाद दस्ता”
नाम का एक क्रांतिकारी संगठन चलाया, जो एक तरह से गोरिल्ला प्रशिक्षण केंद्र था, जिसमें विजय पटवर्धन जैसी वीरांगनाओं ने भी योगदान दिया । ऐसा कहा जाता है कि अगस्त से अक्टूबर के बीच में हजारों प्रदर्शन हुए, सैकड़ों जगहों पर गोलियां चलीं, और हजारों लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी दी। एक लाख से ज्यादा लोग
गिरफ्तार किए गए, भारत के कई हिस्सों में रेल यात्रा और टेलीफोन संचार व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई, और अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी गई ।
नौ 9 अगस्त को जैसे ही राष्ट्रीय नेताओं को बंदी बनाए जाने के समाचार फैले, पूरे देश में जबरदस्त क्रांति की आग भड़क उठी। यह आग बंबई से शुरू होकर मद्रास, मध्य प्रांत, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, आंध्र, असम और केरल तक पहुँच गई।
शहरों के साथ-साथ गाँव-गाँव में भी क्रांति की ज्वाला फूट पड़ी।
ब्रिटिश सरकार को अपदस्थ करने के उद्देश्य से लोग तिरंगा झंडा लेकर लाखों की संख्या में घरों से निकल पड़े। वे ब्रिटिश सरकार के कार्यालयों पर तिरंगा फहराने की कोशिश करने लगे, जिसमें हजारों लोग शहीद हुए।
इस पूरे आंदोलन की सबसे उत्साहजनक बात यह थी कि युवाओं और महिलाओं की भी इसमें बड़ी भूमिका रही।
मजदूर और किसान भी विदेशी शासन को समाप्त करने के लिए घरों से निकल पड़े।
रेल, तार, संचार और टेलीफोन की व्यवस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट करना आम बात हो गई थी।
“इंकलाब ज़िंदाबाद” और “भारत माता की जय” के नारों से समस्त वायुमंडल गूंज उठा।
समाजशास्त्री की दृष्टि से, 9 अगस्त का महत्व यह था कि नेतृत्वविहीन राष्ट्रीय आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने भाषा, जाति, और धर्म की तीन बड़ी दीवारों को तोड़कर पूरे देश में प्रतिरोध किया, संघर्ष और त्याग की एकता दिखाई, और यह साबित किया कि आज़ादी का सपना गाँव-गाँव और कस्बों–कस्बों तक फैल गया है । “अंग्रेजों, भारत छोड़ो” और “करेंगे या मरेंगे” का नारा भारतीय जनता का मूल मंत्र बन गया । इसलिए राम मनोहर लोहिया ने इसे “जन क्रांति” कहा, “जन आंदोलन” के बजाय, और कहा कि इसका महत्व किसी भी मायने में फ्रांस की क्रांति और रूस की क्रांति से कम नहीं था । इतनी बड़ी मात्रा में लोगों ने आंदोलन में भाग लिया, गिरफ्तारियाँ दीं, और न जाने कितनी कुर्बानियां दीं । किसी भी क्रांति की सफलता का यही पैमाना होता है ।
‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा इस तारीख का महत्व इसलिए है कि यह 1921 में शुरू हुए भारतीय असहयोग आंदोलन से जुड़ा है, जिसे चौरी चौरा की घटनाओं के कारण वापस लेना पड़ा था । इसके बाद 1930 का नमक सत्याग्रह, 1932 का लगान सत्याग्रह, और 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन — ये पांच लहरें 1921 से लेकर 1942 तक आईं, और हर लहर पिछले से ज्यादा मजबूत और व्यापक थी । भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में अपने चरम पर था ।