एक उत्सवधर्मी कवि का प्रतिरोध

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छाया : भरत तिवारी


— विमल कुमार —

हिंदी साहित्य में उत्सवधर्मिता और प्रतिरोध को एक दूसरे का विलोम माना जाता रहा है यानी अगर कोई रचनाकार अपनी रचना में उत्सवधर्मिता की बात करता है उसका प्रदर्शन करता है तो वह निंदा या आलोचना का शिकार होता है। यह मान लिया जाता है कि वह प्रतिरोध की बात नहीं करेगा या अगर कोई रचनाकार प्रतिरोध की बात करता है तो उसकी रचना में उत्सवधर्मिता नहीं होगी और अगर होगी तो उसकी प्रतिबद्धता को संदेह की दृष्टि से देखा जाएगा।

शायद यही कारण है कि हिंदी साहित्य में रचनाकारों का मूल्यांकन बहुत ही एकपक्षीय और असंतुलित रहा है जिसके कारण उनका समग्र मूल्यांकन नहीं हो पाया है। हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी आलोचना की इस पद्धति के भुक्तभोगी रहे हैं और लगभग यह मान लिया गया कि वह तो उत्सवधर्मी लेखक हैं, इसलिए उनके लेखन में समाज के हाशिये के लोगों के लिए कोई चिंता नहीं होगी, कोई दर्द नहीं होगा, पीड़ा नहीं होगी और वह अपने समय के यथार्थ से बेखबर होंगे और उस यथार्थ से मुठभेड़ नहीं करते हैं। लेकिन गुजरात के दंगे और असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरस्कार वापसी अभियान का नेतृत्व करने के बाद हिंदी की दुनिया में अशोक वाजपेयी को लेकर बहुतों की राय बदली है और वह उन्हें एक ‘योद्धा’ लेखक के रूप में भी समझने बूझने लगे हैं। 24 मार्च को अशोक जी की 13 खंडों में प्रकाशित रचनावली के लोकार्पण समारोह में उपस्थित वक्ताओं ने कमोबेश यही माना। रोमिला थापर, गणेश देवी जैसे लेखकों ने उन्हें ‘फाइटर’ लेखक की संज्ञा दी। भले ही अशोक जी एक उत्सवधर्मी लेखक रहे हों लेकिन उनकी रचना में और उनके व्यक्तित्व में भी प्रतिरोध का बल दिखाई देता है और इस रूप में यह एक नए अशोक वाजपेयी का अभ्युदय हुआ है, हालांकि अभी भी कुछ संकीर्ण वामपंथी लेखक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि उन्हें अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान में शामिल किया जाए और सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी टिप्पणियां भी देखने को मिलीं।

लेकिन अशोक जी ने जिस तरह वर्तमान दक्षिणपंथी और फासीवादी सरकार के खिलाफ आवाज उठाई है उसे देखते हुए उनके रचना कर्म और व्यक्तित्व पर नए सिरे से बात करनी चाहिए।

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सभागार में हमारे समय के मशहूर बुद्धिजीवियों और चिंतकों ने 13 खण्डों में प्रकाशित इस रचनावली का लोकार्पण किया। इनमें अंतरराष्ट्रीय ख्याति के समाजशास्त्री आशीष नंदी, जानी-मानी इतिहासकार रोमिला थापर, भाषाविद गणेश देवी के अलावा प्रसिद्ब कवि-चित्रकार गुलाम मोहम्मद शेख, और दार्शनिक रोमिन जहाँ बेगलू शामिल थे।

श्रीमती थापर ने अशोक वाजपेयी को देश में संस्कृति का रक्षक और पुरस्कार वापसी का प्रणेता बताते हुए उन्हें प्रतिरोध का लेखक कहा और उनके योगदान की चर्चा की।

सभी वक्ताओं ने उन्हें देश में सांस्कृतिक संस्थाओं के निर्माण में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को भी रेखंकित किया।

करीब सात हजार पृष्ठों की इस रचनावली में अशोक वाजपेयी के करीब 60 वर्ष के रचनाकाल की सारी सामग्री है। इसमें कविता, आलोचना, पत्र, आत्मवृत्त, स्तम्भ, अनुवाद, संस्मरण आदि शामिल हैं।

इसमें अंग्रेजी में लिखे गए उनके लेखों को शामिल नहीं किया गया है। 1941 को दुर्ग में जनमे अशोक वाजपेयी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं। 1966 में उनका पहला कविता संग्रह “शहर अब भी संभावना” प्रकाशित हुआ था। अब तक उनके सत्रह कविता संग्रह आ चुके हैं। इसके अलावा उनकी चुनी हुई कविताओं के की संचयन भी हैं। उनकी कविताओं के अनेक भारतीय भाषाओं और कई यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं और कई पुस्तकाकार अनुवाद भी छपे हैं। उनकी आठ आलोचना पुस्तकें हैं। कला पर उन्होंने हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखा है। उनका लोकप्रिय स्तंभ ‘कभी कभार’ शायद हिंदी में निरंतर सबसे लंबे समय तक चलने वाला स्तंभ होगा। रचनावली के कई खंड इस स्तंभ के तहत लिखी गयी टिप्पणियों से ही बने हैं। जाहिर है अशोक वाजपेयी का लेखन विपुल, की विधाओं में और अनेक-आयामी है। वह एक अथक लेखक हैं।

