राज नारायण: राजनीति की बेचैनी और साहस की स्मृति

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Russia-Ukraine war and Rajnarayan!

Parichay Das

— परिचय दास —

राज नारायण की पुण्य-तिथि पर उन्हें याद करना किसी स्मारक के सामने खड़े होकर पुष्प अर्पित करना नहीं है; यह उस नैतिक बेचैनी को स्मरण करना है जो सत्ता के सामने निर्भीक खड़ी हो जाती है और जिसे किसी पद, सुविधा या वैचारिक जड़ता से साधा नहीं जा सकता। वे राजनीति में एक व्यक्ति नहीं, एक प्रश्न थे—लगातार, असुविधाजनक और अनुत्तरित। उनकी स्मृति किसी तिथि में सीमित नहीं होती, फिर भी पुण्य-तिथि पर उनका नाम उच्चारित करते ही राजनीति के भीतर छिपी हुई मनुष्यता, व्यंग्य, करुणा और जिद एक साथ उपस्थित हो जाती है।

उनकी राजनीति भाषणों की चमक से नहीं बनी थी। उसमें देहात की धूल थी, गन्ने के खेतों की गंध थी, पसीने से भीगे हुए कपड़ों की सादगी थी। वे सत्ता के गलियारों में भी ऐसे चलते थे जैसे किसी कच्चे रास्ते पर चल रहे हों—बिना भय, बिना संकोच और बिना यह सोचे कि जूते पर कितनी मिट्टी लग रही है। उनके लिए राजनीति कोई शिष्टाचार नहीं बल्कि जीवन की अनगढ़ सच्चाई थी। वे संसद में खड़े होकर भी किसान की तरह बोलते थे और किसान के बीच बैठकर भी संसद की तरह सवाल उठाते थे।

राज नारायण का जीवन इस अर्थ में काव्यात्मक है कि उसमें कोई सजावट नहीं थी। उनका गद्य भी कविता जैसा लगता है, क्योंकि उसमें भावनाओं की लय थी, नैतिक आग्रह का छंद था और विद्रोह की तुक। वे जब बोलते थे, तो शब्द नहीं, अनुभव निकलते थे। उनकी आवाज़ में न तो अभ्यास की चिकनाहट थी, न ही वक्तृत्व का प्रदर्शन। उसमें असहमति की खुरदरी सच्चाई थी जो सुनने वाले को चौंकाती भी थी और असहज भी करती थी।

उनका सबसे बड़ा योगदान किसी एक राजनीतिक घटना तक सीमित नहीं है, फिर भी जब उन्हें याद किया जाता है, तो एक ऐतिहासिक मुक़ाबला बार-बार स्मृति में लौट आता है लेकिन उस मुक़ाबले को केवल सत्ता-परिवर्तन के रूप में देखना, राज नारायण के व्यक्तित्व के साथ अन्याय होगा। वह संघर्ष दरअसल नागरिक की आत्मा का संघर्ष था—उस आत्मा का, जो लोकतंत्र को केवल मतदान की प्रक्रिया नहीं बल्कि नैतिक उत्तरदायित्व मानती है। वे सत्ता के विरुद्ध नहीं थे; वे सत्ता के भीतर पलने वाली निरंकुशता के विरुद्ध थे।

उनकी विनोदप्रियता भी उनकी राजनीति का ही हिस्सा थी। वे गंभीर सवालों को भी इस तरह रख देते थे कि हँसी और चोट एक साथ लगती थी। व्यंग्य उनके लिए हथियार नहीं बल्कि आत्मरक्षा का साधन था। वे जानते थे कि सत्ता व्यंग्य से डरती है क्योंकि व्यंग्य उसके कृत्रिम गंभीर चेहरे को बेनकाब कर देता है। राज नारायण का व्यंग्य किसी साहित्यिक मंच से नहीं बल्कि जीवन की गहराई से उपजा था।

उनका समाजवाद किताबों का समाजवाद नहीं था। वह भूख, अपमान और असमानता से उपजा हुआ समाजवाद था। उसमें नारे कम थे, बेचैनी अधिक थी। वे गरीब के लिए बोलते नहीं थे; वे गरीब के भीतर से बोलते थे। शायद इसी कारण उनकी भाषा कभी-कभी अव्यवस्थित लगती थी लेकिन उसी अव्यवस्था में जीवन की सच्चाई धड़कती थी। वे अनुशासनप्रिय विचारधाराओं के लिए हमेशा असहज रहे क्योंकि वे मनुष्य को किसी ढाँचे में बंद करने के पक्ष में नहीं थे।

राज नारायण की पुण्य-तिथि पर यह भी याद आता है कि वे सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के नहीं हुए। उनके पास अवसर थे, समझौते थे, रास्ते खुले थे—लेकिन उन्होंने सुविधा की राजनीति नहीं चुनी। वे बार-बार हारे लेकिन हर हार में उनकी नैतिक जीत छिपी थी। वे जानते थे कि चुनाव हारना उतना बड़ा संकट नहीं है जितना आत्मा का हार जाना। उनकी राजनीति आत्मा की राजनीति थी, और यही उसे स्थायी बनाती है।