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक तीसरी बात यह भी थी कि इसने साबित किया कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक गंभीर संगठन का महत्वपूर्ण अभियान था, जिसमें नेतृत्व में तानाशाही नहीं थी। विचार की स्वतंत्रता थी, बहस और सहमति का लंबा सिलसिला था । पूरे 1941 का समय कांग्रेस ने इस आंदोलन को चलाने के लिए लगाया । आप जानते हैं कि 1939 से द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था, और जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो अंग्रेजी शासन ने इसे फासीवाद और तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की लड़ाई बताया । शुरू में सोवियत संघ, यानी स्टालिन के साथ, एक तरह का समझौता था; सोवियत संघ तटस्थ था । लेकिन जब जर्मनी ने सोवियत संघ पर भी हमला कर दिया, तो सोवियत संघ भी अंग्रेजों के साथ मिल गया । इस प्रकार, यूरोप में यह लड़ाई हिटलर के फासीवाद और नाजी शासन के बीच थी, जिसमें इटली भी शामिल था । जापान और इंग्लैंड, जो लोकतंत्र का समर्थन करता था, के साथ अमेरिका और फ्रांस भी इस संघर्ष में शामिल थे ।
इस स्थिति को लेकर दुविधा थी कि इस लड़ाई का क्या किया जाए। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भी एक पक्ष था जो इसे यूरोप के दृष्टिकोण से देख रहा था और इसका विरोध कर रहा था कि अभी आंदोलन किया जाए, क्योंकि सहयोग का समय था । लेकिन एक बड़ा हिस्सा, जिसका समर्थन गांधी जी ने किया था, का मानना था कि हम दुनिया की लड़ाई में क्या योगदान कर सकते हैं यदि यह लोकतंत्र बढ़ाने की लड़ाई है । उनका तर्क था कि पहले भारत को आज़ादी देनी होगी, क्योंकि भारत में लोकतंत्र नहीं है । जब भारत में लोकतंत्र हो जाएगा, तब हम विश्व के इस संघर्ष में लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ खड़े होंगे । लेकिन एक तरफ घर में लोकतंत्र और दूसरी तरफ दुनिया में साम्राज्यवाद — ऐसे दोहरे चेहरे वाले राष्ट्र के साथ क्या किया जा सकता है ? जर्मनी, इटली, और जापान में क्या फर्क था, यह भी महत्वपूर्ण था । जापानी शासन की मदद से सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज बना ली थी, जिसने सिंगापुर और बर्मा की तरफ मोर्चा खोला और मणिपुर तक भी पहुँच चुकी थी ।
9 अगस्त की घटना के बाद के तीन साल का आंदोलन हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के लोकतांत्रिक चरित्र का प्रतीक और प्रतिबिंब था, जिसमें गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू के बीच मतभेद था, राजा जी और राजेंद्र बाबू के बीच मतभेद था । सबसे स्पष्ट दृष्टिकोण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और इसके नेताओं का था, जैसे आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, और युसूफ मेहरौली । वास्तव में, ब्रिटिश ‘क्विट इंडिया’ का नारा युसूफ मेहरौली द्वारा दिया गया था, जो उस समय मुंबई के मेयर थे और गांधीजी उनके विचारों को बहुत महत्व देते थे। इन तीन बातों से जुड़ी घटनाएँ इस आंदोलन के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।
पहले, नीचे से ऊपर उठने वाले आंदोलन के लक्षणों को लेकर एकता, दूसरे, गांव और कस्बों में कांग्रेस की अपील, और तीसरे, कांग्रेस नेताओं के बीच मतभेद की असलियत और उसे सुलझाने का तरीका । आप देखिए कि मतभेद के बावजूद, जब कांग्रेस ने 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास कर लिया, तो जेल में सबसे लंबी सजा काटने वाले केवल महात्मा गांधी ही नहीं थे, बल्कि जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद और अन्य तमाम राष्ट्रीय नेता भी थे । यह सहमति से पहले का संवाद था; अलग-अलग दृष्टियाँ थीं, लेकिन जब बहुमत ने यह फैसला ले लिया, तो सब एकजुट होकर आखिरी मोड़ तक संघर्ष करते रहे।
