मिथिलेश श्रीवास्तव की पॉंच कविताऍं

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1. एक नागरिक का बयान

(सुविख्यात इतिहासकार इरफ़ान हबीब को समर्पित)

बौद्ध मठों को तोड़कर मंदिर  बनाए गए
मंदिरों को तोड़ कर मस्ज़िद बनाए गए
मस्ज़िदों को तोड़ कर मंदिर बनाए जा रहे हैं
मंदिरों को तोड़ कर एक दिन बौद्ध मठ बनाए जाएंगे

बौद्ध मठ नहीं थे तब भी इंसानियत बची हुई थी
मंदिर नहीं थे तब भी इंसानियत बची हुई थी
मस्जिद नहीं थे तब भी इंसानियत बची हुई थी
नए मंदिर बनेंगे तब भी इंसानियत बची रहेगी

जब भी तोड़े जाते हैं बौद्ध मठ मंदिर और मस्ज़िद
कुछ हज़ार लोग मारे जाते हैं
कुछ हज़ार लोग बेघरबार हो जाते हैं
कुछ हज़ार बच्चे बेसहारा हो जाते हैं
खून के अरबों खरबों क़तरे मिटटी में सोख लिए जाते हैं
इंसानियत को कंधे देने वाले कुछ लोग कम हो जाते हैं
इंसानियत को रक्त देने वाले कुछ लोग कम हो जाते हैं
इंसानियत फिर भी बची रह जाती है
अगले विध्वंस में कुचले जाने के लिए
इंसानियत फिर भी बची रह जाती है
और फैलती रहती है जैसे फैलता है अनंत
अनंत  तक

इंसानियत और अच्छे रक्त के आख़िरी कतरे तक
पहुंचने और रक्तपात करने के वास्ते
बौद्ध मठों मंदिरों मस्ज़िदों को तोड़ रहे हो
कि तोड़ते तोड़ते खुद तुम्हारा दम घुंट जाएगा
कि किसी अस्पताल में तुम अंतिम सांस लोगे
कि किसी बौद्ध मठ मंदिर मस्ज़िद में नहीं

मंदिर बनाने से मस्ज़िद ढह नहीं जाएगा
वह तो रहेगा इंसान की धड़कनों में

जिसने भी तोडा होगा बौद्ध मठ मंदिर मस्ज़िद
अधिक से अधिक सौ साल जिया होगा
एक सौ दस साल जिया होगा
रक्तपात में मरने वालो की उम्र उसे नहीं मिलती

उनके वंशजों का अता -पता अब नहीं
कहीं तुम उन्हीं के वंशज तो नहीं हो

तुम जानते हो मैं कौन हूँ
पहेली है तुम नहीं जान सकोगे
मैं वही इंसान हूं  जो बाबड़ी मस्ज़िद के धवंस में बचा रह गया
जिसे तुमने दिल्ली के दंगों में मारना चाहा
मैं बचा रहा और मैं बचा रहूंगा तुम्हें जाते हुए देखने के लिए

2. अंतर्विरोध

(भारतीय नागरिकों को समर्पित)

जो जनप्रतिनिधि हैं
जानी-पहचानी लीक पर चलते हैं
कभी पीछे मुड़ के नहीं देखते
वे सामने भी नहीं देखते लोगों को
रौंदते और कुचलते हुए बढ़ जाते हैं
मैं रोज़ रौंदा हुआ हाशिए पर छोड़ दिया जाता हूं
मैंने उन्हें अपना वोट नहीं दिया
फिर भी वे मेरे आभारी हैं
उनके आभार के भार से दबा हुआ मैं चीखता हूं
अगली बार भी उन्हें अपना वोट नहीं दूंगा
फिर भी वे मेरे आभारी हैं
उनके आभार से मैं तिरस्कृत हो जाता हूँ
वे मुझे अपना विरोधी नहीं मानते हैं
और इस तरह मेरे प्रतिरोध का हक़
वे मुझसे  छीन लेना चाहते हैं
वे मुझे एक पुतले के रूप में देखना चाहते हैं

जो निर्वाचित हैं
जो पांच साल उन्हें मिले हैं उसकी फ़िक्र उन्हें नहीं होती
अगले पांच साल को लेकर आश्वस्त रहना चाहते हैं
जो निर्वाचित हैं निर्वाचित ही रहना चाहते हैं

लोग कुड़मुड़ाते हैं और मुर्गे की बांग को सवेरा समझ लेते हैं
सूरज के  रोज पूरब में उगने को  सवेरा समझ लेते हैं
आकाश में तारों के विलुप्त हो जाने को सवेरा समझ लेते हैं
बच्चों का पीठ पर बस्ता लादे स्कूल जाना सवेरा नहीं होता
बिस्तर से उठना और चाय की प्रतीक्षा करना सवेरा नहीं होता
सवेरा होता क्या है मालूम नहीं
क्योंकि सवेरा होना अभी बाकी है

जो निर्वाचित हैं बंद दरवाज़ों के भीतर मिलते हैं
कुछ कहते हैं कुछ चुप रहते हैं
जो कहते हैं कहने के लिए कहते हैं
स्वप्नहीनता उनकी लाचारी है
जो चुप रहते हैं वे सहमे रहते हैं
उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता

