— हिमांशु जोशी —
ओलंपिक शुरू होते ही भारतीयों को अपने गिने-चुने खिलाड़ियों से काफी उम्मीदें होती हैं पर हर बार ओलंपिक खत्म होते-होते कहानी एक सी होती है। भारत से क्षेत्रफल की दृष्टि और आबादी में काफी कम अन्य देश भारत से कहीं ज्यादा पदक जीतकर पदक तालिका में भारत से ऊपर रहते हैं। मारे शर्म के हम एक-दो दिन तो भारत की खेल व्यवस्था पर जमकर बातचीत करते हैं लेकिन फिर सब भूल जाते हैं।
इतने विशाल देश में खेल प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है पर मौका न मिलने की वजह से हम मैरीकॉम और साक्षी मलिक जैसे एक-दो नाम ही सुन पाते हैं जो गरीबी में रहकर भी हीरे से चमकते हैं।
मैंने हमेशा से चाहा है कि इस विषय पर ज्यादा बात हो, पिछड़े इलाके में रहनेवाली खेल प्रतिभाओं को मौका देने के लिए सरकार ऐसे जमीनी कदम उठाए कि हमारा देश खेलों में खूब नाम कमाए।
पिछले दिनों समाचार वेब पोर्टल सबलोग में पत्रकार रूबी सरकार की एक खबर आयी थी कि मध्यप्रदेश के हरदा जिले में आजकल आदिवासी लड़कियों का क्रिकेट टूर्नामेंट चल रहा है, जो काफी चर्चा पा रहा है। कुछ ऐसी ही कहानी बॉलीवुड की नयी आमद ‘झुंड’ की भी है।
अभावों के बीच कहीं खो रही खेल प्रतिभाओं पर बात करने के लिए निर्देशक नागराज मंजुले बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ ‘झुंड’ फिल्म दर्शकों के सामने लाए हैं। नागराज मंजुले की जातिवाद विषय पर आधारित फिल्म ‘सैराट’ साल 2016 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में विशेष उल्लेख पुरस्कार जीत चुकी है।
‘झुंड’ विषय आधारित फिल्म है, निर्देशक फिल्म में बाबासाहेब आंबेडकर के ‘सभी को समानता का अधिकार’ विषय को मुख्य रूप से दिखाना चाहते थे। मौका न मिलने पर खत्म होती खेल प्रतिभाओं के साथ, प्रौढ़ शिक्षा, अकेली मां की समस्याओं के विषय को भी फिल्म में दिखाया गया है।दूरदराज क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों के सामने अपनी पहचान साबित करने की कितनी परेशानी है इस पर फिल्म में काफी समय दिया गया है।
अमिताभ की दमदार आवाज के साथ फिल्म की शुरुआत होती है, अपने गम्भीर हावभाव से ही दर्शकों के बीच जगह बना लेना ही अमिताभ के अभिनय का प्लस प्वाइंट है।प्रोफेसर के पद से रिटायर होते होते झुग्गियों में रहनेवाले युवाओं को फुटबॉल सिखाते अमिताभ ने एक कोच के किरदार को पूरी तरह से डूबकर निभाया है।
पहले हाफ में फिल्म की स्क्रिप्ट में कमी लगी, यह विषय के अनुसार गम्भीर प्रभाव डालने में कामयाब नहीं हुई है। कहीं कहीं पर यह लगा कि फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर की टाइमिंग ठीक नहीं रही।
कहानी के शुरुआती एक घण्टे तक अमिताभ को छोड़ कोई भी कलाकार प्रभाव नहीं छोड़ता पर उसके बाद अमिताभ ने अपने साथ फिल्म की पूरी टीम से भी अच्छा अभिनय करवाया है, जिनमें अंकुश गेदाम विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म की स्क्रिप्ट भी कसी हुई है और कहानी भी तेज चलती है।
फिल्म में कोई भी गाना ऐसा नहीं लगा जो लोगों की जुबान पर लंबे समय तक रहेगा। टिन डब्बा बजा निर्देशक ने दर्शकों को उसी संगीत की याद दिलाई है जो भारत की झुग्गियों में बजता है। छायांकन की बात की जाए तो तेजी से मूव करता कैमरा अच्छा लगता है। फुटबॉल मैच को बेहतरीन तरीके से दिखा पाना बड़ा मुश्किल काम है पर फिल्म में यह काम बड़ी खूबी से किया गया है।
निर्देशक ने फुटबॉल का दूसरा हाफ अच्छा बनाया है और फुटबॉल मैच के बाद अमिताभ बच्चन के घरवाला दृश्य फिल्म का सबसे महत्त्वपूर्ण दृश्य है। इस दृश्य को देख आपको रंगीन बाल रंगे सड़क पर कूड़ा उठानेवाले, वाहनों का शीशा साफ करनेवाले चेहरे याद आ जाएंगे और शायद आप उनसे मुंह न फेर उनकी कहानी सुनने लगेंगे।
टपोरी भाषा के प्रयोग की वजह से फिल्म आपको अपने बीच की ही लगेगी और झुग्गी में रहनेवाले लोगों की तरह ही फिल्म के कलाकारों का किया गया मेकअप भी कमाल का है। कुछ संवाद दिल से सुने जाएं तो बड़ा गहरा असर छोड़ते हैं। जैसे ‘अबे ए नशापन्ती हम अपने पैसे की कर रहे हैं’ संवाद नशा करनेवालों के बीच आम है। ‘बाप तेरा खाने तो नही जाते हम कमाने को’ गरीब बच्चों की मजबूरी दिखाता है।
निर्देशक फिल्म में उठाए गए इतने विषयों में से किसी एक विषय पर केंद्रित रखकर फिल्म बनाते तो और बेहतर रहता। फिर भी हमें इस बात का जश्न मनाना होगा कि बॉलीवुड में विषय आधारित फिल्में बन रही हैं और उनमें अमिताभ जैसे बड़े अभिनेता शामिल हो रहे हैं।
फिल्म में उठाए गए कई विषयों पर विचार करने के साथ ही फिल्म के अंत में अमिताभ का कोर्टरूम वाला दृश्य, वे वजह हैं जिनकी वजह से ‘झुंड’ एक बार देखी जा सकती है।
फिल्म- झुंड
निर्देशक- नागराज मंजुले
छायांकन- सुधाकर रेड्डी यक्कांति
अभिनय- अमिताभ बच्चन, अंकुश गेदाम
मेकअप- समीर कदम