इतिहास से सीखिए और वर्तमान को संवारिए! – अरुण कुमार त्रिपाठी

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Arun Kumar Tripathi

पने एक मित्र हैं महेंद्र मिश्र। वे ‘जनचौक’ नाम का पोर्टल चलाते हैं। वे वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे हैं। एक दिन मैंने उनसे कहा कि आपातकाल के विरुद्ध होने वाले संघर्ष में सिर्फ समाजवादियों, संघियों और गांधीवादियों की ही भागीदारी नहीं थी। उस दौरान भले ही कम्युनिस्टों की एक धारा आपातकाल के समर्थन में थी लेकिन अतिवामपंथ की धारा के तमाम लोग जेल में थे। आज इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए और बताया जाना चाहिए कि वह स्वतंत्र भारत में क्रांति की एक गंभीर कोशिश थी लेकिन विफल हो गई। इस पर उनका कहना था कि आप की बात सही है लेकिन अगर हम इस दौर में कांग्रेस शासन के उस दमन का जिक्र करेंगे तो वह लड़ाई बिखर जाएगी जो कांग्रेस के नेतृत्व में लोकतंत्र की रक्षा के लिए चल रही है। मैं उनकी समझदारी का कायल हो गया और दोबारा उनसे इस मसले का जिक्र नहीं किया।

लेकिन मुझे उस समय बड़ी निराशा होती है जब कई कांग्रेस समर्थक जेपी और लोहिया को वर्तमान फासीवाद के लिए सर्वाधिक गुनहगार मानते हैं या तमाम समाजवादी प्रतिकार में कांग्रेस की तमाम कमियां गिनाते हुए उसे ध्वस्त करने की बात करते हैं। भारतीय लोकतंत्र अपने इतिहास के जिस नाजुक दौर में है उसमें इस तरह की बहसों से न तो लोकतंत्र का कोई भला होगा और न ही भारतीय जनता का। हमें यह ध्यान देना चाहिए कि इतिहास की बहसों को वे लोग ज्यादा उठा रहे हैं जिन्हें सांप्रदायिकता फैलानी है। वे लोग ही इतिहास को तोड़ने मरोड़ने में लगे हैं। ऐसा करते हुए भले ही वे अपना वर्तमान संवार रहे हैं लेकिन वे देश और समाज के अतीत के साथ उसका भविष्य भी बिगाड़ रहे हैं। इसलिए आज जरूरी है कि समाजवादी बनाम कांग्रेसी और कम्युनिस्ट बनाम समाजवादी की बहसों को एक ओर रखकर जहां जहां से जो प्रेरक प्रसंग और ऊर्जा मिले उनके माध्यम से वर्तमान को संवारते हुए भविष्य को उज्जवल बनाया जाए।

कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी को कोसने वालों की कमी नहीं है। ऐसा करने वाले कांग्रेस में भी हैं और विपक्ष कहे जाने वाले दलों में भी हैं। राहुल को कोसने वालों में वे भी हैं जो सच्चे दिल से इस देश और लोकतंत्र का भला चाहते हैं। लेकिन तुरंत परिणाम की चाहत में जीने वाले लोग राहुल गांधी के नेतृत्व में लगातार मिल रही विफलताओं से इतने घबरा गए हैं कि वे उसे भी कूड़ेदान में फेंक देना चाहते हैं, जो कम से कम फासीवाद के सामने सीना तानकर खड़ा है। स्थितियों को देखने के अपने अपने नजरिए हैं। बिहार चुनाव में महागठबंधन को मिली विफलता के बाद ऐसा कहने वाले बढ़ते जा रहे हैं कि राहुल गांधी की बात सुनने के लिए जनता तैयार नहीं है। वोट चोरी और एसआईआर विरोध का मुद्दा वे जनता तक नहीं ले जा पाए। इसलिए वे गलत साबित हुए। दूसरी ओर ऐसा कहने वाले भी हैं कि जिसने संविधान को मुद्दा बनाकर भाजपा को 2024 के लोकसभा चुनाव में 240 पर रोक दिया उसे हम पूरी तरह से विफल कैसे कह सकते हैं। बल्कि बिहार चुनाव के परिणामों से तो राहुल गांधी का वोट चोरी और एसआईआर से हो रही धांधली के आरोप और सही साबित हो रहे हैं।

संयोग से इस चुनाव के बाद कांग्रेस ने खामोश बैठने के बजाय 18 नवंबर को अपने मुख्यालय में 12 राज्यों के पदाधिकारियों की बड़ी बैठक बुलाकर आगे की रणनीति पर विचार किया। ध्यान देने की बात है कि इस समय 12 राज्यों में विशेष गहन पुनरीक्षण(एसआईआर) यानी मतदाता सूची में संशोधन का काम चल रहा है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने इसे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली है जबकि केरल भी रोके जाने की मांग कर रहा है। कांग्रेस की योजना दिसंबर के पहले हफ्ते में दिल्ली के रामलीला मैदान में इस मामले पर एक विशाल रैली करने की है।