सभी सब कुछ छुपाते हैं एक दूसरे से
हम से भी
कुछ पक्ष में होते हैं सत्ता के
कुछ विपक्ष में होते हैं सत्ता के
सत्ता के इर्द-गिर्द ही रहते हैं दोनों पक्ष के
निर्वाचित

जो अमीर हैं
वही निर्वाचित हैं
उनके सामने एक बुलंद दरवाज़ा है जिसके पट उनकी ओर
उनके लिए ही खुलते हैं
चुपके से उस दरवाज़े के भीतर वे दाखिल होते हैं
उनको लगता है उस पर सिर्फ उन्हीं का हक़ है
वे आश्वस्त हैं कि उन्हें कोई देख नहीं पाएगा

जो ग़रीब हैं कहते हैं यही
उनकी क़िस्मत है इसी में हम मगन रहेंगे
उनके गालों पर लुढ़कता है आँख का पानी
वे कहते हैं हाथ जोड़ कर खड़े रहना उनकी दुर्बलता नहीं क़िस्मत है
शायद उनकी आत्मा में कील की तरह कुछ धंसा हुआ है

जो ग़रीब हैं यही सोचते हैं
दुनिया फ़रेब नहीं है
वह तो रहने की चीज़ है उसे
साफ़-सुथरा रखना उन्हीं का काम है
वे दुनिया का मलबा साफ़ करते हैं
उनके गालों पर नदियां सूखती नहीं हैं
उनके गालों पर पानी के बहने के कई दाग़ हैं
जो कभी मिटते नहीं
जो नारे लगाते हैं जो जोश में गाते हैं
जिनके पांव ज़मीन पर थिरकते हैं
जो अपने लंबे आलाप में ईश्वर को आवाज़ देते हैं
जो जनप्रतिनिधि और अमीर को मुआफ़ करते हैं
अपने बच्चों की सलामती की दुआ मांगते हैं
अपने पड़ोसी को हत्यारों से बचा लेते हैं
दंगों में सांप्रदायिक होने से इनकार करते हैं
जो देखते हैं और देखे हुए को बोलते हैं
जो उम्मीद करते हैं उनके साथ जो होगा न्यायपूर्ण होगा

3. पार्क में स्त्रियां

उनकी आंखों के नीचे कुछ ऐसे दाग़ हैं
जो बहते पानी के अचानक ठहराव से पत्थरों पर बनते हैं
उनके शौहर इस दुनिया से विदा ले चुके हैं
इसका पता उनके बेपरवाह बैठने की शैली से मिलता है
मांग उजड़ा हुआ उदास बदरंग और बदहवास
ज्यादातर की साड़ियों के रंग सफ़ेद और उदास
ब्लाउजों का रंग साड़ियों के रंग से मेल नहीं खाता
जैसे कि आँखों की रोशनी चहरे की झुर्रियों से अलग-थलग
इनके शौहरों के रहते इनको देखा नहीं था
लेकिन जैसा कि ऐसे आम घरों की औरतों को देखा है

उनकी मांगें भरी हुई और ब्लाउज और साड़ी के रंग में एक सम रहता है
उनकी दुनिया उनके शौहर से बनती है
शौहर की सेवा के अलावा उन्हें कोई और काम नहीं आता
उनकी बेटी ससुराल जा चुकी है और उनकी बहू
उनकी बेटी नहीं है
बेटी का पति दामाद है और बेटा बहू का पति है
वे औरतें अब दादियां और नानियां हैं

वे अलग-अलग घरों से निकल कर आयी हैं
पार्क के बेंचों पर बैठी हैं घेरा बनाकर
सगी बहनों के मानिंद
शायद वे अपने दुखों  को गा रही हैं सामूहिक रूप से
ढोलकी की थाप पर
उनमें से कई जैसे तैसे ढोलकी बजा लेती हैं
कुछ के हाथों में पीतल के झाल हैं
वे गा रही हैं
हम थकी नहीं हैं
हम हारी नहीं हैं

इन्हीं गीतों के पीछे वे छुप जाती हैं
छुपे रहते हैं उनके दुख

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

4. जुगलबंदी

(जूते और किताबें)

