समय के विरुद्ध खड़ा कवि रघुवीर सहाय – परिचय दास

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Raghubir Sahay

Parichay Das

।। एक ।।

घुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता एक ही दीर्घ श्वास के दो फेफड़े हैं—जहाँ एक संवेदना साँस लेती है, वहाँ दूसरा विवेक को जीवित रखता है। उनके शब्दों में कोई आलंकारिक छल नहीं है बल्कि एक ऐसी पारदर्शिता है जो समाज के भीतर छिपी दरारों को भी रेखांकित कर देती है। वे केवल कविता नहीं लिखते, वे समय का एक्स-रे करते हैं; और केवल पत्रकारिता नहीं करते, वे समाचारों के पीछे बैठे मौन को भी बोलने के लिए विवश करते हैं। यही द्वंद्वात्मक एकता उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का मूल है—जहाँ कविता एक स्वतंत्र पक्षी नहीं बल्कि पत्रकारिता के आकाश में उड़ती हुई एक सचेत उड़ान है।

उनकी कविता का अर्थ केवल सौंदर्य बोध नहीं, बल्कि नैतिक बेचैनी है। रघुवीर सहाय के यहाँ शब्द ‘सुंदर’ होने के लिए नहीं, ‘सच’ होने के लिए व्यवस्थित होते हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता “लोग भूल गए हैं” केवल स्मृति का संकट नहीं रचती, बल्कि लोकतंत्र की चेतना के क्षरण का आत्मीय दस्तावेज़ बन जाती है। यहाँ कविता एक दीवार नहीं, एक खिड़की है—जिससे पाठक बाहर का संसार नहीं, बल्कि अपने भीतर का भय और सोया हुआ साहस देखता है। उनकी पंक्तियाँ किसी भावुकता की भीख नहीं माँगतीं, बल्कि पाठक को कठोर ईमानदारी के सामने खड़ा कर देती हैं।

रघुवीर सहाय की पत्रकारिता का अर्थ भी इसी ईमानदारी से जन्म लेता है। समाचार उनके लिए ‘खबर’ नहीं, ‘स्थिति’ हैं। वे घटना को नहीं, घटना के पीछे काम कर रही संरचनाओं को पकड़ना चाहते हैं। एक पत्रकार के रूप में वे सत्ता भाषा के भीतर छिपे झूठ की शिनाख्त करते हैं। उनके स्तंभों और लेखों में आरोप नहीं, परीक्षण है; आक्रोश नहीं, विवेक है। वे यह नहीं कहते कि यह गलत है, बल्कि इस बात को दिखाते हैं कि व्यवस्था के भीतर यह गलत कैसे वैध बना दिया गया है। यही उनकी पत्रकारिता को साधारण टिप्पणी से ऊपर उठा कर साहित्यिक अंतर्दृष्टि में बदल देता है।

कविता और पत्रकारिता उनके यहाँ अलग संसार नहीं रचते, बल्कि एक-दूसरे की पूरक भाषाएँ बन जाते हैं। कविता वहाँ बोलती है जहाँ पत्रकारिता की भाषा थक जाती है, और पत्रकारिता वहाँ हस्तक्षेप करती है जहाँ कविता को ठोस यथार्थ की ज़रूरत पड़ती है। उनकी कविता में जो नागरिक खड़ा है, वही नागरिक उनके आलेखों में प्रश्न पूछ रहा है। यह नागरिक नायक नहीं है, बल्कि साधारण मनुष्य है—जो डरता भी है, चुप भी रहता है, और फिर अचानक बोलने का साहस भी जुटा लेता है। यही साधारण मनुष्य रघुवीर सहाय की रचना-भूमि का केंद्र है।

उनके काव्य में शहर एक भीतरी पात्र की तरह उपस्थित रहता है। सड़कें, दफ्तर, भीड़, चुपचाप खड़े लोग—ये सब केवल दृश्य नहीं, बल्कि अर्थपूर्ण उपस्थिति हैं। यह शहरी यथार्थ उनके लिए रोमांचक नहीं, बल्कि चिंताजनक है। उनकी कविता में आदमी अकेला इसलिए नहीं है कि दुनिया खाली है, बल्कि इसलिए कि दुनिया शोर से भरी है और फिर भी संवादहीन है। इस तरह उनकी कविता आधुनिक मनुष्य की उस विडंबना को खोलती है जिसमें वह भीड़ में रहकर भी अपने सच को बोलने से डरता है।