वह भारत भवन के संस्थापक रहे हैं। ललित कला अकेडमी के पूर्व अध्यक्ष और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय संस्थापक कुलपति भी रहे।

अशोक वाजपेयी की रचनावली का प्रकाशन हिंदी साहित्य एक अनोखी घटना है क्योंकि आमतौर पर लेखकों के निधन के उपरांत ही उनकी रचनावलियाँ छपी हैं। खुद अशोक जी के ससुर और तारसप्तक के कवि एवं नाट्यालोचक नेमिचन्द्र जैन की रचनावली भी उनके निधन के दो दशक बाद आयी। हालांकि इसके कुछ विरल अपवाद भी हैं। इस बात को अशोक जी ने स्वीकारा भी कि हिंदी में मरणोपरांत रचनावलियों के प्रकाशन की परंपरा रही है। साथ ही उन्होंने यह भी विश्वास व्यक्त किया कि वह अभी और रचनारत रहेंगे। इस अवसर पर वक्ताओं ने भी यह उम्मीद जताई कि अशोक जी और लिखेंगे और उनकी इस रचनावली का फिर से संस्करण निकलना होगा।

आजादी के बाद रचनावली छपवाने का पहला उपक्रम प्रख्यात समाजवादी लेखक एवं स्वतंत्रता सेनानी रामवृक्ष बेनीपुरी ने किया था और उसके दो खण्ड निकले थे लेकिन वह अपनी योजना को पूरा नहीं कर पाये। अलबत्ता उनकी जन्मशती के मौके पर सुरेश शर्मा के संपादन में बेनीपुरी रचनावली निकली। तब रामविलास शर्मा ने बेनीपुरी का नए सिरे से मूल्यांकन किया।

हिंदी में रचनावली निकालने का दूसरा उपक्रम बिहार सरकार ने किया जब हिंदी गद्य के निर्माता आचार्य शिवपूजन सहाय बीमार पड़ गए तो उनकी आर्थिक मदद के लिए 4 खण्डों में उनकी रचनावली निकली क्योंकि शिवपूजन जी ने राज्य सरकार से आर्थिक मदद लेने से मना कर दिया था। उनकी जन्मशती के अवसर पर उनका दस खण्डों में समग्र निकला और तब नामवर सिंह को कहना पड़ा कि हिंदी साहित्य के 50 वर्षों के निर्माण के पीछे शिवपूजन जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है यानी रचनावलियों से लेखकों का पुनर्मूल्यांकन भी होता है।

इसके बाद सत्तर के दशक में मुक्तिबोध रचनावली से हिंदी में रचनावलियाँ निकालने की परंपरा शुरू हुई और उसके बाद से बहुत सी रचनावलियाँ निकलीं क्योंकि सरकारी खरीद में प्रकाशकों को रचनावलियों से कमाई होने लगी।

लेकिन जीते-जी गिने-चुने लेखकों की ही रचनावलियाँ निकलीं। हिंदी के लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन की रचनावली भी उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुई थी और उसका लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था और समारोह की अध्यक्षता नामवर सिंह ने की थी।

दसेक साल पहले हिंदी के वरिष्ठ कवि रामदरश मिश्र की भी रचनावली छपी थी। इस दृष्टि से देखा जाए तो अशोक जी की रचनावाली का आना हिंदी साहित्य में एक यादगार घटना की तरह है।

रचनावली लोकार्पण के अवसर पर बोलते हुए अशोक वाजपेयी, मंच पर बायें से अपूर्वानंद, रोमिला थापर, रचनावली संपादक अमिताभ राय, गुलाम मोहम्मद शेख, आशीष नंदी, गणेश देवी, रामीन जहांबेगलू

श्री वाजपेयी 1960 से लेकर अब तक साहित्य व संस्कृति के मोर्चे पर लगातार सक्रिय रहे हैं और अब तो वह अपने आप में एक संस्था हैं। आजादी के बाद जिन गिने-चुने लेखकों ने हिंदी साहित्य का नेतृत्व किया अशोक जी उनमें से एक हैं और 82 वर्ष की उम्र में युवा लेखकों को तराशने में लगे हैं। अशोक वाजपेयी वैचारिक आग्रहों और अपनी कुलीन सौन्दर्याभिरुचि की वजह से विवादों के घेरे में भी रहे हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उनकी सक्रियता और जनपक्षधरता के नए आयाम भी सामने आए हैं। उन्होंने पुरस्कार वापसी और असहिष्णुता के मुद्दे पर हिंदी के लेखक समाज का नेतृत्व किया जो काबिलेतारीफ है और उससे लोगों को नयी प्रेरणा मिली है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि यह रचनावली अशोक जी को सभी पहलुओं से देख पाने, उनपर समग्रता से विचार करने और शायद कुछ लोगों के लिए उनपर पुनर्विचार करने में भी मददगार साबित होगी।

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