महात्मा गांधी की हरिजन यात्रा (1933–34) के बारे में अधिक चर्चा नहीं की जाती है, किन्तु वह वर्णाश्रमी हिन्दुओं की अन्तश्चेतना को झकझोरने और राष्ट्रीय आन्दोलन से दलितोद्धार के प्रयासों को जोड़ देने का एक महान उपक्रम था। यों असहयोग आन्दोलन (1919–22) के समय से ही अस्पृश्यता-निवारण का कार्यक्रम गांधी जी के एजेंडे में प्रमुखता से शामिल था और वो छुआछूत को हिन्दू समाज का एक बड़ा पाप बताते थे। किन्तु पूना पैक्ट (1932) में आम्बेडकर से मुठभेड़ के बाद गांधी जी को अनुभव हुआ कि यह विषय एक व्यापक आन्दोलन की माँग करता है। यरवडा जेल से छूटने के बाद गांधी जी ने अपने को इस आन्दोलन में खपा दिया।
अपनी हरिजन यात्रा के दौरान गांधी जी ने कोई 12 हज़ार मील की दूरी तय की। इनमें से 156 मील की यात्रा पैदल की गई थी, शेष रेलगाड़ी से। गांधी जी ने एक हरिजन सेवक संघ की स्थापना की, जिसका लक्ष्य दलितों की शिक्षा, स्वच्छता और आर्थिक उन्नयन के लिए कार्य करना था। हरिजन यात्रा के दौरान गांधी जी ने गाँव-गाँव जाकर इस संस्था के लिए चंदा माँगा और कोई 10 लाख रुपये एकत्र किए। इतिहासकार बलराम नंदा का कहना है कि गांधी जी चाहते तो किसी भी रियासत के महाराजा या बिड़ला-बजाज से इतनी रकम माँग लेते, लेकिन हरिजन यात्रा के दौरान जब लाखों भारतवासियों ने पाई-पाई करके इस कोश में अपना योगदान दिया तो वो आत्मिक रूप से अस्पृश्यता-विरोधी आन्दोलन से भी जुड़ गए। किसी बुराई के निवारण के प्रयास को जनान्दोलन बना देने की यह सुपरिचित गांधीवादी शैली है। इसे सूटबूटधारी अंग्रेज़ीदाँ नेतागण नहीं समझ पाते थे। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि हरिजन-यात्रा से आम्बेडकर ने न केवल भरसक दूरी बनाए रखी थी, बल्कि उसे केवल एक दिखावा बताने के प्रयास भी किए थे।
चंदे की रकम से हरिजनों के लिए स्कूल और होस्टल खुलवाए गए। गाँवों में स्वच्छता के प्रबंध किए गए। दलित वर्ग में चरखा-कताई और अन्य कुटीर उद्योगों के माध्यम से स्वावलम्बन को बढ़ावा दिया गया। 1933 में ‘हरिजन’ नामक एक पत्र का प्रकाशन भी आरम्भ किया गया। यह ‘यंग इण्डिया’ और ‘नवजीवन’ के बाद भारत में गांधी जी का तीसरा प्रमुख पत्र था। हरिजन सेवक संघ के खातों का सम्पूर्ण ब्योरा ‘हरिजन’ पत्र में प्रकाशित किया जाता था। यह पैसा गांधी जी ने भिक्षुकों की तरह जन-जन के सामने हाथ फैलाकर एकत्र किया था, लेकिन उसकी एक पाई का भी इस्तेमाल उन्होंने अपने लिए नहीं किया।
पूना पैक्ट के बाद दलित गांधी जी से नाराज़ थे, हरिजन यात्रा ने सनातनियों को नाराज़ कर दिया। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि गांधी-तत्त्व की पारदर्शिता का परिष्कार समाज के सभी वर्गों की निंदा समान रूप से सहने से ही होता है। अगर समाज का कोई एक वर्ग गांधी जी को बहुत पसंद करता- जैसे कि जिन्ना, सावरकर और आम्बेडकर को करता है- तो उनका सत्य इतना व्यापक नहीं हो सकता था।
मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलाने का आन्दोलन छेड़कर गांधी जी हिन्दुओं के कोपभाजन बने। उन पर आरोप लगाया गया कि वो हिन्दू धर्म को प्रदूषित कर रहे हैं। हरिजन यात्रा में जहाँ-तहाँ सनातनियों ने गांधी जी को काले झण्डे दिखाए। उनकी गाड़ी पर पत्थर फेंके गए। पूना में एक बार तो उनकी गाड़ी पर बम फेंककर उनकी हत्या का भी प्रयास किया गया। यह अपने ही धर्म में सुधार करने के प्रयासों का फल गांधी जी ने सनातनियों से पाया था, हरिजन यात्रा का मुसलमानों से कोई भी सम्बंध न था!