उनका व्यक्तित्व विरोधाभासों से भरा था। वे जिद्दी भी थे और कोमल भी। वे उग्र भी थे और करुणामय भी। वे व्यवस्था को चुनौती देते थे लेकिन मनुष्य को कभी खारिज नहीं करते थे। उनके भीतर का विद्रोही किसी को नष्ट नहीं करना चाहता था; वह केवल झूठ को उजागर करना चाहता था। इसीलिए वे अपने विरोधियों के प्रति भी एक मानवीय दूरी बनाए रखते थे—कटुता नहीं बल्कि प्रश्नवाचक निगाह।

उनकी मृत्यु के बाद राजनीति और अधिक पेशेवर हो गई। भाषा अधिक चिकनी, चेहरे अधिक प्रशिक्षित और विचार अधिक सुरक्षित हो गए। ऐसे समय में राज नारायण की स्मृति एक असुविधा की तरह सामने आती है। वह पूछती है—क्या आज भी कोई ऐसा है, जो हारने के डर के बिना सच बोल सके? क्या आज भी कोई ऐसा है जो सत्ता के निकट जाकर भी उससे दूरी बनाए रख सके? उनकी पुण्य-तिथि केवल श्रद्धांजलि नहीं, आत्मपरीक्षा का दिन बन जाती है।

वे किसी विचारधारा के बंधक नहीं थे, इसलिए किसी एक खांचे में फिट नहीं होते। यही कारण है कि उन्हें याद करना आसान नहीं है। वे पाठ्यक्रमों में सीमित नहीं किए जा सकते, न ही पोस्टरों में समेटे जा सकते हैं। वे स्मृति में तभी जीवित रहते हैं, जब हम असहमति की संस्कृति को जीवित रखते हैं। उनकी असली विरासत कोई संस्था नहीं बल्कि वह साहस है, जो सवाल पूछने से पैदा होता है।

राज नारायण की राजनीति में नैतिकता कोई अमूर्त मूल्य नहीं थी; वह रोज़मर्रा का अभ्यास थी। वे जानते थे कि नैतिकता का अर्थ पवित्र दिखना नहीं बल्कि जोखिम उठाना है। जोखिम—अपनी छवि का, अपने करियर का, और कभी-कभी अपने अकेलेपन का भी। वे इस अकेलेपन से डरते नहीं थे। शायद इसलिए वे भीड़ में भी अकेले दिखते थे और अकेले में भी बहुसंख्यक।

उनकी पुण्य-तिथि पर उन्हें याद करते हुए यह भी महसूस होता है कि आज राजनीति में स्मृति का संकट है। हम जल्दी भूल जाते हैं। हम उन लोगों को याद रखना चाहते हैं जो हमें सहज लगते हैं, जो हमें असुविधा में नहीं डालते। राज नारायण सहज नहीं थे। वे हमें हमारी चुप्पी का एहसास कराते हैं। वे पूछते हैं कि हम सत्ता से क्या अपेक्षा रखते हैं और उससे भी अधिक—हम स्वयं से क्या अपेक्षा रखते हैं।

उनकी भाषा में देहातीपन था लेकिन उसमें कोई हीनता नहीं थी। वह देहातीपन दरअसल जड़ों से जुड़ाव था। वे जानते थे कि लोकतंत्र की जड़ें गाँवों में हैं, गलियों में हैं, उन चेहरों में हैं, जिन्हें अक्सर राजनीति केवल संख्या समझती है। राज नारायण उन चेहरों को नाम देना चाहते थे, आवाज़ देना चाहते थे।

उनकी याद एक तरह का नैतिक अवरोध है—एक स्पीड ब्रेकर, जिस पर राजनीति को रुककर सोचना चाहिए। उनकी पुण्य-तिथि हमें यह याद दिलाती है कि लोकतंत्र केवल संस्थाओं से नहीं चलता; वह व्यक्तियों के साहस से चलता है। जब तक ऐसे व्यक्ति रहेंगे तब तक लोकतंत्र साँस लेता रहेगा।

राज नारायण अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी बेचैनी हमारे भीतर जीवित रह सकती है। वह बेचैनी जो हमें प्रश्न करने के लिए विवश करती है जो हमें असुविधाजनक सच की ओर धकेलती है और जो हमें यह याद दिलाती है कि राजनीति अंततः मनुष्य की गरिमा का प्रश्न है। उनकी पुण्य-तिथि किसी अंत का बोध नहीं कराती; वह एक अधूरा प्रश्न छोड़ जाती है—क्या हम उस साहस के योग्य हैं, जिसे उन्होंने अपने जीवन में जिया?

उनकी स्मृति धूप की तरह है—नरम भी, तीखी भी। वह गर्मी देती है लेकिन जलाती भी है और शायद यही किसी सच्चे जननेता की पहचान है कि उसकी याद आराम नहीं देती बल्कि जिम्मेदारी सौंपती है। राज नारायण की पुण्य-तिथि पर यही जिम्मेदारी सबसे बड़ा श्रद्धांजलि-पुष्प है।


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