चारों तरफ़ विकास की आंधी है
हर कोई हमारा विकास करना चाहता है
इस साल जो योजना बनी है वह पांच साल में पूरी होगी
विकास की आंधी में धूल अधिक उड़ेगी
धूल घर में आएगी
कुछ हमारी आंखों में झोंकी जाएगी
बाकी धूल हमारी किताबों पर जमेगी
धूल साफ़ करने के लिए किताबों को
बालकनी में ले जाएंगे हम
अजीब इत्तेफ़ाक़ होगा जब हम क़िताबों से धूल झाड़ रहे होंगे
उसी समय सामने की बालकनी में कोई अपने जूतों पर
पॉलिश लगा रहा होगा
दुनिया भी अजीब है एक बालकनी में किताबें
दूसरी बालकनी में जूते
जूते किताबों पर हंस रहे होंगे
जूते कहेंगे किताबों को
धूल झड़ने के बाद किताबें धूल खाने के लिए
रैकों में सजा दी जाएंगी
जूते इंसानों के पैरों के साथ चलते रहेंगे
धूल उड़ाते रहेंगे
चमचमाते जूते रखने के जुर्म में कोई गिरफ़्तार नहीं होगा
पानी से बचा रहा तो कई साल चलेगा
पानी के संसर्ग में आते ही किताबें गल जाएंगी
किताबें रखने के जुर्म में गिरफ्तारी भी होगी
कारावास भी होगा सज़ा भी होगी
क़िताबें कहेंगी हम नष्ट भी हो जाएंगी
तो भी मनुष्य की स्मृति में रहेंगी
मनुष्य हमें पढ़ता रहेगा
कोई न कोई होगा जो हमें बचा के रखेगा
जूते की चमक जाते ही पैर उसे पहनने से इनकार कर देंगे
फटे तो गए काम से
पैबंद लगेगा या टांके लगेंगे
बदसूरती आ जाएगी
पॉलिश से चमकने वाले तेरा वजूद मिट जाएगा
किताबें कहेंगी हम तो दुनिया बदलने तक रहेंगी
जूते बूटों में तब्दील हो जाते हैं

5. इंसानों के इस शहर में

घर के जिन कोनों अंतरों की  ठीक से हम सफाई नहीं करते
कबूतरों के जोड़े आते हैं घोंसला बनाते हैं
तिनकों की उन्हें बारीक पहचान होती है
वे फ़र्क कर लेते हैं अच्छे तिनकों और बुरे तिनकों में
अंडे देने के बाद जो जतन हम कर लें
वे अपना घोंसला छोड़ते नहीं
हम निर्दयी होकर अंडे फोड़ देते हैं
वे उदास हो जाते हैं
आकाश में उड़ते हैं
और बार बार घोंसले के पास लौटते हैं
जैसे मेरा घर उनका घर है
पुकारते हैं अपने चूज़ों को सुरीली आवाज़ में
शायद हमें हत्यारा समझते हैं
कबूतरों की मासूमियत पर हम थोड़ी देर मुग्ध रहते हैं
थोड़ी देर क्षुब्ध होते हैं

छिपकलियां बड़ी भोली और मासूम लगती हैं
दीवार पर इधर से उधर भागती  हुई
शिकार करने में माहिर
हालांकि उनके जबड़ों से डर लगता है
हम उन्हें भगाते हैं तो कहीं छुप जाती हैं
वे लौट आती हैं दीवारों पर
जब हम उनका पीछा करना छोड़ देते हैं
जैसे कि अपने घर लौट आयी हैं

मकड़ियां बहुत परेशान करती हैं
जहाँ तहाँ जाले बुन देती हैं
इनके जाले देख कर कोई भी कह देता है
यहां मकड़ियां रहती हैं और कोई नहीं
इनके जाले हम तोड़ते रहते हैं
वे जाले बुनती रहती हैं
एक अदावत सी बनी रहती है हमारे बीच

गिलहरियां घर के बाहर रहती हैं
पेड़ों की फुनगियों पर सरपट दौड़ती हुई
पेड़ की शाखें खिड़कियों पर झुकती हैं
तो गिलहरियां घर का एक चक्कर लगा ही लेती हैं
फर्श पर गिरे खाने की चीज़ें अपनी चोंच में दबाए
उसी फुर्ती और तेजी से निकल जाती हैं
आलू के चिप्स स्वाद ले लेकर खाती हैं
कभी ऐसा भी होता है कि फर्श पर कुछ नहीं गिरा
तो कुछ न कुछ हम गिरा देते हैं
दोनों पैरों पर खड़े होकर वे याचक की मुद्रा भी बनाती हैं
जो हमें अच्छा नहीं लगता

अदावत ही सही
कबूतर, छिपकलियां, मकड़ियां, गिलहरियां
हमें एहसास तो कराती हैं कि हम अकेले नहीं हैं
इंसानों के इस शहर में

3 COMMENTS

  1. अचानक इन कविताओं को पढने का मौका मिला।मिथिलेश इन अच्छी कविताओं के लिए बधाई देता हूं , खास तौर पर पहली कविता के लिए।

  2. “इंसानों के शहर में” कविता एक बड़े नागरिक समुदाय के बीच खुद को महसूसना, बिल्कुल अलग तरह की कविता है। साथ ही सभी कविताएं बहुत सुघढ़ एवं समसमायिक प्रश्नों को सामने रखकर पाठक को झकझोरती है। यहां मिथिलेश जी की कविताएं एक साथ पढ़ कर अच्छा लगा। उन्हें और samatamarg.in की टीम को बहुत-बहुत बधाई।

  3. एक नागरिक का बयान,पार्क में स्त्रियां,इंसानों के इस शहर में प्रभावशाली कविताएं हैं जो मन को मथती हैं ।कवि की इन रचनाओं में संवेदनशील मन है ,सहज बयान है ,सरोकार है। मिथलेश श्रीवास्तव सर को बधाई व शुभकामनाएं
    समतामार्ग को साधुवाद!!

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