यह कोई विरोधात्मक (adversarial) मामला नहीं है, मैं केवल तथ्यों पर बोल रहा हूँ। इस बात पर दो राय नहीं हो सकती कि मतदाता सूची में सुधार की ज़रूरत है और अब तक के उपाय पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं। विवाद चुनाव आयोग के अधिकारों पर नहीं है, बल्कि उस प्रक्रिया के स्वरूप पर है जिसे अपनाया गया है। SIR ने एक सामान्य और निष्पक्ष प्रक्रिया को “हथियार”(नुकसान पहुँचाने वाला) बना दिया है।
ये तीन हथियार हैं —
– सिस्टम के जरिए कुछ लोगों को बाहर करना (systemic exclusion)
– संरचना की वजह से बहिष्कार होना (structural exclusion)
– कुछ विशेष लोगों को खास तौर पर बाहर करने की संभावना (possibility of targeted exclusion)
मतदाता सूची के लिए तीन मानक होते हैं — पूर्णता (completeness), समानता (equity) और सटीकता (accuracy)।
लेकिन SIR के कारण देश के इतिहास में पहली बार मतदाता सूची में सबसे बड़ी कटौती हुई है — कुल 47 लाख नाम घटे हैं।
यह गलती की वजह से नहीं है; सवाल यह है कि बिहार की वयस्क आबादी कितनी है, और उसमें कितने लोगों का नाम मतदाता सूची में होना चाहिए। सितंबर तक बिहार की वयस्क आबादी 8 करोड़ 22 लाख थी। मतदाता सूची भी उतनी ही होनी चाहिए थी, लेकिन उस दिशा में बढ़ने के बजाय, SIR की प्रक्रिया ने मतदाता सूची को घटाकर 7 करोड़ से 47 लाख कम कर दिया।
बिहार में पहले एक समस्या थी — वयस्क आबादी से ज़्यादा मतदाता थे। पहले बिहार में 38 लाख अधिक मतदाता थे। यह समस्या 2023 में ठीक कर ली गई थी। रोगी को ब्लड प्रेशर की दिक्कत थी, इलाज से ठीक हुआ — और अगले ही दिन उसे झटका (shock treatment) दे दिया गया, अब उसका BP बहुत कम है,बिल्कुल यही बिहार के साथ हुआ है।
जब SIR शुरू हुआ, तब मतदाता सूची में 27 लाख की कमी थी और अब एक झटके में यह 81 लाख तक पहुँच गई। चुनाव आयोग, देश के इतिहास का एक भी ऐसा चुनाव दिखा दे, जहाँ वयस्क आबादी और मतदाताओं के बीच 81 लाख का अंतर रहा हो, जो यह 47 लाख की कटौती दिख रही है, वह दरअसल SIR के वास्तविक असर का जानबूझकर घटाया गया रूप है। और इसका कारण आप (सुप्रीम कोर्ट) है।
जब आपने प्रक्रिया पर रोक लगाने या सवाल उठाने शुरू किए, तभी चुनाव आयोग हरकत में आया। हालाँकि आयोग की कुछ कार्रवाइयाँ कानूनी तौर पर गलत थीं, लेकिन वे लोगों के हित में थीं। जब यह साफ़ हुआ कि बड़ी संख्या में फार्म वापस नहीं आ रहे हैं तो चुनाव आयोग ने BLOs को निर्देश दिया कि वे खुद फार्म भरें।
करीब 20% फार्म BLOs ने मतदाताओं की जानकारी के बिना भरे। अगर ऐसा न हुआ होता तो मतदाता सूची में कटौती का आंकड़ा 2 करोड़ तक पहुँच जाता। कह सकते हैं, आयोग ने स्थिति को कुछ हद तक नियंत्रित किया — लेकिन इस प्रक्रिया में फर्जीवाड़ा हुआ। दूसरी वजह यह है कि EC ने 2003 में शामिल लोगों के लिए अपने नियम की व्याख्या बहुत क्रिएटिव तरीके से की।
मूल आदेश में कहा गया था कि बच्चे को अपने और पिता के कागजात जमा करने होंगे, लेकिन बाद में EC ने कहा कि पिता के कागजात जमा करने की जरूरत नहीं है। मुझे समझ नहीं आया कि ऐसा कैसे हुआ। EC ने अधिकारियों को यह भी कहा कि अगर माता-पिता नहीं मिलते तो नाना, चाचा, ताऊ जो भी मिल जाए देख लो।
क्या चुनाव आयोग देश के सामने यह रिकॉर्ड रखेगा कि कितने लोगों ने वे 11 दस्तावेज़ जमा किए जिनकी मांग की गई थी?