पत्रकारिता में भी यही शहरी चेतना उनकी दृष्टि का आधार है। वे रिपोर्टिंग को मात्र सूचना का वितरण नहीं मानते, बल्कि उसे सार्वजनिक विवेक का विस्तार मानते हैं। उनके लेख सत्ता से सवाल करते हैं, लेकिन सत्ता को गाली नहीं देते। वे नारे नहीं लिखते, बल्कि तर्क की जमीन तैयार करते हैं। उनकी भाषा वहाँ भी सहज और पारदर्शी रहती है, पर उसके भीतर आग की एक धीमी परत लगातार जलती रहती है। यही आग उनकी कविता में भी दिखाई देती है—एक ऐसी आग जो सब कुछ भस्म नहीं करती, बल्कि भीतर की जड़ता को पिघलाती है।

रघुवीर सहाय की कविता का सबसे गहरा अर्थ शायद यह है कि वह मनुष्य को चुप रहने के विकल्प से वंचित कर देती है। उनकी कविता पढ़ने के बाद पाठक पहले जैसा नहीं रह पाता। वह अचानक अपनी निष्क्रियता को देखने लगता है। यह कोई उपदेश नहीं है, बल्कि आत्म-सम्भाषण की एक स्थिति है, जहाँ शब्द दर्पण बन जाते हैं। उनकी कविता पाठक को डराती नहीं, बल्कि उसकी सुप्त चेतना को हल्के से झकझोर देती है। वे न तो आशावाद का झूठ बोते हैं, न ही निराशा का महिमामंडन करते हैं; वे केवल यथार्थ को उसकी नंगी अवस्था में सामने रख देते हैं।

उनकी पत्रकारिता भी पाठक को यही अनुभव देती है। वहाँ भी पाठक को तैयार निष्कर्ष नहीं मिलता, बल्कि एक प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है। लेख पढ़ते हुए पाठक स्वयं सोचने को बाध्य होता है—क्या यही सच है जिसे हम रोज़ अख़बार में पढ़ते हैं? क्या सत्ता की भाषा वास्तव में जनता की भाषा है? इस तरह उनकी पत्रकारिता पाठक को उपभोक्ता नहीं, सहभागी बना देती है।

समग्र रूप में देखा जाए तो रघुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता एक ही नैतिक परियोजना के दो रूप हैं। यह परियोजना मनुष्य को मनुष्य बने रहने की चिंता से उत्पन्न हुई है। वे भाषा को एक औज़ार नहीं, एक ज़िम्मेदारी मानते हैं। उनके लिए लिखना एक सहज प्रवाह नहीं, बल्कि एक सजग और सचेत कर्म है। वे शब्दों से संसार सजाते नहीं, बल्कि संसार को देखने की दृष्टि विकसित करते हैं। यही कारण है कि उनकी कविता पढ़ते समय भीतर एक बेचैनी जन्म लेती है, और उनकी पत्रकारिता पढ़ते समय भीतर एक सतर्कता विकसित होती है।

उनकी रचनाओं का अंतिम अर्थ शायद किसी निष्कर्ष में बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे निष्कर्ष नहीं, प्रश्न पैदा करना चाहते हैं। उनकी कविता प्रश्न है, उनकी पत्रकारिता प्रश्न है, और उनका समूचा रचनात्मक व्यक्तित्व एक दीर्घ प्रश्नचिह्न की तरह समय के सामने खड़ा है। उसी में उनकी प्रासंगिकता है और उसी में उनका सौंदर्य भी। उनके शब्द आज भी इसलिए जीवित हैं क्योंकि वे हमें आराम नहीं, जागरण की अनुभूति देते हैं। उनके लिए साहित्य और पत्रकारिता सत्ता की परिक्रमा नहीं, बल्कि सच की तीर्थयात्रा हैं—जहाँ हर पंक्ति, हर वाक्य, मनुष्य की गरिमा को बचाए रखने का एक मौन लेकिन दृढ़ प्रयास है।

