— अरुण कुमार त्रिपाठी —
पांचों राज्यों के चुनाव परिणामों की घोषणाओं के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए साफ शब्दों में कहा कि इससे 2024 के परिणाम तय हो गए। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि अब बिना एक पल गंवाए आपको विजय के लिए जुट जाना है। इसे उन्होंने आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष की बड़ी उपलब्धि बताया और कहा कि इससे भारत के भविष्य की दिशा तय हो गयी। उन्होंने संकेत दिया है कि इस देश से परिवारवादी दलों का समापन हो के रहेगा और भ्रष्टाचारियों को अब कोई बचा नहीं सकेगा। न ही धर्म के नाम पर और न ही संविधान के नाम पर। उन्होंने गरीबों तक योजनाएं पहुंचाते जाने का एलान किया।
होना तो यह चाहिए था कि इसी के प्रतिउत्तर में तत्काल नहीं तो देर-सबेर विपक्ष भी एकजुट होकर यह एलान करता कि 2022 में भले भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगी पार्टी के रूप में उभर रही आम आदमी पार्टी ने चुनाव जीत लिया हो लेकिन हम उसे 2024 का चुनाव इतनी आसानी से नहीं जीतने देंगे। लेकिन दिक्कत यह है कि विपक्ष गहरे सदमे में है। वह आत्मालोचना, पुनर्गठन और एकजुट होने में इतना समय लगाएगा कि तब तक 2024 आ जाएगा।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधानसभा के चुनाव परिणामों के संदेश साफ हैं कि भारतीय राजनीति पर भारतीय जनता पार्टी का दबदबा कायम है और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी एक विकल्प के रूप में खड़ी हो पाने में असमर्थ है।
अगर 2023 में होनेवाले राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस को हार और भारतीय जनता पार्टी को जीत मिलती है तो कांग्रेस पार्टी आज से भी ज्यादा कमजोर होगी और भारतीय लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई में कोई भूमिका निभा पाने में नाकाम हो जाएगी। तब शायद मोदी और अमित शाह ज्यादा जोर-शोर से घोषणा कर सकेंगे कि हमने कांग्रेसमुक्त भारत बना दिया। लेकिन इसी के साथ दूसरी घोषणा भी वे कर सकते हैं जिसमें कह सकते हैं कि हमने विपक्ष-मुक्त भारत बना दिया। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा उनकी जो होगी वह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की होगी।
यह सब संकेत इन चुनाव परिणामों में छुपे हुए हैं और इसे भाजपा के मुख्यालय में अपने भाषण के दौरान मोदी जी ने व्यक्त भी कर दिया है। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में तमाम प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद अपनी वापसी की है। इन राज्यों में सत्ता विरोधी वातावरण होते हुए भी दोबारा उसकी सरकार बनने जा रही है। जबकि पंजाब में सारी अनुकूल स्थितियों के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने अपनी सत्ता गंवा दी। गंवाई ही नहीं, जिस तरह से उसके तमाम बड़े नेता हारे हैं उससे उन्होंने एक तरह से नाक कटा दी। कांग्रेस के लिए तो कहा जा सकता है कि- उल्टी हो गई सब तदवीरें कुछ न दवा ने काम किया। इतने बड़े किसान आंदोलन का कांग्रेस ने खुलकर समर्थन किया, राहुल गांधी ट्रैक्टर चलाकर किसानों के बीच पहुंचे, प्रियंका गांधी ने लखीमपुर जाते समय गिरफ्तारी दी लेकिन इससे कांग्रेस को कोई फायदा नहीं मिला। उसने पहली बार राज्य में चरणजीत सिंह चन्नी जैसे दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उसका फायदा मिलने की कौन कहे, चन्नी स्वयं दो जगह से चुनाव हार गए। चुनाव कांग्रेस छोड़कर अलग पार्टी बनाकर भाजपा के साथ गए पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी हार गए और कांग्रेस के झगड़ालू प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू भी धराशायी हो गए। इतना ही नहीं, पंजाब के दिग्गज अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल भी चुनाव हार गए। उन्हें किसी बड़े नेता ने नहीं, आम आदमी पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं ने हराया।
लेकिन इससे भी ज्यादा आश्चर्य यह है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की और दिल्ली जैसे शहरी राज्य से एक अर्धशहरी और अर्धदेहाती राज्य पर कब्जा जमा लिया। हालांकि वह किसान आंदोलन के साथ छल करने में पीछे नहीं थी। वह उसे बुराड़ी के निरंकारी मैदान में कैद करना चाहती थी लेकिन कर नहीं पायी और किसानों ने दिल्ली की सीमा पर ही धरना दे दिया।
