
लोकसभा में गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के बीच चुनाव सुधारों पर बहस के दौरान जिस प्रकार क्रोध का लेन देन हुआ वह हमारे लोकतंत्र को भयभीत करने वाला है। राजनीति में क्रोध आमतौर पर दो स्थितियों में पैदा होता है। एक क्रोध राजसत्ता के मद से आता है। जो अपने प्रतिपक्षी को शत्रु समझता है और उसे नष्ट कर देने के लिए राजनीति के विभिन्न उपकरणों का प्रयोग करता है। अगर उससे काम नहीं बनता तो आखिर में हथियार उठाता है। इसे हम राजसी कह सकते हैं और तामसी भी। क्रोध का दूसरा पक्ष अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध उत्पन्न होता है। इसमें राजसी प्रवृत्ति होती है लेकिन यह सात्विक भी हो सकता है। अन्यायी और अत्याचारी सत्ता के विरुद्ध भारत समेत पूरी दुनिया के चिंतन में प्रतिरोध का सुझाव दिया गया है। निश्चित तौर पर उस प्रतिरोध में क्रोध होता है और प्रतिपक्ष को उसे व्यक्त करने के अपने हथियार चुनने होते हैं। एक तीसरे किस्म का क्रोध होता है जो किसी गलतफहमी या न्याय अन्याय का सही विवेक न होने से पैदा होता है। पक्ष और प्रतिपक्ष द्वारा एक दूसरे को सही तरीके से न समझ पाने के कारण पैदा होता है। यानी संदेह के गंभीर वातावरण से पैदा होता है।
सवाल उठता है कि भारत के गृहमंत्री को किस बात की कमी है कि वे सदन में दुर्वासा और परशुराम की तरह क्रोधित हुए? भारत की सत्ता पर वे जिस तरह से काबिज हैं उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि किसी चक्रवर्ती सम्राट के पास भी शायद ऐसी सत्ता रही हो। यही नहीं देश के अगर कुछ हिस्से उनकी सत्ता की छतरी से बाहर हैं तो उन्हें भी वे शीघ्र ही अपने दायरे में लाने के लिए सक्रिय हैं। नेता प्रतिपक्ष के क्रोध का एक कारण तो कांग्रेस पार्टी का 12 साल से सत्ता से बाहर होने में निहित है। लेकिन क्या उनके क्रोध का कारण सिर्फ यही है या उनके क्रोध के पीछे व्यक्तिगत या पार्टीगत कारण से भिन्न समष्टिगत कारण भी है? जाहिर है कि वे संविधान के मूल्यों की अवहेलना को उसका प्रमुख कारण बताते हैं।
क्रोध हमारे पौराणिक इतिहास में भी है और आधुनिक इतिहास में भी। लेकिन जहां उन्हें संचालित और नियमित करने वाला विवेक है वहां सभ्यता की प्रगति होती है और जहां नहीं हैं वहां विनाश होता है। महाभारत में क्रोध कौरवों की ओर भी था और पांडवों की ओर भी था। लेकिन पांडवों की ओर से क्रोध को नियंत्रित और संचालित करने वाले युद्धिष्ठिर और कृष्ण थे जबकि कौरवों की ओर से क्रोध को नियंत्रित करने वाली विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसी शक्तियां निरंतर विफल होती रहीं। दुर्योधन कहता भी है कि क्या करूं क्रोध(ईर्ष्या जनित) का अश्व मुझसे सधता ही नहीं। फिर भी विद्वानों का मत है कि समग्रता में महाभारत का रस शांत रस है। लगभग यही स्थितियां रामायण में भी हैं। वहां रावण के अहंकार जनित क्रोध को शांत करने वाला कोई नहीं है। शांत करने की कोशिश में माल्यवान और मंदोदरी दरकिनार कर दिए जाते हैं और विभीषण को तो राजनिकाला ही दे दिया जाता है। राम निरंतर अपने छोटे भाई लक्ष्मण के क्रोध को शांत करते रहते हैं और स्वयं विकट से विकट स्थितियों में संयम और विनय को खोते नहीं हैं। इसीलिए उनकी विजय होती है और उनके लौटने से पहले भी अयोध्या भरत जैसे राजा के शासन में रहता है जिसे तनिक भी राजमद नहीं है।
तुलसी के रामायण में और विशेषकर राम की तरफ इतना शांत रस है कि डॉ राम मनोहर लोहिया उससे ऊब जाते हैं। वे कहते हैं कि “कभी-कभी तो अति होती है। तुलसी के रामायण में प्रायः सभी अच्छे पात्र बहुत ज्यादा अश्रुलोचन हैं। राम की आंखों में हमेशा आंसू छलकते रहते हैं।……….इसमें खतरा है। एक तरफ विडंबना का और दूसरी तरफ निर्जीवता का।…..यहां गोता लगाना ठीक नहीं होता। यहां तो आदमी डूबता है।” डॉ लोहिया अपने प्रसिद्ध भाषण ‘निराशा के कर्तव्य’ में इसी डूब जाने और निर्जीव हो जाने से चिंतित हैं। इसलिए वे देश और दुनिया से सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अन्याय से लड़ने के लिए अशांत होने का आह्वान करते हैं।
डॉ लोहिया की इसी संघर्षशीलता का वर्णन करते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था—-
ओ मेरे देशवासियों
एक चिन्गारी और
बर्फ में पड़ी गीली लकड़ियां
अपना तिल तिल जलाकर
वह गरमाता रहा
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
खत्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिन्गारी और
जो खाक कर दे दुर्नीति को
ढोंगी व्यवस्था को
कायर नीति को
मूढ़ मति को
मिटा दे दैन्य शोक, व्याधि