कांग्रेस धीरे धीरे ही सही लेकिन सधे कदमों से जिस दिशा में बढ़ रही है उससे साफ लगता है कि भाजपा के रास्ते पर चलकर और चौबीसों घंटे चुनाव मोड में रह कर वह न तो लोकतंत्र को प्राणवान कर सकती है और न ही भाजपा को परास्त कर सकती है। भाजपा को परास्त करने का रास्ता फिलहाल अभी चुनाव से होकर नहीं गुजरता। न तो कांग्रेस और विपक्ष के पास उतने वैध-अवैध और नैतिक अनैतिक साधन हैं और न ही सत्ता की मशीनरी है जो हर चीज को न सिर्फ जबरदस्ती लागू करा दे बल्कि कभी मीडिया से तो सभी न्यायपालिका से तो कभी कार्यपालिका की अन्य संस्थाओं से अवैधता को सही साबित कर दे।

जाहिर है कांग्रेस आंदोलन की ओर जा रही है। अभी पता नहीं वह आंदोलन किस रूप का होगा। वह गांधी के 1921 के असहयोग आंदोलन जैसा होगा, 1930 के दांडी मार्च जैसा होगा या 1942 के भारत छोड़ो जैसा होगा। उसमें बायकाट होगा, हड़ताल होगी, घेराव होगा, सत्याग्रह होगा या क्या होगा? लेकिन वह जो भी होगा आसान नहीं होगा। वह आजाद भारत में चले समाजवादियों के आंदोलन जैसा भी हो सकता है और कम्युनिस्टों के आंदोलन जैसा भी हो सकता है। वह वीपी सिंह जैसा भी हो सकता है और केजरीवाल जैसा भी। कुछ लोगों को ‘जेन जी’ से बड़ी उम्मीदें हैं और वे कभी नेपाल, कभी मेक्सिको, तो कभी श्रीलंका, तो कभी बांग्लादेश का उदाहरण सामने रख रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस को न चाहकर भी डॉ लोहिया से भी कुछ सीखना पड़ेगा और सीखना पड़ेगा जेपी से भी। कांग्रेस को याद करना होगा कि डॉ लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। जेपी ने भी तमाम राष्ट्रवादी और देशभक्ति के मुद्दे पर इंदिरा गांधी की मदद करने के बाद युवाओं के आह्वान पर उनसे मोर्चा ले ही लिया था और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए 13-14 अप्रैल 1974 को ‘सिटीजन्स फार डेमोक्रेसी’ जैसी संस्था बना डाली थी। डॉ लोहिया जब कांग्रेस पार्टी के विदेश विभाग के सचिव थे तब उन्होंने 1936 में ‘द स्ट्रगल फॉर सिविल लिबरटीज’ जैसी पुस्तिका लिखी, जिसकी भूमिका स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी।

जहां डॉ लोहिया ने 1936 में लिखी पुस्तिका में कहा था कि नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई को राजनीतिक सत्ता के पलटे जाने तक नहीं छोड़ा जा सकता। इससे जनता में सामाजिक चेतना फैलती है और उससे संपन्नता और समता का रास्ता तय करना आसान होता है। इसी तरह जेपी ने भी मानवेंद्र नाथ राय से सहमति जताते हुए सीएफडी बनाते समय यह सोचा था कि नैतिक पुनर्निर्माण का काम राजनीतिक दलों के बजाय नागरिक संगठनों के हवाले किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए मौजूदा दौर में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म(एडीआर) ने इस काम को बेहतरीन ढंग से किया है। इस दौर में लोकतांत्रिक चेतना और चुनाव सुधार संबंधी आंदोलन की बहुत सख्त जरूरत है। चुनाव सुधार में ईवीएम को हटाया जाना, आयोग के कामों में पारदर्शिता को लाया जाना, उसे जवाबदेह बनाया जाना और चुनाव खर्च को रोका जाना जरूरी है। अपने एक कांग्रेसी मित्र कहते हैं कि कांग्रेस को आजादी के पहले वाली स्थिति में लौटना होगा। वह स्थिति जहां पर गांधी जी उसे सामाजिक मसलों पर भी आंदोलन और रचनात्मक काम के लिए प्रेरित करते थे और दिक्कत होने पर समांतर संगठन बना डालते थे। साथ ही विभिन्न धाराओं के लोगों के लिए कांग्रेस का मंच खुला रहता है। वह मंच जहां पर कांग्रेस समाजवादी पार्टी के बैनर तले समाजवादी भी होते थे और कम्युनिस्ट भी होते थे।

कांग्रेस को लोगों ने इस बात के लिए बहुत दबाया कि उसे क्षेत्रीय दलों की शक्ति को स्वीकार करना चाहिए। उसने कई राज्यों में किया भी। इस मामले में उत्तर प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर जैसे कुछ राज्यों में सफलता भी मिली लेकिन वह सफलता फासीवाद पर लगाम लगाने या उसे परास्त करने में नाकाम रही। दिल्ली की सत्ता के चुम्बकीय आकर्षण और आतंक के बिना वह सफलता मिल भी नहीं सकती। इसलिए यह समय है महेंद्र मिश्र जैसे युवाओं की समझदारी को व्यापक बनाने का और इतिहास के फालतू झगड़ों से बाहर आने का। महात्मा गांधी ने इतिहास से विग्रह निकालने के बजाय प्रेम का तत्व निकाला। उनका ज्यादा फोकस वर्तमान पर था और वे जानते थे कि उसी से भविष्य निर्माण होता है। कांग्रेस और देश की लोकतांत्रिक शक्तियों को समन्वय और समझदारी का कुछ ऐसा रास्ता ही अपनाना चाहिए।


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