24 अप्रैल। गुमला जिला अंतर्गत रायडीह प्रखंड के ऊपर खटंगा पंचायत स्थित लालमाटी गाँव, जो घोर घने जंगल एवं पहाड़ पर बसा है। दुर्गम इलाकों में से एक है, अभी तक इस गाँव को सिर्फ नक्सल इलाका के नाम से जाना जाता है। सरकार और प्रशासन ने कभी गाँव की छवि बदलने का प्रयास नहीं किया। ना ही गाँव के विकास की कोई योजना बनी। आज भी इस गाँव में रहने वाले 30 परिवारों की जिंदगी गाँवों तक सिमटी हुई है। इसमें 15 परिवार कोरवा जनजाति के है, जो विलुप्ति के कगार पर है। वहीं 15 मुंडा जनजाति भी हैं, जो 200 वर्षों से इस जंगल में रहते आ रहे हैं। ग्रामीण कहते हैं, कि अगर यह जंगल नहीं रहता, तो हम कब के मर जाते। जंगल से सूखी लकड़ी और दोना पत्तल बाजारों में बेचकर जीविका चलाते हैं। गाँव में रोजगार का साधन नहीं है। सिंचाई नहीं है। बरसात में धान, गोंदली, मड़ुवा, जटंगी की खेती करते हैं, जो कुछ महीने खाने के लिए होता है। जंगली कंदा भी इस गाँव के लोगों का भोजन है।
लालमाटी गाँव रायडीह प्रखंड में है, रास्ता नहीं है। लुरू गाँव से होकर पैदल पहाड़ के ऊपर तीन किमी चढ़ना पड़ता है। बाइक से अगर गाँव जानी है, तो चैनपुर प्रखंड के सोकराहातू गाँव से होकर जाना पड़ता है। यह सड़क भी खतरनाक है। लेकिन सावधानी से सफर करने से गाँव तक पहुँच सकते हैं। गाँव के लोग सोकराहातू के रास्ते से साइकिल से सफर करते हैं।
सड़क नहीं है, इसलिए गाड़ी गाँव तक नहीं जाती है। मोबाइल नेटवर्क भी नहीं है। अगर कोई बीमार हो गया, गर्भवती है, तो उसे खटिया में लादकर पहाड़ से पैदल उतारा जाता है। चार-पाँच किमी पैदल चलने के बाद मुख्य सड़क पहुँचकर ऑटो से मरीज को अस्पताल पहुँचाया जाता है। ग्रामीण कहते हैं, कि पहाड़ से उतरने में कई लोगों की मौत हो चुकी है।
लालमाटी गाँव से लुरू गाँव की दूरी करीब छह किमी है। लुरू गाँव में हर चुनाव में बूथ बनता है, लेकिन लालमाटी गाँव के लोग छह किमी पैदल चलकर हर चुनाव में वोट देते हैं। ग्रामीणों ने कहा, कि उम्मीदवार की जगह कोई गाँव का ही एजेंट रहता है। सभी वोटरों के लिए चना, गुड़ या चूड़ा की व्यवस्था कर देता है। वोट देने के बाद यही खाने के लिए मिलता है।
ग्रामीण विमल कोरवा कहते हैं, कि हमरे मन कर जीवन जंगल तक सिमट कर रह गए हैं। सरकार और प्रशासन से अनुरोध है, कि आवगमन की सुगमता के लिए गाँव में सड़क बनवा दें। सड़क न होने से हमें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा। वहीं ग्रामीण महेंद्र कोरवा ने कहा, कि प्रशासन द्वारा गाँव में पहुँचा कर राशन नहीं दिया जाता है। हमें राशन लाने के लिए ऊपर खटंगा जाना पड़ता है। रास्ता नहीं है, पहाड़ी और जंगली रास्ता करीब छह किमी पैदल चलना पड़ता है।
गाँव की छटनी कोरवाईन कहती हैं, कि गाँव के वृद्धजनों को वृद्धावस्था पेंशन नही मिल रहे, हम सभी ने कई बार आवेदन किया, किंतु प्रशासन हमारी कोई मदद नही कर रहा। वहीं सनियारो कोरवाईन कहती हैं, कि गाँव में रोजगार का कोई साधन नहीं है, जंगली से सूखी लकड़ी और दोना-पत्तल बाजार लेकर बेचते हैं। उसी से जीविका चलती है। गाँव से गुमला की दूरी 25 किमी है। पथरीली सड़कों से होकर गुमला जाते हैं।
शिक्षक नारायण सिंह कहते हैं, कि गाँव में एक से पाँच क्लास तक पढ़ाई होती है। पाँचवीं कक्षा तक पढ़ने के बाद कई बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं, क्योंकि गाँव चारों तरफ जंगल और पहाड़ से घिरा है। रास्ता नहीं रहने के कारण बच्चे स्कूल जाना नहीं चाहते। वहीं दिलमति कुमारी कहती हैं, कि मुंडा बस्ती में एक जलमीनार दो साल पहले बना था। वह खराब हो गया, कुआं का पानी पीते हैं। पाँचवीं कक्षा के बाद हमलोग पढ़ाई छोड़ देते हैं, क्योंकि रायडीह व सोकराहातू स्कूल जाने के लिए सड़क नहीं है।
(‘प्रभात खबर’ से साभार)
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