स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : पहली किस्त

0
मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

(आज से मधु लिमये की जन्मशती का वर्ष शुरू हो रहा है। आज का समता मार्ग का अंक तो मधु जी पर केंद्रित है ही, इस पूरे साल उनके बारे में, और उनके विपुल लेखन में से भी, कुछ न कुछ सामग्री हम बराबर देते रहेंगे। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक, स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा से यह सिलसिला शुरू हो रहा है।)

अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भारतीय समाज

स्वतंत्रता आंदोलन का बहुआयामी मूल्यांकन बहुत विस्तृत विषय है। पूरे इतिहास की चर्चा करना तो संभव नहीं है, लेकिन कुछ पहलुओं की चर्चा मैं अवश्य इस पुस्तिका में करना चाहूंगा। विषय को मैं चार भागों में बाँटूंगा। पहला विषय रहेगा : पश्चिम के साम्राज्यवादियों  का हमारे देश में आगमन और उनकी हुकूमत का भारतीय समाज पर प्रभाव। दूसरे हिस्से में होगा भारतीय राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया का देश में आयी नयी राष्ट्रीय चेतना का विश्लेषण हिन्दू-मुसलमान संबंधों के परिप्रेक्ष्य में। तीसरे भाग में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु अपनाए गए साधनों का सर्वेक्षण होगा तथा चौथे में स्वतंत्रता आंदोलन की आर्थिक और सामाजिक विचारधारा का उल्लेख करूँगा।

जहाँ तक गुलामी का सवाल है, यह एक दर्दभरी कहानी है। यह एक इतना अभागा देश है कि इसके ज्ञात इतिहास में, कुछ कालखंडों को छोड़कर, इस देश के बाशिंदे लगातार विदेशी आक्रमण के शिकार होते रहे हैं। भारतीय समाज में आरंभ से ही कुछ ऐसी कमियाँ और दोष रहे हैं कि जिनके कारण अतीत में अपनी स्वतंत्रता की रक्षा भारतीय समाज नहीं कर पाया।

सर्वप्रथम हमारे ऊपर पर्शियन साम्राज्य का आक्रमण हुआ। पर्शियन साम्राज्य विश्व का पहला सबसे बड़ा साम्राज्य था। जिस समय यह साम्राज्य अपने चरम उत्कर्ष पर था उस समय उसकी पश्चिमी सीमाएँ यूरोप में यूनान (ग्रीस) तक पहुँच गयी थीं। यूनान का अधिकांश हिस्सा पर्शियन साम्राज्य के तहत आ गया था। ग्रीस उसकी पश्चिमी सीमा थी और उत्तर-पूर्व में इसका फैलाव सिरदर्या नदी तक तथा पूर्व में सिन्धु नदी तक हो गया था। संयुक्त हिंदुस्तान का बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती प्रांत, सिंध, पाकिस्तान और पंजाब के कुछ पश्चिमी जिले उस समय पर्शियन साम्राज्य के अंतर्गत आ गए थे। उसके बाद सिकन्दर के नेतृत्व में यूनानी साम्राज्य का विस्तार हुआ।