इसी हरिजन यात्रा के दौरान एक अद्भुत घटना भी घटी। सनातनियों के नेता पण्डित लालनाथ 5 जुलाई 1934 को अजमेर में गांधी के विरोध में सभा कर रहे थे। किसी ने उन पर लाठी से प्रहार किया। गांधी जी ने माना कि यह कृत्य उनके किसी समर्थक ने किया है। उस समय गांधी जी भी अजमेर में ही थे। उन्होंने कहा, “पण्डित लालनाथ को सभा में काली झण्डियाँ लेकर आने और हमारे आन्दोलन के विरुद्ध प्रदर्शन करने का पूरा अधिकार था। जिस किसी ने पण्डितजी पर यह हमला किया है, उसने बहुत बड़ी अशिष्टता की है। काली झण्डियाँ क्या बिगाड़ सकती थीं, परन्तु पण्डित लालनाथ पर जो यह वार हुआ है, उससे निश्चय ही हरिजन-कार्य को क्षति पहुँची है। सुधारकों को दूसरों पर हमला नहीं करना चाहिए, बल्कि बिना प्रतिरोध के हमले सहने चाहिए। इसी तरह हृदय-परिवर्तन हो सकता है और अस्पृश्यता समाप्त हो सकती है। धर्म की रक्षा तो आत्मत्याग तथा कष्ट सहने और आत्मसंयम के द्वारा ही हो सकती है” (सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड 58, पृष्ठ 148)। इस घटना के प्रायश्चित्त के रूप में गांधी जी ने घोषणा की कि दौरे की समाप्ति पर वे 7 दिनों का उपवास करेंगे। 8 अगस्त को उन्होंने वर्धा में यह उपवास आरम्भ किया और 14 अगस्त को इसे पूरा किया।
यह जो दूसरों के अपराधों के लिए भी स्वयं कष्ट सहकर प्रायश्चित्त करना है, अपने विरोधियों को भी अपना मत रखने की पूरी स्वतंत्रता देना है और बलप्रयोग के बजाय नेकी के बल पर दूसरों का हृदय-परिवर्तन करवाने की यह जो गांधीवादी-शैली है, यह आदर्शोन्मुखता का एक महत्तम वितान रचती है। हम यह सुनकर बड़े हुए हैं कि “ज़माना ख़राब है” और “दुनिया बुरी है”, या यह कि “सीधी उँगली से घी नहीं निकलता” या यह कि “लातों के भूत बातों से नहीं मानते”- तब उसमें गांधी जी जैसे स्वप्नदृष्टा का यह आदर्शवाद हमें बहुत कुछ सिखाता है। ये हमें बताता है कि सभी मार्गों में नैतिक दृष्टि से सबसे ऊँचा मार्ग यह सत्याग्रह वाला ही है। समाज में ऊपर से नियम थोपकर और व्यवस्थाएँ लादकर उसे अनुशासित तो किया जा सकता है, किन्तु श्रेयस्कर तो यही है कि ख़ुद समाज के भीतर से नैतिक-परिष्कार की प्रक्रिया से सुधार उभरकर सामने आएँ।
गांधी जी के मन में वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रति जो लगाव था, वह भी आदर्शवाद की भूमि पर ही था और स्वधर्म के विचार से प्रेरित था। यह कि समाज-व्यवस्था में सबकी अपनी-अपनी भूमिका है, किन्तु इसका निर्धारण जन्म-आधारित जाति-व्यवस्था से नहीं किया जा सकता। तब व्यक्तित्वों के प्रकार के रूप में समाज में वर्ण वैसे ही हैं, जैसे मनोविश्लेषण की भाषा में ‘आर्चिटाइप्स’ (कार्ल गुस्ताव युन्ग) होते हैं। किन्तु जब गांधीजी ने पाया कि उनकी बात को ग़लत समझा जा रहा है कि तो उन्होंने कहा कि “मैं चाहता हूँ सभी हिन्दू स्वेच्छापूर्ण अपने को शूद्र घोषित कर दें।”
मैं गांधी जी की इस बात से सर्वथा सहमत हूँ। क्योंकि ‘अदर बैकवर्ड कास्ट’ के विचार में भी ‘अन्यीकरण’ का भाव है, अपने से पृथक किसी दूसरे का भाव है, किन्तु अगर सभी हिन्दू शूद्र कहलावें तो फिर कौन ऊँचा और कौन नीचा रहेगा? समाज-व्यवस्था में उच्चावच-क्रम तो निश्चित ही पूर्णतया त्याज्य है। गांधी जी स्वयं को हरिजन कहने ही लगे थे। वे वाल्मीकि बस्तियों में रहने लगे थे। कालान्तर में सेवाग्राम आश्रम में गांधी जी ने अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ावा देते हुए यह नियम बना दिया था कि मैं केवल तभी किसी विवाह में सम्मिलित होऊँगा, जब उसमें एक पक्ष दलित वर्ग का हो। उन्होंने भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में किसी दलित महिला के चयन का भी सुझाव दिया था।
खेद है कि गांधी जी के इन समस्त प्रयासों को आज भुला दिया जाता है! एक तरफ़ हिन्दुत्ववादियों और दूसरी तरफ़ आम्बेडकरवादियों के दुष्प्रचार और घृणा-पर्व ने गांधी जी के संदेश पर जो धुंध छा दी है, उसे हटाना आवश्यक है!
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.