खुद चुनाव आयोग ने कहा था कि लिंग अनुपात में गिरावट को गंभीरता से देखा जाना चाहिए।
अब देखिए—यह अंतर धीरे-धीरे सुधर रहा था, जब तक कि SIR लागू नहीं हुआ था। पहले यह अंतर 20 लाख का था, जो घटकर 7 लाख रह गया था, लेकिन SIR ने उसी 7 लाख के अंतर को बढ़ाकर फिर से 16 लाख कर दिया। यानि पिछले 10 सालों की सारी प्रगति SIR ने मिटा दी। मुझे यकीन है कि चुनाव आयोग को इस बात पर चिंता होगी। यह सिर्फ बिहार का मामला नहीं है, जहाँ भी SIR लागू होगा, वहाँ महिलाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगी।
अब बात करते हैं सटीकता (accuracy) की — मतदाता सूची में कई नाम बेतुके (gibberish) हैं। उदाहरण के तौर पर, अंतिम सूची में कोई “निर्वाचक” नाम का व्यक्ति नहीं है, लेकिन वहाँ एक खाली नाम वाला व्यक्ति वोट देने जा रहा है! कहीं कन्नड़ और तमिल में नाम लिखे हैं — वो भी बिहार की
मतदाता सूची में, अगर यह बेतुका नहीं है, तो फिर बेतुका क्या है?
अगर मैं गलत हूँ तो चुनाव आयोग मुझे सुधार दे।
* 4,21,000 मामलों में घर का नंबर गलत है,
* 5,24,000 नाम अंतिम सूची में डुप्लीकेट हैं,
* यहाँ तक कि ड्राफ्ट लिस्ट से 3,000 ज़्यादा नाम भी जोड़ दिए गए हैं।
ज़रूरी नहीं कि ये सब फर्जी वोटर हों, लेकिन चुनाव आयोग के प्रोटोकॉल के मुताबिक भौतिक सत्यापन (physical verification) होना चाहिए। क्या चुनाव आयोग के पास डि-डुप्लिकेशन सॉफ्टवेयर है भी या नहीं?
हमारे पास तो फोटो वाली मतदाता सूची की पहुँच ही नहीं है, लेकिन ज़रा एक निर्वाचन क्षेत्र का उदाहरण देखिए — AI के इस युग में वही नाम, वही फोटो — कंप्यूटर खुद पहचान सकता है, फिर मैदान में जाकर सत्यापन किया जा सकता था।
चुनाव आयोग के नियम कहते हैं कि अगर किसी घर में 10 या उससे ज़्यादा वोटर हैं, तो उसे संदिग्ध मानकर जांच करनी चाहिए। ऐसे 21 लाख घर हैं, जिनमें लगभग आधा बिहार बसता है — क्या यह संभव है? इसे क्यों नहीं जांचा गया? मुझे समझ नहीं आता — हँसू या रोऊँ। भारत IT हब कहलाता है। अगर किसी घर में 100 से ज़्यादा नाम हैं तो वो ज़रूर संदिग्ध है। ऐसे 2,200 घर हैं, जिनमें 4.5 लाख लोग दर्ज हैं।
अब ज़रा नाम जोड़ने (additions) की बात करें —
जो 21 लाख नए नाम जोड़े गए, उनमें से 18–19 वर्ष के युवाओं की हिस्सेदारी 20% से भी कम है, जबकि 40% से ज़्यादा लोग 25 वर्ष से ऊपर के हैं। क्या इनकी सही जांच हुई?
6,000 से ज़्यादा लोग 80 साल से ऊपर हैं, जिन्होंने खुद को वोटर लिस्ट में जोड़ने के लिए आवेदन किया है। ये सब आंकड़े फाइनल रोल से हैं।
करीब 4 लाख आपत्तियाँ (objections) दाख़िल हुईं, जिनमें से कुछ रिकॉर्ड अपलोड किए गए।
यक़ीन करेंगे — 2.42 लाख लोगों में से 1.40 लाख ने अपनी ही नाम पर आपत्ति जताई है। मतलब उसने कहा — “मेरा नाम हटा दो”।
इनमें से 41 लोगों ने कहा कि वे मर चुके हैं और चुनाव आयोग ने उनमें से 39 को सूची से हटा भी दिया। विदेशियों पर इतना ध्यान दिया गया कि कोई भी व्यक्ति शिकायत दर्ज कर सकता था, लेकिन कुल 7.4 करोड़ लोगों में से सिर्फ 1,087 शिकायतें आईं, और इनमें से 390 को ही स्वीकार किया गया। हमें यह नहीं पता कि इनमें कितनी विदेशी होने के आधार पर थीं।
यानि 390 ही अधिकतम संख्या है, जिन्हें नागरिक न होने के कारण हटाया जा सकता था। इसी बीच, 796 लोगों ने खुद के खिलाफ आवेदन दाख़िल किया, ये कहते हुए कि “मैं विदेशी हूँ।”
क्या यह संभव है? हम किस तरह की दुनिया में रह रहे हैं? यह चुनाव आयोग का अपना ही आँकड़ा है।
यह अदालत चुनाव आयोग को निर्देश दे सकती है कि कितने लोगों के नाम इस आधार पर हटाए गए कि वे नागरिक नहीं थे, यह स्पष्ट रूप से बताया जाए। यह देश के लिए एक बहुत बड़ी सेवा होगी।
निष्कर्ष यह है कि, जब तक तीन विषैले तत्व (toxic elements) हटाए नहीं जाते —
– अनिवार्य रूप से फॉर्म भरना
– नागरिकता का सत्यापन,
– और इसी तरह की अन्य प्रक्रियाएँ — तब तक हर जगह वोटर बहिष्कार होगा।

















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