लाल्टू के कथा देश में

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— शर्मिला जालान —

र्षों से लाल्टू हैदराबाद में हैं और मुख्य धारा से दूर सतत लेखन कर्म से जुड़े हुए हैं। उनकी साहित्यिक और सांस्कृतिक जगत में ‘अपनी’ पहचान है। लाल्टू ने अपने लेखन की शुरुआत कहानियों से की थी और पिछले चार दशकों में इन्होने लगभग पचास कहानियाँ लिखी हैं जो ‘घुघनी’ और नए कहानी संग्रह चुनिन्दा कहानियाँ में संकलित हैं। कथाकार के साथ ही साथ वे उम्दा कवि हैं, नाटक लिखे हैं, अनुवाद कर्म किया है और बच्चों के लिए कविताएं भी लिखी हैं।

लाल्टू की कहानियों में एक दृष्टि है जो सामान्य हिंदी कहानियों से अलग है। पिछले दिनों उनकी ‘चुनिंदा कहानियों’ को पढ़ा। जिसमें बाईस कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ नगरीय और ग्रामीण दोनों जीवन की हैं और दोनों जीवन के चरित्र और पात्रों को, पंजाब के ग्रामीण माहौल को रच-बस कर लिखा है।

इन कहानियों में धर्म, समाज, राजनीति और समसामयिक स्थितियों को लेकर प्रासंगिक विमर्श है, बौद्धिकता है। शिक्षा व्यवस्था, समाज व्यवस्था, राजनीतिक मूल्यों के कई जरूरी प्रश्नों को बखूबी उठाया गया है। मूल्यों पर हावी प्रपंच है। धार्मिक रूढ़ियों, अनुष्ठानों, कुरीतियों के प्रति मन में विद्रोह है। एक तरह से इन कहानियों को प्रतिरोध की कहानियाँ भी कहा जा सकता है।

लाल्टू

कहानियों की खूबी यह है कि कला, साहित्य, संगीत (देशी-विदेशी, पॉप सांग्स), फिल्मों और नाटकों के सन्दर्भों के माध्यम से मुख्य कथा के समानांतर कई और संसार खुलते जाते हैं। कहानियाँ कलेवर में छोटी होती हैं, कम पृष्ठों की, पर उनमें अकूत संदर्भ होते हैं, भारत के किसी कालखंड का समसामयिक इतिहास व तत्कालीन स्थिति दर्ज होती है। कहानियों में आए सन्दर्भों की अलग से सूची बनाई जा सकती है और उस पर अध्ययन कर नगर और ग्रामीण जीवन के पात्रों की पृष्ठभूमि, शिक्षा संस्कार और पड़ोस को गहरे जाकर जाना, समझा जा सकता है।

ये कहानियाँ आंतरिक जीवन की कहानियाँ नहीं हैं। कोई अनुभव बाहरी परिवेश से उतरकर अंदर की तरफ जाता है, जैसे कभी संवेदना में की कोई अनुभूति बाहर की तरफ से अंदर जाती है लेकिन लेखक अंदर के संसार में ज्यादा देर तक ठहर नहीं पाता, बाहर की राजनीति और बुराई उसे तुरंत फिर से बाहर लाकर खड़ा कर देती है। यहाँ पर हम देखते हैं कि उनका कथा का रूप गहरी लोकतांत्रिक भावनाओं को उजागर करता है।

इन कहानियों को कई कोणों से देखा और पढ़ा जा सकता है। अस्सी-नब्बे का दशक, नक्सल आंदोलन की घटनाएँ-दुर्घटनाएँ और साथ ही पात्रों का समानांतर रूप से चलता हुआ व्यक्तिगत जीवन। पात्रों के निजी जीवन के मानवीय संकट, उनका आधा अधूरापन, राग विराग और अकेलेपन को पकड़ने की विविध कोशिशें, जिनमें अपने समय की चिंताओं का गहरा बोध।

लाल्टू की कहानियों में उस तरह पारंपरिक प्लॉट वाले अर्थों में प्लॉट नहीं होता। कहानी किसी समसामयिक प्रसंग से शुरू हो जाती है और पात्रों के संवाद, वार्तालाप आने लगते हैं, घटनाएं घटती हैं, सरोकार, चिताएं, चिंतन नजर आते हैं, ताकत का खेल नजर आता है जिसमें न जाने कौन कब शिकार बन जाता है! चरित्र, पात्र, घटनाएं, स्थितियां राजनीतिक खेल को बयां करती हैं। कई बार मनोरंजक स्थितियां भी बनती हैं। लाल्टू के पात्र बौद्धिक प्रश्नों पर संवाद करते हैं। जो समकालीन मुद्दे हैं उनके सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ हैं।