ओ मेरे देशवासियों यही है उसकी समाधि।
गुलाम भारत में क्रांतिकारियों ने तो आजाद भारत में साम्यवादियों और समाजवादियों ने अन्याय और दुर्नीति के विरुद्ध अपने क्रोध की सशक्त अभिव्यक्ति की थी। पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में वह क्रोध इतना प्रबल था कि लगता था कि इस व्यवस्था को पलट कर नई व्यवस्था का निर्माण कर ही डालेगा। लेकिन वैसा हो न सका। सत्ता के मद में चूर राजनेताओं का क्रोध हावी हो गया। या यूं कहें कि पूंजीवाद का प्रबंधन प्रबल था। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उस क्रोध का कई मोर्चों पर गहरा असर रहा। जयप्रकाश का आंदोलन उसी क्रोध की समवेत अभिव्यक्ति थी। जिसके साथ अगर एक ओर अपनी पहचान के लिए लालायित संघ परिवार था तो दूसरी ओर व्यवस्था बदलने और अहिंसक क्रांति के माध्यम से नई व्यवस्था लाने की कोशिश में जुटी युवा शक्ति भी सक्रिय थी। उसी के बाजू में हिंसक क्रांति की कोशिशें भी हो रही थीं। उस समय के मशहूर कवि धूमिल, नागार्जुन दुष्यंत कुमार और धर्मवीर भारती की कविताएं उस क्रोध को अभिव्यक्त करती हैं।
क्रोध का यह अश्व भारत के इतिहास में समय समय पर दोनों ओर से बहुत तेजी से दौड़ा है। उसने कहीं क्रांतियां की हैं तो कहीं प्रतिक्रांतियां की हैं। डॉ आंबेडकर अपने ‘रिवोल्यूशन एंड काउंटर रिवोल्यूशन’ नामक पुस्तक में इसका वर्णन करते हैं। इस तरह की बात मानवेंद्र नाथ राय भी करते हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास में छह दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में एक प्रतिक्रांति हुई थी और वहां एक योजना के तहत क्रोध के अश्व को खुला छोड़ दिया गया था जो आज तक भारत वर्ष में अश्वमेध यज्ञ ठाने हुए है। भारत के गृहमंत्री का क्रोध उसी का विस्तार है। रक्षा मंत्री का क्रोध भी उसी का विस्तार है। दूसरी और डॉ आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण और डॉ लोहिया और वामपंथी क्रोध की भी एक परंपरा है।
वहां सीता का क्रोध है, द्रौपदी का क्रोध है, राम का क्रोध है, युद्धिष्ठिर का क्रोध है और वहां एकलव्य और शंबुक का भी क्रोध है। लेकिन उनका अश्व बार बार पकड़ कर बांध लिया जाता है। राजनीतिक क्रोध के इस अश्व को आधुनिक भारत में साधने का दर्शन और रणनीति महात्मा गांधी ने विकसित की थी। गांधी का सत्याग्रह असत्य और अन्याय के विरुद्ध भारतीय सभ्यता और थोड़ा बढ़ाकर कहें तो मानव सभ्यता के क्रोध की एक सर्जनात्मक और संयमित अभिव्यक्ति थी। कृष्णनाथ जैसे विद्वानों का मानना है कि सत्याग्रह में क्रोध का तत्व था। लेकिन वह बेहद अनुशासित था। महात्मा गांधी के क्रोध की खासियत यह थी कि वे दूसरे के क्रोध को भी समझते थे और उसके वास्तविक कारण को संबोधित करने की कोशिश करते थे। गांधी कोई बादशाह और शासक नहीं थे। हालांकि उनका प्रभाव और महत्त्व किसी बादशाह से कम नहीं था। दूसरे के क्रोध को समझने की इसी कोशिश में वे डॉ आंबेडकर की आलोचना को संबोधित करते हुए कहते थे कि हम लोगों ने उनके लोगों पर इतना अत्याचार किया है कि अगर वे हमारे मुंह पर थूक भी दें तो गलत नहीं होगा।
लेकिन क्रोध पर काबू पाने का गांधी का तरीका सत्ता और निजी संपत्ति पर आधारित निजी संबंधों में बदलाव और अपने भीतर की आध्यात्मिक साधना पर आधारित था। गांधी समझते थे कि अगर गुस्सा और नफरत की आग हमारे घर में सुलगती रहेगी तो उसे हम बाहर निकल कर बुझा नहीं सकते। ‘गांधी द मैन’ नाम से गांधी की एक सुंदर जीवनी लिखने वाले एकनाथ ईश्वरन कहते हैं , “ गांधी की अहिंसा को हम सामाजिक परिवर्तन की एक तकनीक या राजनीतिक औजार उतना नहीं कह सकते जितना यह कह सकते हैं कि वह एक आवश्यक कला है, शायद सभ्यता की आवश्यक कला है। ….दूसरे शब्दों में अहिंसा एक कौशल है, वैसे जैसे पढ़ना एक कौशल है। क्षमा एक कौशल है। प्रेम एक कौशल है। क्रोध को परिवर्तन करना भी एक कौशल है। हम सब इसे सीख सकते हैं। हम यह नहीं कह सकते कि हम इसे सीखने में सक्षम नहीं हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि हम उसे सीखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।”
डॉ आंबेडकर ने भी लोकतंत्र को पारस्परिकता की एक संस्कृति कहा है न कि पुलिस और फौज की शक्ति से संपन्न संस्थाओं की एक व्यवस्था। लेकिन हमारी संसद में गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के आचरण ने इन विश्वासों को भयभीत कर दिया है। अगर लोकतंत्र में क्रोध के शमन की कला नहीं सीखी गई तो आने वाला समय हम भारत के लोगों के लिए कष्टकारी होने वाला है।
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