15 अगस्त 1947 को जब भारत ने आज़ादी का सूरज देखा, तो एक सवाल सबके मन में था कि भारत का गवर्नर जनरल कौन होगा? पाकिस्तान में जिन्ना गवर्नर जनरल बन चुके थे लेकिन भारत ने ऐसा फैसला लिया जिसने पूरे विश्व को अचंभित कर दिया।
प. नेहरू ने माउंटबेटन के सामने जो प्रस्ताव रखा उससे बढ़िया प्रस्ताव विश्व के किसी भी व्यक्ति द्वारा कभी नहीं रखा गया होगा। विश्व इतिहास में इतनी बड़ी मिशाल शायद ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी। नेहरू ने वाइसराय को एक प्रस्ताव दिया कि आप स्वयं ही स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल होंगे। नेहरू के इस प्रस्ताव से क्लीमेंट एटली, विस्टन चर्चिल और इंग्लैंड सरकार एक झटके में बौने हो गए। ब्रिटिश सम्राट ने माउंटबेटन को निर्देश दिया कि इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से पूर्व महात्मा गांधी की सहमति लेना जरूरी है। उनकी सहमति मिलने पर ही पूरे आदर के साथ यह प्रस्ताव पूरी जिम्मेदारी व निष्ठा से स्वीकार करो।
माउंटबेटन, गांधी से मिलने गए और उन्होंने इस प्रस्ताव पर गांधी का आशीर्वाद मांगा। गांधीजी ने माउंटबेटन से कहा कि आपको हमारा यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए। गांधीजी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए एक तरह से फैसले पर अपनी औपचारिक सहमति दे दी।
यह निर्णय गांधी जैसे अहिंसक आदमी के लिए इतना सरल नहीं था। जिस व्यक्ति ने जीवनभर अहिंसा का पालन किया। जिसने अंग्रेजों की जेल में अनेक वर्ष बिताए वह युद्ध कौशल में प्रवीण महारानी के परपोते को अपना आशीर्वाद दे। जिस देश को आजाद कराने में गांधी को 40 साल लग गए उसी देश का सर्वोच्च सम्मान देना बहुत बड़ी बात थी। गांधी से जब पत्रकारों ने सवाल किया तो गांधी ने कहा भारत सरकार ने यह फैसला किया है कि लार्ड माउंटबेटन ही भारत के अगले गवर्नर जनरल होंगे। अभी तक लार्ड माउंटबेटन वायसराय के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के प्रतिनिधि थे लेकिन अब वो हमारे नौकर की तरह काम करेंगे। हमने उन्हें गवर्नर जनरल बनाया है। गांधी ने अंग्रेजी में कहा Now he is our servent,and he is accepted being as servent.
माउंटबेटन ने स्वयं लिखा कि महात्मा गांधी स्नेहशील व्यक्ति थे उनके अंदर उदारता का सागर लहराता था वे पवित्रता की साक्षात मूर्ति थे जिनके आदर्श हीरे की कनी की तरह शुद्ध थे।
प. नेहरू ने बाद में दिए इंटरव्यू में इस घटना का उल्लेख करते हुए कहा कि बापू का यह अटल सिद्धांत था कि हम सभी में एक दैवीय अंश छिपा हुआ रहता है। जरूरत उस दैवीय अंश के दीपक की लौ को बढाने वाली रुई की बाती की है । कई उंगलियां ऐसी होती हैं जो दीपक की लौ को बुझा देती हैं। बापू ने अपने कोमल हाथों से इस भारत माता के दीपक को प्रज्वलित किया और अंतिम सांस तक उसे सहेजे रखा।
इस फैसले की एक पूर्वपीठिका है। जून 1947 में जब ब्रिटिश सरकार ने सत्ता हस्तांतरण की तिथि तय की, देश चारों ओर से संकटों में घिरा था। विभाजन की आग, पंजाब-बंगाल में हिंसा, प्रशासनिक ढाँचे की टूटन, और लाखों शरणार्थियों की त्रासदी। ऐसे संक्रमण काल में नेहरू, पटेल और गांधी तीनों को लगा कि अगर कोई व्यक्ति इस संक्रमण को शांतिपूर्वक सम्भाल सकता है, तो वह माउंटबेटन ही हैं, जिन्होंने पूरी प्रक्रिया को तेज़ और अपेक्षाकृत सुचारु बनाया।
गांधी और माउंटबेटन के बीच संवाद
महात्मा गांधी ने माउंटबेटन से औपचारिक चिट्ठियों के बजाय छोटे-छोटे नोट में लिखित संवाद किया। गांधी की भाषा सदा सौहार्दपूर्ण और नैतिक आग्रह से भरी रहती थी। एक नोट में गांधी ने लिखा “यदि आपके हृदय में शांति की सच्ची आकांक्षा है, तो भारत आपके प्रति कृतज्ञ रहेगा।”
माउंटबेटन ने इस लिखित नोट का आभार मानते हुए लिखा “आपका विश्वास ही मेरी सबसे बड़ी पूँजी है।”
माउंटबेटन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और 15 अगस्त 1947 को उन्होंने भारत के स्वतंत्रता समारोह में भाग लिया। माउंटबेटन को गवर्नर-जनरल बनाना उस दौर का व्यावहारिक और समझदारी से भरा निर्णय था। यह भावनाओं से नहीं, दूरदृष्टि से लिया गया कदम था।
प. नेहरू की कूटनीतिक समझ, गांधीजी की नैतिक दृष्टि और सरदार पटेल की प्रशासनिक बुद्धिमत्ता_ तीनों ने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि आज़ादी की पहली सुबह अराजकता में न डूबे।
माउंटबेटन ने इस पद की गरिमा बनाये रखी और संक्रमण के समय इस देश की सेवा की। फरवरी 1948 में उन्होंने पद छोड़ दिया और सी राजगोपालाचारी गवर्नर जनरल बने।
27 अगस्त 1979 को लार्ड माउंटबेटन की आयरलैंड में हत्या कर दी गई। भारत में उस समय की तत्कालीन सरकार ने उनके सम्मान में देशभर में 7 दिवस का राष्ट्रीय शोक घोषित किया।
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