सिकन्दर ने सीरिया और मिस्र पर कब्जा किया, बेबीलोनिया को दबाया, ईरान के अखिमिनी साम्राज्य को पूर्णतः पराजित किया और बढ़ते-बढ़ते वह हिंदुस्तान में सिंधु और झेलम नदी तक पहुँच गया। सिकन्दर युग के बाद भी लगातार हिंदुस्तान पर उत्तर-पश्चिमी घाटियों से आक्रमण होते रहे। बेक्ट्रिया के यूनानी, शक, हूण, तुर्क और अफगान लगातार हमले करते रहे। यह सिलसिला 18वीं शताब्दी तक चलता रहा। 18वीं शताब्दी में नादिरशाह तथा अहमद शाह अब्दाली के हमले हुए। लेकिन जिस विदेशी आक्रमण की मैं अभी चर्चा करना चाहता हूँ वह था पश्चिम का आक्रमण और उसमें भी अंतिम आक्रमण अंग्रेजों का हुआ। यह आक्रमण अब तक के आक्रमणों में अनोखा था। इन और पुराने आक्रमणकारियों में एक बड़ा फर्क था। पुराने आक्रमणकारियों ने इस देश के राज्यों को अंग्रेजों की तरह ही पराजित करके भारत में अपना राज्य स्थापित किया था। अपना साम्राज्य प्रस्थापित करने के बाद ये लोग हिंदुस्तान में बस गए थे और कुछ ही वर्षों के अंदर इस देश की जनता के साथ घुलमिल गए थे। लेकिन यह जो पश्चिमी साम्राज्यवादी आए, उन्होंने कभी भी हिंदुस्तान को अपना घर नहीं समझा। ये गोरे, यूरोपी नस्ल के आक्रमणकारी, पश्चिमी यूरोप के देशों की सरकारों के प्रतिनिधि के रूप में आते थे और इस देश को लूटकर जो संपत्ति बटोरते थे सब पश्चिम यूरोप के लिए रवाना कर देते थे। अतः इन दोनों के इस सबसे बड़े फर्क को हमें अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए।

विदेशी आक्रमण कोई भी हो, बुरा है। लेकिन जो विदेशी आक्रमणकारी अपने राज्य की स्थापना के बाद इस देश में बस जाते थे वे पश्चिमी साम्राज्यवादियों से भिन्न थे। पूर्ववर्ती आक्रमणकारी लुटेरे थे, खूंखार थे, जालिम थे, करों को बढ़ा देते थे, प्रजा को बड़ी तकलीफ देते थे, उनमें सब खामियाँ थीं, लेकिन अंततोगत्वा उनके हाथों जो संपत्ति लगती थी, वह इस देश से कहीं हर नहीं जाती थी। उसका इस्तेमाल वे अपने ऊपर, अपने परिवार और प्रशासन के लिए करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि देश की संपत्ति देश में ही रह जाती थी।

यह इतिहास का नियम है कि जब कोई राजवंश कहीं स्थायी हो जाता है तो वह जरूर यह सोचने लगता है कि उसके राज्य की तरक्की कैसे हो। वह किसी भी ऐसे इलाके में राज्य नहीं करना चाहता जो बहुत गरीब हो, जहाँ उद्योग-धंधे ध्वस्त हो चुके हों, जहाँ कृषि की स्थिति अच्छी नहीं हो। राज्य स्थिर होने के कुछ समय बाद वह राजवंश निश्चित रूप से इस बात की कोशिश करता है कि उसके राज्य में कृषि का विकास हो, उद्योग और हस्त व्यवसाय फलें-फूलें ताकि राज्य को करों आदि से अच्छी आमदनी हो।

इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के पहले तक जो विदेशी आक्रमणकारी यहाँ आकर बस गए थे उन्होंने यही किया। लेकिन पश्चिम के जो साम्राज्यवादी आए वे यहाँ बसने के इरादे से नहीं आए थे। हाँ, भारत के अलावा वे जहाँ भी गए वहाँ वे बसने के इरादे से ही गए थे। जैसे अमरीका में गए तो उन्होंने वहाँ घर जरूर बनाया। आस्ट्रेलिया में घर बनाया। कनाडा को उपनिवेश बनाया और दक्षिण अफ्रीका में भी घर बनाया। न्यूजीलैण्ड को भी अपना निवास स्थान बनाया। लेकिन इस देश को नहीं। भारत को वे घर बसाने योग्य नहीं समझते थे। यहाँ की आबोहवा को वे अपने अनुकूल नहीं पाते थे। इसलिए जो दौलत उन्होंने यहाँ एकत्र की उसे उन्होंने हमेशा अपने देश भेज दिया। यही सिलसिला उन्होंने दो-तीन सदियों तक बनाए रखा।

(जारी)


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment