सत्य का दीप जलाओ, भीतर का अंधकार मिटाओ

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diwali

दीपावली रोशनी का पर्व है — अंधकार मिटाने और नए सवेरे का स्वागत करने का प्रतीक। पर गांधीजी के लिए यह केवल दीयों और मिठाइयों का त्यौहार नहीं था। उनके लिए दीपावली आत्मदर्शन का अवसर थी — यह सोचने का कि हमारे भीतर का अंधेरा कितना मिटा है, और समाज के अंधेरे को मिटाने के लिए हमने क्या किया है।

गांधीजी के लिए रामायण धर्मकथा नहीं थी, बल्कि सत्य, त्याग और सहनशीलता की साधना थी। वे मानते थे कि राम, सीता और लक्ष्मण का जीवन हमें यह सिखाता है कि सत्य के लिए पीड़ा सहना ही मुक्ति का मार्ग है।

🌿 राम का वनवास बताता है कि सत्य का पालन करने के लिए त्याग ही सबसे बड़ा बल है।
🌿 सीता की लंका में कैद यह सिखाती है कि धैर्य, आत्मबल और विश्वास से हर कठिनाई जीती जा सकती है।
🌿 लक्ष्मण का पश्चाताप हमें याद दिलाता है कि संयम और विनम्रता भी साधना हैं।

गांधीजी कहते थे “अगर हिन्दुस्तानी उसी ढंग से जीवन जीना सीख लें, तो वे उसी क्षण से स्वतन्त्र हो जाएंगे।” उनके लिए स्वतंत्रता कोई सत्ता द्वारा दिया गया उपहार नहीं थी ,वह एक आत्मिक जागरण थी, जो तब होती है जब व्यक्ति सत्य के लिए दुख झेलना और अन्याय के विरुद्ध अहिंसक रहना सीख लेता है।

गांधीजी का विश्वास था कि जैसे रामायण में सत्य ने असत्य पर विजय पाई, वैसे ही भारत में सत्य और करुणा के दीप जलाकर अन्याय का अंधकार मिटाया जा सकता है।

गांधीजी कहते थे “मैं गरीबी का सबसे बड़ा दुश्मन हूँ, क्योंकि दुनिया में कोई भी चीज़ मनुष्य का इतना अपमान नहीं करती जितना गरीबी करती है।” गांधीजी के लिए गरीबी केवल आर्थिक समस्या नहीं थी, वह मानवता का अपमान थी। वे चाहते थे ऐसा समाज जहाँ हर व्यक्ति सक्षम, आत्मनिर्भर और सम्मानपूर्वक जीवन जी सके। वे कहते थे “मैं ऐसे समृद्ध समाज की कल्पना करता हूँ, जहाँ हर व्यक्ति इतना सक्षम और संपन्न हो कि वह स्वर्ग जाने के लिए सोने की सीढ़ी बना सके।”

यह विचार एक रूपक है क्योंकि क्या दुनिया में इतना सोना है कि हर व्यक्ति अपनी सीढ़ी बना सके? नहीं, क्योंकि संसाधन सीमित हैं। तब गांधी कहते हैं “अगर सबके लिए सीढ़ी नहीं बन सकती, तो यह सीढ़ी मेरे किसी काम की नहीं।” यही गांधी का नैतिक अर्थशास्त्र है —

अगर संपन्नता सबकी नहीं है, तो वह सच्ची संपन्नता नहीं। वे कहते हैं “अगर सोने की सीढ़ी नहीं बन सकती, तो दो दिलों के बीच एक संवेदना का पुल तो बन सकता है — जो मेरे दिल से तुम्हारे दिल तक जाए।” यही पुल गांधी के नैतिक अर्थशास्त्र का मूल है — एक ऐसा सेतु जिसमें गरीबी, भेदभाव और स्वार्थ के लिए कोई जगह नहीं। जहाँ लोग एक-दूसरे के दुख में साझेदार हों, वहीं असली समृद्धि बसती है।

गांधी कहते हैं “मुझे किसी की कमाई से आपत्ति नहीं है।” उन्होंने बिरला जैसे उद्योगपतियों से कहा “ मुझे भी धन कमाने की कला बताओ क्योंकि आजाद भारत में लोगों की आवश्यकताऐं बढ़ेगी, आकांक्षाएं बढ़ेंगी। धन अर्जित करने की कला बुरी नहीं, पर उसका उपयोग समाज के लिए होना चाहिए।” उनका ‘ट्रस्टीशिप सिद्धांत’ इसी विचार पर आधारित था —जहाँ धन व्यक्ति के पास रहता है, पर उसका स्वामित्व समाज का होता है। यानी धन एक ज़िम्मेदारी है, अधिकार नहीं।

गांधीजी संपन्नता के विरोधी नहीं थे, वे तो साझी समृद्धि के समर्थक थे — ऐसी समृद्धि जो किसी को पीछे न छोड़े, किसी को छोटा न करे।

आज जब दीपावली पर हर ओर रोशनी है,
गांधीजी का यह संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। हमें ऐसे दीप जलाने हैं जो सिर्फ घर को नहीं, समाज को भी उजाला दें। हमें ऐसी समृद्धि बनानी है जो सबकी हो — जिसमें दया, समानता और सहयोग का प्रकाश फैले।

गांधी कहते हैं “अगर सबके लिए उजाला नहीं है, तो मेरा दीप व्यर्थ है।”

🪔 तो आइए, इस दीपावली पर गांधी का दीप जलाएँ —वह दीप जो दिल से दिल तक जाता है, जो भीतर का अंधकार मिटाता है और बाहर करुणा की रोशनी फैलाता है।

🪔 दीपक जलाकर अपना घर रोशन किया तो क्या किया? ऐसा दिया जले जो रोशन जहाँ करे।

इस दीपावली, आइए संकल्प लें — कि हम धन से पहले दया, वैभव से पहले विनम्रता, और रोशनी से पहले सत्य का दीप जलाएँ।
यही होगी गांधी की सच्ची दीपावली —जहाँ हर हृदय में उजाला होगा, और हर जीवन में समानता की ज्योति।


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