इसलिए पंजाब जो किसान आंदोलन के केंद्र में था उसने अपने आंदोलन के मुद्दों पर वोट दिया ऐसा नहीं लगता। उसने केजरीवाल की मुफ्त योजनाओं के आधार पर वोट दिया और वे योजनाएं मोदी सरकार की योजनाओं का ही एक विस्तार हैं। हालांकि वे योजनाएं तमिलनाडु की द्रमुक और अन्नाद्रमुक सरकारें और बाद में यूपीए सरकारें भी आजमा चुकी थीं।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके में किसान आंदोलन जितना प्रचंड था उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी का सफाया हो जाना चाहिए था। इसकी भविष्यवाणी भी मेघालय के गवर्नर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता सत्यपाल मलिक ने की थी। लेकिन नरेंद्र मोदी ने उन कानूनों को वापस लेकर ऐसा दांव चला कि सपा और रालोद गठबंधन को वैसी सफलता नहीं मिली जैसी मिलती दिख रही थी। उल्टे भारतीय जनता पार्टी को वैसी सफलता मिली जिसके संकेत जमीनी स्थितियां नहीं दे रही थीं। भले ही संगीत सोम और मृगांका सिंह चुनाव हार गए लेकिन भाजपा की सीटें सपा गठबंधन से ज्यादा रहीं।
सबसे बड़ी घटना इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के जनाधार के आठ प्रतिशत से ज्यादा खिसक जाने और उसकी नेता मायावती के हाशिए पर चले जाने की है। मायावती ने अपने मतदाताओं को समाजवादी पार्टी को हराने और उसके लिए भाजपा तक को वोट देने की बात कहकर जो हाराकीरी की है उसकी क्या कीमत लेंगी कहा नहीं जा सकता लेकिन दलित आंदोलन को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी।
दलित आंदोलन फिर कब और कैसे खड़ा होगा कुछ कहा नहीं जा सकता। वह एक ही स्थिति में खड़ा हो सकता है जब कांशीराम जैसा कोई नेता खड़ा हो और वह पूना पैक्ट का उसी तरह से विरोध करे जैसे आंबेडकर और कांशीराम ने किया था। दलित नेतृत्व को जिस चमचा युग से निकालने की कोशिश कांशीराम ने की थी वह फिर से लौट आया है। नया दलित नेतृत्व अगर अपने आंदोलन को चमचा युग समाप्त करने पर केंद्रित करे तो उसे उसी तरह भाजपा की जड़ें काटनी होंगी जैसे बसपा ने कांग्रेस के साथ किया था। वह कब तक होगा कहा नहीं जा सकता। फिलहाल 2024 तक तो नहीं दिखता।
लेकिन सबसे खास बात है समाजवादी पार्टी और उसके गठबंधन को सवा सौ से ज्यादा सीटें मिलना। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दलित-पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समाज के साथ जो गठजोड़ बनाया था उससे तो लग रहा था कि वे योगी और मोदी सरकार के विरुद्ध जो नाराजगी है उसकी लहर पर सवार होकर सरकार बना लेंगे। उन्हें किसान आंदोलन से बड़ी उम्मीदें थीं। उन्हें उम्मीदें थीं कोरोना काल में लोगों की परेशानी से और उन्हें बेरोजगार युवाओं से भी बड़ी आशा थी। वे सोच रहे थे कि वे 1993 की तरह से, लोहिया और आंबेडकर के कार्यक्रमों को जोड़कर, और जाति जनगणना की मांग उठाकर वैसा ही कमाल कर ले जाएंगे जैसा मुलायम सिंह और कांशीराम ने किया था। लेकिन वैसा नहीं हुआ।
बसपा और कांग्रेस का सफाया हो गया लेकिन समाजवादी पार्टी और उसके सहयोग में लगे रालोद, सुभासपा, महान दल और स्वामी प्रसाद मौर्य और ओमप्रकाश राजभर जैसे अन्य पिछड़ी जातियों के नेता सत्ता हासिल नहीं कर सके। इसकी बड़ी वजह यह है कि मोदी और अमित शाह और योगी आदित्यनाथ का नेतृत्व आडवाणी, वाजपेयी और कल्याण सिंह वाला नहीं है। वह उससे ज्यादा आक्रामक है और साम दाम दंड भेद में यकीन करता है।
अखिलेश के नेतृत्व और इस गठबंधन को जीत भले न मिली हो लेकिन इसने एक प्रकार की संभावना तो पैदा की है। उसने यह उम्मीद जगाई है कि अगर धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा, समाजवाद की विचारधारा, लोहिया और आंबेडकर की सामाजिक न्याय की विचारधारा और उसी के साथ मंडल वाली सामाजिक न्याय की जातियों का एक मुकम्मल गठजोड़ बनाया जाए तो वह हिंदुत्व का एक हद तक मुकाबला कर सकता है।
लेकिन जहां तक हिंदुत्व को हराने का मामला है तो अभी देश में कोई भी राजनीतिक शक्ति ऐसी स्थिति में नहीं दिखती जो अकेले, दुकेले या तिकेले उसे हराने का विश्वास दे सकती है। अव्वल में तो गैर-भाजपावाद का ऐसा कोई नुस्खा तैयार नहीं हो पा रहा है तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और संघ-भाजपा संगठन का मुकालबा कर सके। भाजपा के चुनाव हारने का सिलसिला जितना होता है उससे बड़ा उसकी जीत का सिलसिला हो जाता है। इसलिए उसके हारने से उसकी ऊर्जा उतनी नहीं घटती जितनी जीतने से बढ़ जाती है।
इस समय भारतीय लोकतंत्र और विपक्ष एक चौराहे पर खड़ा है। उसे मालूम नहीं कि किधर जाए। इस स्थिति से वह अकेले नहीं निपट सकता। वह तभी इससे पार पा सकता है जब संविधान की रक्षा के लिए कामायनी की उन पंक्तियों को याद करे कि ‘शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं हो निरुपाय, समन्वय उनका करें समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।’