कुछ कहानियों के पात्र कॉस्मापॉलिटन है। देशी-विदेशी पात्र, आधुनिक शहरी जीवन के अंतर्विरोध वहाँ पर दिखाए गए हैं। राजनीतिक-सामाजिक जीवन कितना प्रदूषित हो चुका है, इसको ‘नयी संस्कृति का दूध’, ‘जब ब्राजील में सूरज सर पर था’ में देखा जा सकता है।

लाल्टू उन रचनाकारों में हैं जिनके कथादेश में कोलकाता तरह-तरह से आता है। कलकत्ते की स्मृति आती है। ‘जब ब्राजील में सूरज सर पर था’, और ‘घुघनी’ कहानी में मुख्य रूप से कलकत्ते को महसूस कर सकते हैं। कोलकाता स्मृति मोह भर नहीं है। उचित और जरूरी अनुपात में है। ‘घुघनी’ कहानी की पहली पंक्ति को पढ़ते ही यह लगता है कि यह वही लिख सकता है जो कलकत्ता की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में रचा-बसा हो। कहानी का एक उद्धरण इस प्रकार है –
“मुहल्ले के लड़के किराए की कुर्सियों पर बैठे गप मार रहे हैं। कैरम खेल-खेलकर बोर हो गए हैं जो ब्रिज खेल रहे थे, वे भी ताश के पत्ते समेटकर अब एक दूसरे को बाबा सहगल से लेकर सुमन के गीतों के बारे में या फिर मोहन बागान-ईस्ट बंगाल के हाल के मैचों के बारे में सुना रहे हैं। सत्यव्रत घोष पूजा मंडप के नीचे एक कुर्सी पर अकेले बैठे हैं। पुराने दिनों की बातें याद आ रही हैं। जिंदगी के बासठ सालों में देखी गई कई पूजाएं याद आ रही हैं बचपन के वे दिन जब अकाल बोधन के अवसर पर नए कपड़े पहनते थे और अब जब खुद नहीं, परपोती रूना को हर दिन-षष्टी से दशमी तक पाँच दिन अलग-अलग नए कपड़े पहनते देखते हैं।

चारूदा हँसते हैं ‘पता नहीं क्या-क्या था रे, मुझे सब थोड़े ही पता है! कई दफा लगता है कि मैं चाहता तो चूनी गोस्वामी की टीम में खेलता। स्कूल में तो खूब खेला करता था मैं। सेंटर फॉरवर्ड था…।
–घुघनी
‘घुघनी’ और ‘दूसरा ख़त’ कहानी में एक महानायक को साधारण इंसान की तरह पेश करने की कोशिश की गयी है। मानवीय रिश्तों के अपने संकट होते हैं। उनको विचारधारा के साथ जोड़कर देखना आधी-अधूरी दृष्टि है। कुछ लोगों को महान बनाने का समाज का स्वभाव होता है। पर वह भी कहीं ना कहीं इंसान है और उसकी अपनी सीमाएँ भी हैं जिन्हें कहानियों में लक्षित किया जा सकता है। इस कहानी में कई सन्दर्भ आते हैं जैसे चूनी गोस्वामी एएफसी एशिया चैंपियनशिप में भारतीय फुटबॉल टीम का कप्तान था। साठ सालों में भारत को इस स्तर पर खेलने के चार ही मौके मिले हैं। इसके आलावा मुख्य पात्र चारु मजूमदार नक्सल आंदोलन का सबसे बड़ा (और विवादित) नाम है। राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लिखी गयी यह कहानी किसी को रास आ सकती है तो किसी को नहीं भी। पर मुद्दा रास आने न आने का नहीं है, ध्यान इस बात पर जाता है कि लाल्टू ने राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तिगत जीवन में जहाँ द्वन्द्व और पाखंड देखा वहाँ उनके अंदर कहानी ने जन्म लिया और जहाँ भी कहानी देखी उसे साहस के साथ लिखा। इस तरह वे स्वतंत्रचेता कथाकार हैं।

लाल्टू का लेखन अपनी तरह का है। वे विज्ञान के प्रोफेसर हैं और उनका यह अनुभव कहानी में एक नया आयाम जोड़ता है। पाठकों को समृद्ध करता चलता है।

