बिहार में नदियों का घटता प्रवाह और जाल बन रहा गंगा डॉल्फिन की मौत का कारण

0

14 मार्च। विलुप्तप्राय डॉल्फिन के संरक्षण के लिए सरकार ने 1991 में बिहार के सुल्तानगंज से लेकर कहलगांव तक के करीब 60 किलोमीटर क्षेत्र को ‘गैंगेटिक रिवर डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र’ घोषित किया था। भारत और बिहार सरकार पिछले कई दशक से इस जलीय जीव के संरक्षण के प्रयास में है लेकिन अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं हो पाई है। पिछले दिनों यानी 5 मार्च को इसी एकमात्र घोषित डॉल्फिन अभ्यारण्य एरिया के नवगछिया के इस्माइलपुर पुरानी दुर्गा मंदिर के निकट एक मृत मादा की मौत मछुआरे के जाल की वजह से हो गई। इस घटना से सरकार के सारे प्रयास पर प्रश्न-चिन्ह लग जाता है।

गंगा प्रहरी स्पेयरहेड दीपक कुमार बताते हैं कि, “मृत डॉल्फिन के मुंह के निचले भाग में प्लास्टिक रस्सी बंधी हुई थी और रस्सी के दूसरे छोर पर बांस की खूंटी दिख रही थी। ऐसी स्थिति तब बनती है, जब कोई मछुआरा मछलियों को जीवित अवस्था में कुछ दिन रखना चाहता हो। ऐसी स्थिति में वह रस्सी से बांधकर उसे पानी में छोड़ देता है ताकि वह एक-दो दिनों तक जीवित रहे और आवश्यकता पड़ने पर उसे निकाल सके। डॉल्फिन के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा। वह खूंटा उखाड़ कर भागने में कामयाब रही लेकिन फंदा खोलने में असफल रही जिससे उसकी मौत हो गई।”

स्थानीय निवासी उमेश मंडल के अनुसार डॉल्फिन की मौत जाल में फंसने से हुई है। मछुआरे द्वारा इसे जाल से निकाल कर नदी में डूबा दिया गया था, पर वह फिर से वह उफन कर किनारे लग गया।

वहीं डीएफओ अजय कुमार सिंह कहते हैं कि, “पोस्टमार्टम हुआ है आगे इसका अनुसंधान होगा। उसके बाद ही कुछ बता सकते है। साथ ही मछुआरों एवं अन्य जल जीव के शिकार को लेकर भी कार्रवाई की जाएगी और जागरूकता फैलाया जाएगा।”

तिलकामांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर के डॉक्टर सुनील चौधरी को इस इलाके के लोग डॉल्फिन मैन कहते हैं। वो बताते हैं कि, “आज हमारे सामने डॉल्फिन को संरक्षित करने की चुनौती है। बिहार में डॉल्फिन की सबसे अधिक मृत्यु मछुआरे के जाल में फंसकर होती है। डैम या बैराज बनाने से भी यह जीव प्रभावित हुआ है। साथ ही नदी में पानी होने के कारण होने से गंगा के प्रवाह में कमी आ गई है जो सबसे बड़ा खतरा है। डॉल्फिन को प्रवाह भी चाहिए और नदी की गहराई भी।”

सुनील चौधरी बताते हैं “कई मछुआरे डॉल्फिन का शिकार इसलिए करते हैं कि डॉल्फिन के तेल से मछली पकड़ने का चारा बनाया जाता है। चारा मतलब डॉल्फिन के तेल को नदी में फैला दिया जाता है, जिसके खूश्बू से ‘बचवा’ मछलियां ऊपर आ जाती है। वहीं कुछ लोगों को यह भी गलतफहमी है कि सूंस के तेल से गठिया ठीक हो जाता है। इसीलिए डॉल्फिन को मारा जाता है। हालांकि इन सारे घटना की संख्या में पहले से कमी आई है।”

गंगा प्रहरी स्पेयरहेड दीपक कुमार के अनुसार बिहार में साल में आठ से नौ डॉल्फिन की मौत का कारण मछुआरे के द्वारा बिछाया जाल बनता है।

डॉल्फिन की संख्या पर भ्रम

एशिया के एकमात्र घोषित भागलपुर डॉल्फिन अभ्यारण्य में डॉल्फिन की संख्या पर दो अलग-अलग केंद्रीय एजेंसियों की अलग-अलग रिपोर्ट आई है। अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) के सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक भागलपुर में डॉल्फिन की संख्या 67 बताई गई है। जबकि डॉल्फिन पर रिसर्च करने वाली सरकारी एजेंसी (भारतीय प्राणी सर्वेक्षण) के मुताबिक डॉल्फिन की संख्या 150 बताई गई है।

गंगा प्रहरी स्पेयरहेड दीपक कुमार बताते हैं कि, “सरकार के द्वारा जब तक डॉल्फिन की सही संख्या पता नहीं रहेगी तब तक डॉल्फिन के संरक्षण के लिए कोई नियम या योजना कैसे तैयार किया जा सकता है? इन दोनों रिपोर्ट से इतर विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन अभ्यारण के रिपोर्ट में सुल्तानगंज से बटेश्वर स्थान तक डॉल्फिन की संख्या 250 बताई गई है।”

“गंगा नदी में डॉल्फिन का सर्वे बोट के माध्यम से किया गया था। इसमें दो नावों पर सवार टीमें गंगा के दोनों छोर से चलते हुए डॉल्फिन गिनती हैं। उनके दिखते ही जीपीएस मार्क किया जाता है। फिर दोनों टीमों के द्वारा तैयार रिपोर्टों को मिलाया जाता है। इसके बाद डॉल्फिन की संख्या बताई जाती है।” आगे दीपक बताते है।

साफ पानी की कमी से संघर्ष कर रही हैं गंगा डॉल्फिन

डॉल्फिन स्वच्छ जल का भी संकेत होती हैं। गंगेज डॉल्फिन जिन जगहों पर पाई जाती हैं माना जाता है कि वहां का जल काफी स्वच्छ होता है। क्‍योंकि गंदा पानी में डॉल्फिन नहीं रहती है। ऐसे स्थिति में डॉल्फिन की संख्या घटने लगती है।

बिहार के जल पुरुष के नाम से मशहूर एमपी सिन्हा बताते हैं कि, “भारत के राष्ट्रीय जलीय जीव को बचाने के लिए नदियों में पानी की उपलब्धता और नदियों को गंदा करने से रोकना जरूरी है। गंगा में प्रदूषण की निरंतर निगरानी के लिए बिहार में 10 गंगा घाटों पर मॉनिटरिंग स्टेशन स्थापित किया जाना था। जो अभी तक पूरा नहीं लगाया जा सका है। शायद एक-दो जगह लगाया गया हैं, वहां की हालत ठीक नहीं है। वहीं मछली पकड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले समान से उपजने वाला कूड़ा भी गंगा-डॉल्फिन के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। ऐसे में डॉल्फिन गंदे पानी के साथ संघर्ष कर रही है। ”

एमपी सिन्हा बताते हैं कि “इस सब के साथ नदी में होने वाले ध्वनि प्रदूषण के कारण भी डॉल्फिन का जीवन तनाव में आ रहा है। क्योंकि दिनों-दिन नदियों में स्टीमर और कार्गो-शीप की संख्या बढ़ रही है। इससे एक तो ध्वनि का और दूसरा चोट लगने से होने वाली मृत्यु का खतरा भी बढ़ जाता है। ”

 बिहार में नहीं बन सकता हैंगिंग डॉल्फिन ऑब्जर्वेटरी

बिहार में पर्यटन विकास के लिए सरकार के द्वारा भागलपुर के सुल्तानगंज से अगुवानी घाट महासेतु पर डॉल्फिन ऑबर्वेटरी के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया है। हैंगिंग डॉल्फिन ऑब्जर्वेटरी में गाड़ियों की पार्किंग होगी। दर्शक सीढ़ियों से नीचे उतर कर गंगा नदी के करीब जाकर एक बड़े प्लेटफार्म से डॉल्फिन का खेल देख सकेंगे।

जल और जलीय जीव पर रिसर्च कर रहे पीएचडी स्कॉलर राहुल बताते हैं कि, “सरकार के पर्यटन विज्ञापन में जिस तरह से डॉल्फिन को उछलता हुआ दिखाया जाता है। असल में यह समुद्र के डॉल्फिन की तरह जंप नहीं कर सकती है। यह एक स्तनधारी है और इसे सांस लेने के लिए पानी के ऊपर आना होता है। जो एक सेकेंड से भी कम समय के लिए पानी के ऊपर आती है और फिर अंदर चली जाती है। इसलिए पर्यटन विभाग में दिखाए जा रहे डॉल्फिन की फोटो समुद्री डॉल्फिन के हैं।”

(Down to earth से साभार)

Leave a Comment