।। दो ।।

रघुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता को समझना केवल साहित्यिक अभ्यास नहीं, बल्कि आधुनिक भारतीय चेतना के भीतर प्रवेश करना है, जहाँ शब्द मनोरंजन नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व बन जाते हैं। उनके लिए भाषा सजावट नहीं, बल्कि एक नैतिक संकल्प है। इसीलिए उनकी कविता और उनकी पत्रकारिता दोनों में सबसे पहले जिस चीज़ की अनुभूति होती है, वह है बेचैन ईमानदारी। वे झूठ को अलंकार देकर सहनीय नहीं बनाते, बल्कि उसकी नंगी उपस्थिति को पाठक के सामने रख देते हैं। उनका लेखन सत्ता के चमकदार मुखौटे को भी इस तरह छूता है कि भीतर की दरारें स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं।

उनकी कविता का मूल अर्थ सामान्य भावुकता से बहुत आगे जाकर सामाजिक विवेक की रचना करना है। वे सुंदरता के नहीं, सच्चाई के कवि हैं। उनकी कविताओं में बार-बार जो मनुष्य दिखाई देता है, वह कोई नायक नहीं, बल्कि साधारण नागरिक है, जो रोज़मर्रा के समझौतों के बीच अपनी आत्मा को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता है। इस संघर्ष में कहीं कोई बड़े शब्द नहीं हैं, कोई क्रांतिकारी मुद्रा नहीं है, बल्कि भीतर ही भीतर गूँजता एक धीमा, लगातार असंतोष है। यह असंतोष ही उनकी कविता की असली ऊर्जा है, जो पाठक को भी भीतर से असहज कर देती है।

रघुवीर सहाय की कविता में लोकतंत्र एक अमूर्त आदर्श नहीं, बल्कि एक दैनिक परीक्षा है। वे चुनावों की भाषा, सभाओं की भीड़, और भाषणों की खोखली गूँज को देखकर जिस विडंबना को रचते हैं, वह केवल राजनीतिक आलोचना नहीं, बल्कि नैतिक क्षरण का चित्रण है। उनकी पंक्तियाँ सत्ता के शोर के बीच आम आदमी की चुप्पी को सुनने की कोशिश करती हैं। कविता उनके यहाँ एक मंच नहीं, बल्कि एक प्रश्नचिह्न बन जाती है—किसके लिए है यह व्यवस्था, और किस कीमत पर चल रही है यह लोकतांत्रिक मशीन।

उनकी पत्रकारिता इसी प्रश्न को गद्य की ठोस ज़मीन पर खड़ा करती है। एक पत्रकार के रूप में वे घटना और उसके प्रचार में फर्क करते हैं। वे जानते हैं कि सत्ता केवल कानून से नहीं, भाषा से भी चलती है। इसलिए वे अपनी पत्रकारिता में भाषा की इस राजनीति को बार-बार उजागर करते हैं। उनके लेख सत्ता को सीधे चुनौती देने के बजाय उसके तर्कों को खोलते हैं, उसकी भाषा की चालाकियों को सामने लाते हैं। इस प्रक्रिया में वे पाठक को केवल सूचना नहीं देते, बल्कि उसे आलोचनात्मक दृष्टि की ओर धीरे-धीरे ले जाते हैं।

उनकी कविता और पत्रकारिता के बीच सबसे महत्वपूर्ण सेतु ‘नागरिक चेतना’ है। उनके यहाँ नागरिक होना सिर्फ अधिकारों की बात नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का प्रश्न है। उनकी कविता में नागरिक अक्सर असहाय दिखाई देता है, लेकिन पूरी तरह पराजित नहीं होता। उसकी चुप्पी में भी एक नैतिक गूँज है, जो किसी भी क्षण विद्रोह में बदल सकती है। यही संभावना उनकी कविता को निराशा के अंधेरे में भी रोशनी का बोध कराती है, बिना किसी घोषणात्मक आशावाद के।

रघुवीर सहाय की पत्रकारिता भी इसी नागरिक को संबोधित करती है। वे पाठक को ‘सिर्फ पाठक’ नहीं रहने देते, बल्कि उसे सार्वजनिक जीवन का एक जागरूक सहभागी मानते हैं। उनका लेखन इस विश्वास पर आधारित है कि आम व्यक्ति पूरी तरह मूर्ख नहीं है, बल्कि उसे लगातार भ्रमित किया जाता है। इसलिए उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य भी भ्रम के पर्दे हटाना है, न कि किसी पार्टी या विचारधारा का प्रचार करना। उनके लेखों में दिखने वाली कठोरता दरअसल पाठक की बुद्धि के प्रति सम्मान का ही दूसरा नाम है।