मुंबई में तो क्रांति की ऐसी ज्वाला भड़की कि उसने देखते ही देखते पूरे देश को अपनी लपटों में ले लिया।
सभी प्रमुख राष्ट्रीय नेता जब जेल में बंद थे, तब समाजवादियों ने नेतृत्व की भूमिका निभाई और उन्होंने पूरे भारतवर्ष में जन आंदोलन को संगठित करने का प्रयास किया।
समाजवादी आंदोलन के नायक केवल किसी विचारधारा के प्रचारक नहीं थे, बल्कि माँ भारती को आज़ाद कराने के लिए समर्पित योद्धा थे।
उत्तर प्रदेश के बलिया में तो जन आंदोलन का ऐसा दृश्य देखने को मिला कि वहाँ की जनता ने विदेशी शासन को समाप्त कर अपना स्वयं का लोकतंत्र ही स्थापित कर लिया।
श्री खेमचन्द ‘सुमन’ ने अपने “कांग्रेस के इतिहास” नामक ग्रंथ में लिखा है — “अगस्त आन्दोलन में बलिया का प्रमुख स्थान है। नौ अगस्त को यहाँ के सभी कार्यकर्त्ता बन्दी बना लिए गए। सरकारी दमन के बाद भी ,10 से 12 अगस्त बलिया में पूर्ण हड़ताल रही। 12 अगस्त को सारे जिले में तार काटने व यातायात के सभी साधन नष्ट करने का काम शुरू हुआ। 14 अगस्त तक तो सारे बलिया जिले का सम्बन्ध पूरे प्रान्त से तोड़ डाला गया। 15 अगस्त को जिला कांग्रेस के दफ्तर पर कांग्रेस का फिर से अधिकार हो गया। यहाँ के मजिस्ट्रेट ने जनता के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
मनमथनाथ गुप्त लिखते हैं–.” बलिया प्रजातंत्र बना और कांग्रेस कमेटी का दफ्तर उसका केन्द्र बना। पण्डित चीतू पाण्डे पहले जिलाधीश कहलाये। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इस समय तक जिले के दस थानों में से सात पर क्रान्तिकारियों का अधिकार हो गया था। शहर में ढिंढोरा पीट कर यह बता दिया गया कि अब बलिया में कांग्रेसी राज्य है।”
देवनाथ उपाध्याय ने 64 ऐसे व्यक्तियों को सूची तैयार की है जो बलिया क्रांति में शहीद हुए।
देखते ही देखते यह आंदोलन इलाहाबाद, जौनपुर, बनारस, गाज़ीपुर, लखनऊ और अन्य शहरों में भी फैल गया।
वहीं, आज के उत्तराखंड राज्य में स्थित गढ़वाल, अल्मोड़ा जैसे क्षेत्रों में भी विद्यार्थियों और किसानों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम की लहर तेज कर दी गई।
लखीमपुर के शहीद राजनारायण मिश्र, भगत सिंह का बदला लेने के उद्देश्य से शहीद हो गए।
उन्होंने अपने बलिदान से पहले कहा था —
“हम देश के लिए मर रहे हैं, फिर पैदा होंगे और फिर मरेंगे।”
कई ग्रामीण क्षेत्रों में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की चापलूसी करने वाले गद्दार ज़मींदारों को भी सबक सिखाया।
बिहार में अगस्त क्रांति की प्रभाव का जिक्र करते हुए
….डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने अपने अंग्रेजी ग्रन्थ ‘महात्मा गाँधी व बिहार’ में इस क्रान्ति का वर्णन इस प्रकार किया है-” यातायात के साधनों को नष्ट करना इस आन्दोलन का खास लक्षण था। कई महिनों तक बिहार में गाड़ियों का आना जाना बन्द रहा। तार धर व ड़ाकखाने तो प्राय: समाप्त ही हो गए। ब्रिटिश राज केवल जिला मुख्यालयों व नगरों१तक ही सीमित रहा। देहातों में जनता का राज चलने लगा, अनेक पुलिस थानों पफ जनता का अधिकार था।”!
पटना नालंदा दरभंगा , रांची से लेकर पूरा उत्तर और दक्षिण बिहार में आंदोलन को महसूस किया जा सकता है..