“मिशेल सरकार ने अनुराधा पद्मनाभन से असित भंडारी और नैंसी के बीच हो रही बहस का कारण पूछा है। किसी ना किसी से पूछना ही होता है। इंसान का दिमाग ही ऐसा है। दिमाग के केंद्र में हाइ पोथैलामस है, जो शरीर के विभिन्न तंत्रों से आ रहे संकेतों का विश्लेषण करता है। विश्लेषण के बाद विशेष अंगों को संकेत भेजे जाते हैं कि जरूरी कार्रवाई शुरू की जाए।”

लाल्टू की अधिकतर कहानियों की पृष्ठभूमि में अस्सी और नब्बे के दशक का हिंदुस्तान है। एक तरह से ये कहानियाँ इन दशकों का दस्तावेज हैं। शहराती जीवन जिसमें उच्च वर्ग की एक अंग्रेजीपरस्त जमात समाज में बौद्धिक स्तर पर हावी हो रही थी- जिनमें बच्चों के नाम नैन्सी आदि रखे जा रहे थे, जो पश्चिमी संस्कृति से आए थे। ये नाम सुनने में ईसाई लगते थे पर ये दरअसल ईसाई परिवारों से नहीं थे। इन पात्रों के संघर्षों और तनावों को हम ‘चुनिंदा कहानियों’ में देख पाते हैं। ये पात्र शिक्षित और संस्कारित हैं। ‘आरी मातीस’ की पेंटिंग को समझते हैं (आरी मातीस को पाब्लो पिकासो के बाद बीसवीं सदी का सबसे बड़ा कलाकार माना जाता है) गजल सुनते हैं, किंगफिशर बियर पीते हैं, मनोरोग के डॉक्टर हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था में काम कर चुके हैं, अंग्रेजीदां हैं। अस्थायी प्रेम संबंधों के तनाव यहाँ हैं। अरुंधति राय को पढ़ते हैं, शतरंज खेलते हैं, नवउदारवाद की बात कर रहे हैं, परंतु समानांतर रूप से व्यक्तिगत जीवन में कई तरह के संकटों और अकेलेपन से गुजर रहे हैं। इस तरह ये कहानियाँ बहुविध मानवीय तनावों को लेकर चलती हैं जिसमें जीवन के तमाम कड़वे-मीठे, रूखे-सच रचनात्मक ढंग से आते और जाते रहते हैं।

कहानियों की शैली संवाद,वार्तालाप,आत्मालाप की है। कुछ कहानियों में अंत में आयी टिप्पणी कथा के शिल्प में एक और आयाम जोड़ती है।

कहानियों के चरित्र किसी न किसी सामाजिक मानवीय सच के प्रतिनिधि हैं जो अपने आदर्शों और उद्धत भावनाओं से निकलकर देश-समाज की चिंता करके एक ‘युग धर्म’ अपना लेते हैं और फिर अपने एकांत और एकाकीपन में लौट आते हैं। ये पात्र जो जीवन जी रहे हैं वह कितना आधा अधूरा है, ऐसी कोई नैतिक आंच नहीं है, संबंधों का संकट है, आजकल के धार्मिक पाखंड हैं।

संग्रह की कहानियों के प्रसंगों, घटनाओं, दुर्घटनाओं की सूची लंबी है। इस तरह भारतीय कथा परंपरा में ये कहानियाँ अलग तरह की दृष्टि की कहानियाँ हैं और वह दृष्टि है समकालीन, समसामयिक, व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक समस्याओं से रूबरू होना और उनकी अपने तईं चीर-फाड़ करना। मनुष्य के अंदर जो द्वन्द्व है जो विसंगतियाँ जन्म लेती हैं उन्हें जानना-समझना।

लाल्टू आज के सामाजिक विसंगतिपूर्ण समय में अपने सभी रंगों में अंधेरे और उजालों के साथ अपने अंदाज में सतत रूप से लेखन कर्म से जुड़े हुए हैं। शोक, भय और हिंसक समय में ये कहानियाँ प्रतिरोध की कहानियाँ हैं। उनकी अपनी गति और संवेदना है और यह उनका जीवन मर्म है।

पुस्तक – लाल्टू की चुनिन्दा कहानियाँ
प्रकाशक- साहित्य भंडार
50, चाहचंद ( जीरो रोड ), इलाहाबाद -211003
मूल्य – 300

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