शिल्प की दृष्टि से उनकी कविता अत्यंत नियंत्रित और संयत है। वे भावनाओं की बाढ़ में बहने वाले कवि नहीं हैं। उनकी पंक्तियों में एक तरह की नैतिक अनुशासनिकता दिखाई देती है। वे जानबूझकर शब्दों को रोके रखते हैं, उन्हें अनावश्यक चमक नहीं देते। यह संयम उनकी कविता को और भी प्रभावी बना देता है, क्योंकि पाठक को हर पंक्ति के भीतर छिपे तनाव को स्वयं महसूस करना पड़ता है। उनकी कविता का सौंदर्य चीख में नहीं, बल्कि रोकी हुई आवाज़ में है।

उनकी पत्रकारिता का शिल्प भी इसी संयम से संचालित है। वे सनसनी पैदा करने की पत्रकारिता में विश्वास नहीं रखते। उनके लिए खबर का महत्व उसकी गहराई में है, न कि उसके शोर में। इसीलिए उनके लेखों में अक्सर एक धीमी लेकिन लगातार चलने वाली तर्क-धारा दिखाई देती है। वे धीरे-धीरे पाठक को तथ्यों की जमीन पर खड़ा करते हैं और फिर सवाल खड़ा करते हैं। उनकी भाषा यहाँ भी साफ है, लेकिन सतही नहीं; सरल है, लेकिन साधारण नहीं।

रघुवीर सहाय की रचनात्मकता का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि वे भाषा को सत्ता के उपकरण के रूप में स्वीकार नहीं करते। वे भाषा को प्रतिरोध का एक स्वायत्त क्षेत्र बनाना चाहते हैं। उनकी कविता में शब्द अपने आप में सजावटी इकाई नहीं, बल्कि नैतिक इकाई बन जाते हैं। जब वे लिखते हैं, तो ऐसा लगता है कि हर शब्द से पहले उन्होंने अपने भीतर एक नैतिक जाँच की है—क्या यह शब्द सच बोझ सकता है? क्या यह झूठ को उजागर करने की क्षमता रखता है? यही सजगता उन्हें साधारण लेखकों से अलग करती है।

कविता और पत्रकारिता उनके यहाँ दो अलग-अलग अभ्यास नहीं, बल्कि एक ही अंतरात्मा की दो धाराएँ हैं। जहाँ कविता अत्यंत निजी अनुभव से जन्म लेती है, वहीं पत्रकारिता सार्वजनिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है। लेकिन दोनों का लक्ष्य एक ही है—मनुष्य को उसकी गरिमा का अहसास दिलाना। उनकी कविता व्यक्ति को भीतर से जगाती है, उनकी पत्रकारिता समाज को बाहर से झकझोरती है। और इन दोनों के बीच जो पुल बनता है, वह है नैतिक जिम्मेदारी का पुल।

उनकी रचनाओं का अर्थ समय के साथ और भी गहरा होता गया है। जिस तरह के संकट आज के लोकतंत्र, मीडिया और सार्वजनिक भाषा के सामने खड़े हैं, उनमें रघुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता और अधिक प्रासंगिक लगने लगती हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि शब्द कभी निर्दोष नहीं होते, और मौन कभी तटस्थ नहीं होता। हर शब्द एक पक्ष लेता है, और हर चुप्पी भी एक राजनीतिक कार्य होती है। उनकी रचनाएँ इसी सच को अत्यंत शांत, लेकिन अत्यंत दृढ़ भाषा में हमारे सामने रखती हैं।

रघुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता का अर्थ किसी सिद्धांत में बंद नहीं किया जा सकता। वह एक निरंतर चलने वाली चेतना है, जो पाठक को लगातार असुविधा की स्थिति में रखती है। यह असुविधा ही वास्तव में उनकी रचनात्मकता का सबसे मानवीय पक्ष है, क्योंकि वही हमें जड़ होने से बचाती है। उनकी कविता आराम नहीं देती, उनकी पत्रकारिता आश्वासन नहीं देती; वे केवल सत्य के पास ले जाकर हमें स्वयं से सामना करने को विवश करते हैं। यही उनका सबसे बड़ा योगदान है—एक ऐसा लेखन, जो न सिर्फ दुनिया को देखने का ढंग बदलता है, बल्कि हमें अपने भीतर मौजूद डर, समझौते और संभावनाओं को भी पहली बार सही अर्थों में देखने की क्षमता देता है।


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