मैं यह भी कहना चाहूंगा कि गांधी के राजनीतिक विमर्श में 9 अगस्त भारत छोड़ो आंदोलन पर ज्यादा काम नहीं हुआ है । इसका कारण यह है कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे अंग्रेजों के खिलाफ एक साम्राज्यवादी संघर्ष के रूप में देखा । रूस की परिस्थितियों में जो परिवर्तन आया, हिटलर के साथ और फिर हिटलर के खिलाफ, उसे ध्यान में रखते हुए, भारतीय कम्युनिस्टों और मार्क्सवादियों ने इसे एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन के रूप में देखा । हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने तो यहां तक लिखा कि इस आंदोलन को महत्व नहीं देना चाहिए । भारत को अंग्रेजों से सहयोग करने का सुझाव था कि इससे द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय अंग्रेजों की सेवा में प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे। युद्ध के बाद, जब वे लौटेंगे, तो वे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सशस्त्र नायक बनेंगे । लेकिन यह सब केवल हवा-हवाई बातें थीं । असल मामला ‘सहयोग और असहयोग’ का था । अंग्रेजों का वर्चस्व भारतीय राजघरानों द्वारा भी समर्थित था । याद होगा कि एक तिहाई भारत अंग्रेजों के नियंत्रण में नहीं था, जिसमें बड़ी-बड़ी रियासतें शामिल थीं, जैसे हैदराबाद (जो आज आंध्र और तेलंगाना का हिस्सा है), कर्नाटक का बड़ा हिस्सा, कश्मीर, ग्वालियर, मैसूर, कोचीन, पूरा राजपूताना, और मध्य भारत । ये राजा-महाराजा और नवाब यह सपना देख रहे थे कि अगर अंग्रेज चले भी जाएं, तो वे उनकी छोटी-छोटी रियासतों को स्वतंत्र करके जाएंगे ।
एक तरफ राजा-महाराजाओं की ताकत, दूसरी तरफ कम्युनिस्टों का आंदोलन को सहयोग, तीसरी तरफ सांप्रदायिक शक्तियों का ब्रिटिश पक्ष में योगदान, और चौथी तरफ ब्रिटिश राज की अपनी सत्ता — इन सभी से टकरा रहा था भारत का लोक संगठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो अहिंसा और शांति के प्रणेता महात्मा गांधी के नेतृत्व में इस सब का प्रतिरोध कर रही थी ।
महात्मा गांधी को 8 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया । उनके साथ उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी भी गिरफ्तार हुईं और दोनों को आगा खान पैलेस में रखा गया । गांधीजी के निजी सचिव महादेवभाई देसाई भी गिरफ्तार किए गए । परिस्थितियाँ इतनी गंभीर हो गईं कि नारायण देसाई के पिता महादेव देसाई, जो गांधीजी के साथ 1918-19 से लगातार सहयोग कर रहे थे और उनके सचिव थे, का हृदयाघात के कारण निधन हो गया । जेल में कुछ दिनों बाद माता कस्तूरबा को भी हृदय रोग के कारण दौरा पड़ा और उनकी गंभीर अस्वस्थता के कारण निधन हो गया ।
इस प्रकार, यह निजी कुर्बानी का उच्चतम बिंदु था — अपनी पत्नी के वियोग को सहना और अपने पुत्रवत सचिव के निधन को देखना ।
दूसरी ओर, अंग्रेजों ने यह प्रचार किया कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने धोखाधड़ी की है । कांग्रेस अहिंसा की बात करती है, लेकिन कांग्रेस का निर्णय था कि वे रेल की पटरियाँ उखाड़ेंगे, टेलीफोन के खंभे तोड़ेंगे, आवागमन में बाधा डालेंगे, सरकारी कर्मचारियों को काम करने नहीं देंगे, और सरकारी इमारतों पर तिरंगा झंडा फहराएंगे । अंग्रेजों ने इस प्रकार के मनगढ़ंत प्रचार को फैलाया, लेकिन यह उनके खिलाफ ही पड़ गया। कांग्रेस का प्रस्ताव प्रचारित नहीं हो सका, लेकिन अंग्रेजों का झूठा प्रचार जनता के लिए मार्गदर्शक बन गया ।
