इस बार गोवा में 18 जून की तिथि का विशेष महत्त्व था, क्योंकि इसे पुर्तगाली गुलामी से मुक्ति के निर्णायक अभियान के शुभारम्भ की 75वीं वर्षगाँठ की तारीख के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर गोवा विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग ने ‘डा. लोहिया, 18 जून और गोवा’ विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय आभासीय संवाद का आयोजन किया। इसमें भारत के अतिरिक्त पुर्तगाल, ब्राजील और ब्रिटेन के विद्वान और सरोकारी व्यक्ति शामिल हुए। यह डी.डी. कौशाम्बी स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज का पहला कार्यक्रम भी था।
संकाय प्रमुख प्रो. सोमैयाजी की अध्यक्षता में हुए आयोजन की प्रमुख वक्ता के रूप में इतिहासकार प्रो. सुशीला मेदेज़ ने कहा कि गोवा की आज़ादी की कहानी में 18 जून 1946 का वही महत्त्व है जो भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में 9 अगस्त 1942 का माना जाता है। भारत के लोगों ने गांधी के नेतृत्व में ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो !’ का नारा लगाया और पॉंच बरस में आज़ादी हासिल कर ली। गोवा के लोगों ने भी डा. लोहिया के साहसी मार्गदर्शन से ‘वीवा पुर्तगाल!’ को दफन करके ‘जय हिन्द!’ कहा और 19 दिसम्बर, 1961 को पुर्तगाली गवर्नर जनरल के भारतीय सेना के आगे आत्मसमर्पण करने तक अपना बेहद कठिन आन्दोलन चलाया। इसमें कोई संदेह नहीं कि डा. लोहिया द्वारा 18 जून को मडगांव मैदान में नागरिक अधिकारों के लिए किया गया जयघोष और पुर्तगाली दमन के खिलाफ सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारी देना एक अद्भुत घटना थी। इसके बाद एक अरसे तक साधारण स्त्री-पुरुष से लेकर डाक्टरों, शिक्षकों, व्यापारियों और विद्यार्थियों ने ‘जय हिन्द’ कहते हुए पुर्तगाली शासन को चुनौती दी। कई जेल गए।
डा. लोहिया ने तीन महीने का नोटिस देकर दुबारा सत्याग्रह के लिए सितम्बर में पुन: प्रवेश किया। इस बार पुर्तगाली शासन ने उन्हें 8 दिन कैद में रखा और इस बीच गोवा की आजादी का सवाल अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित हो गया। प्रो. सुशीला मेंदेज़ ने यह जोर देकर कहा कि डा. लोहिया को महात्मा गाँधी द्वारा जून 1946 से ही खुला समर्थन देना बाकी कांग्रेस नेतृत्व के लिए मार्गदर्शक मन्त्र साबित हुआ। जब पुर्तगाल शासन के सर्वोच्च स्तर से डा.लोहिया के सत्याग्रह को गोवा के अंदरूनी मामलों में ‘अनुचित विदेशी हस्तक्षेप’ के रूप में निंदा की गयी तो गांधीजी ने सीधे गवर्नर जनरल को पत्र लिखकर मांग की कि पुर्तगाल गोवा की आजादी में बाधक न बने। क्योंकि गोवा और शेष भारत का अभिन्न सम्बन्ध गोवा मुक्ति संघर्ष के लिए डा. लोहिया के सत्याग्रह के भरपूर समर्थन का आधार है। इसमें पुर्तगाल की ब्रिटेन के साथ की गयी संधियों का कोई महत्त्व नहीं माना जा सकता।
संवाद को आगे बढ़ाते हुए समाजशास्त्री प्रो. आनंद कुमार ने गोवा मुक्ति संग्राम में डा. लोहिया और डा. जुलिआओ मेंडेस के सत्याग्रह को सबसे महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में याद रखते हुए हर साल 18 जून को एक विशेष तिथि के रूप में मनाने की परपरा को अत्यंत प्रेरणादायक बताते हुए कहा कि गोवा की आजादी की लड़ाई के लिए गांधी के सिखाये तरीकों को डा. लोहिया द्वारा इस्तेमाल तीन कारणों से महत्त्वपूर्ण साबित हुआ :
एक तो इसने 450 साल से दबी हुई जनता में निडरता की लहर पैदा की।
दूसरे, इसने पूर्तगाल के फासिस्ट शासन को सत्याग्रही रास्ते से चुनौती दी।
तीसरे, इस आन्दोलन का बीजारोपण करके डा. लोहिया ने पुर्तगाली शोषण से मुक्ति के लिए स्वराज को सभी गोवावासियों की रचनात्मक एकता पर आधारित एक आकर्षक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने में सफलता पायी।
प्रो. आनंद कुमार ने यह भी कहा कि डा. लोहिया ने गोवा की आजादी के रास्ते में खड़े सभी बड़े अवरोधों को पहचाना। स्वराज को साकार करने के लिए अंदरूनी और बाहरी के अन्तर्विरोध को स्थानीय के पक्ष में सुलझाया। भाषा (कोंकणी बनाम मराठी), धर्म (हिन्दू-इसाई-मुसलमान), अस्मिता (गोमान्तक – बम्बई-कर्णाटक), और आर्थिक अवसरों (पुर्तगाल बनाम भारत) से जुड़े प्रश्नों के उत्तर तलाशने की विधि बतायी। विदेशी गुलामी की तानाशाही शासन व्यवस्था को सहकारी समितियों और पंचायती स्वशासन से निर्मूल करने का अचूक समाधान प्रस्तुत किया। 1946 में प्रकाशित ‘एक्शन इन गोवा’ एक छोटी किताब थी लेकिन लोहिया द्वारा लिखी होने के कारण गोवा के हर सरोकारी व्यक्ति के लिए आकर्षक बनी और इसका गोवा के सीमावर्ती जिलों में भी वितरण कराया गया। यह दुर्भायपूर्ण था कि बीच में यह किताब उपलब्ध नहीं रही।
लेकिन गोवा की आजादी के अमृत महोत्सव में योगदान के रूप में इसके परिवर्धित संस्करण का प्रकाशन समाजवादी समागम की और से वरिष्ठ समाजवादी शिक्षाविद श्री रमाशंकर ने कराकर इसे अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दिया है। लेकिन गोवा की स्वतंत्रता में डा. लोहिया और दूसरी पीढ़ी द्वारा किये गए 1954-56 के सत्याग्रह के बहु-आयामी योगदान का पूरा अध्ययन-विश्लेषण बाकी है। इसी तरह से गोवा मुक्ति संघर्ष के सपनों और गोवा की समकालीन तस्वीर की तुलना का काम भी जरूरी है।
कार्यक्रम में प्रश्न-उत्तर के सिलसिले के बाद राजनीतिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. राहुल त्रिपाठी ने धन्यवाद प्रकाश किया।