इस तरह, अगस्त के दूसरे हफ्ते में यानी 8 अगस्त को लोगों की गिरफ्तारियां शुरू हुईं । 9 अगस्त को आंदोलन को शुरू करने का ऐलान किया गया । 13, 14, और 15 अगस्त आते-आते कस्बों में तिरंगा फहराने, यूनियन जैक उतारने, टेलीफोन के खंभे उखाड़ने, रेल की पटरियाँ तोड़ने, और स्टेशनों को जलाने का सिलसिला शुरू हो गया । इसमें बनारस के विद्यार्थियों से लेकर पटना के विद्यार्थियों तक, मुंबई के मजदूर संगठनों से लेकर बंगाल के क्रांतिकारियों तक सबका योगदान था । आज भी पटना में सचिवालय के सामने इन क्रांतिकारियों की मूर्ति है, जिसमें 9 शहीदों की मूर्ति है जो पटना सचिवालय पर ब्रिटिश झंडा उतारने और तिरंगा फहराने के सिलसिले में एक के बाद एक शहीद हुए और झंडा लहरा कर दम लिया ।
कुछ विवरण आज भी मौजूद हैं, जैसे जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, और राम नंदन मिश्र की यातनाएँ और उनकी चिट्टियाँ, जो लोगों के सामने हैं । डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1942 का विश्लेषण किया, लेकिन 1946 और 47 में भारत को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंक दिया गया, जिससे भारत के विभाजन की कीमत पर अंग्रेज भारत छोड़कर गए। 1942 का उत्सव और सफलता का सत्य दंगों के धुएं में धुंधला गया ।
गांधी जीवन की कथा में यह सबसे बड़ा प्रबल जन आंदोलन का उदाहरण है । गांधी ने इसके लिए देश को तैयार किया, खुद तैयार हुए, और इसका मुकाबला आखिरी तक किया । यह गांधी का सानिध्य प्राप्त कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के समर्पित नेताओ का आंदोलन था । जब अंग्रेजों से समझौते के लिए वायसराय का प्रस्ताव आया, तो गांधीजी ने कहा कि जब तक जयप्रकाश नारायण और डॉ. राम मनोहर लोहिया को जेल से नहीं छोड़ा जाएगा, हम आपसे वार्ता नहीं करेंगे । उन्होंने कहा कि अगर आपको भारत की आजादी के बारे में संवाद करना है, तो पहले इनको रिहा करें । आदर्शवादी नेताओं के जेल से छूटने के बाद ही हम वार्ता करेंगे । हजारों लोगों की गिरफ्तारी के बाद, सबसे आखिर में रिहा होने वाले दो प्रमुख जननायक जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया थे । जब वे आगरा जेल से छूटे, तो पटना में जयप्रकाश नारायण जी के सार्वजनिक अभिनंदन की सभा हुई, जिसे कहा जाता है कि वैसी सभा पहले कभी नहीं हुई थी । इसी तरह से राम मनोहर लोहिया का अभिनंदन आगरा और काशी में हुआ, और वे कोलकाता भी गए । बाकी लोग भी अपने-अपने स्थानों पर सम्मानित किए गए ।
आज भी भारतवासी अगस्त क्रांति को बड़े गौरव के साथ याद करते हैं और स्वतंत्रता संग्राम के इन सपूतों की आहुति से प्रेरणा लेकर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं, ताकि देश में न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को सशक्त किया जा सके।
आज भी पिछले कई सालों की तरह एक यात्रा आयोजित की गई, जिसमें 9 अगस्त के शहीदों को सलाम किया गया और 9 अगस्त के संकल्प को याद किया गया । दिल्ली में हर साल राजघाट से लेकर आचार्य नरेंद्र देव की प्रतिमा तक समाजवादी विचारधारा के लोगों द्वारा यात्रा की जाती है । प्रोफेसर राजकुमार जैन के आह्वान पर आज भी दर्जनों समाजवादियों ने सुबह भारत छोड़ो आंदोलन की याद में एक यात्रा
निकाली, यह यात्रा हर साल 9 अगस्त को निकाली जाती है । लखनऊ में महात्मा गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की गई । दिल्ली से लेकर कोलकाता तक हर जिले में कुछ न कुछ आयोजन हुआ ।
इसका सांघिक प्रभाव यह था कि एक पूरी पीढ़ी ने अपनी हिम्मत दिखाई — वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेतृत्व की पीढ़ी थी। यही लोग बाद में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय समाजवादी आंदोलन के प्रमुख ध्वजवाहक बने ।
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