अमरीकी कवयित्री माया एंजेलो की कविताएं

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय
माया एंजेलो (4 अप्रैल 1928 – 28 मई 2014)

(माया एंजेलो अमरीका की एक प्रतिष्ठित कवि, कहानीकार, आत्मकथा लेखिका और महिला अधिकारों की पक्षधर तथा रंग और जाति आधारित भेदभाव विरोधी आन्दोलनकर्ता रही हैं। उनका जन्म अमरीका के मिसौरी राज्य में हुआ था। वे एक गायिका, नृत्यांगना, अभिनेत्री और संगीतकार रहीं। वे हॉलीवुड की पहली अश्वेत महिला निर्देशक थीं  लेकिन उनकी प्रसिद्धि एक लेखिका के रूप में अधिक रही। नागरिक अधिकार आन्दोलनकर्ता के रूप में उन्होंने मार्टिन लूथर किंग जूनियर और मैल्कम एक्स के साथ काम किया। वे वेक फारेस्ट विश्वविद्यालय में अमेरिकी अध्ययन की प्रोफ़ेसर रहीं। उन्हें राष्ट्रपति पदक सहित अनेक पुरस्कार मिले।  इसके अतिरिक्त उन्हें उनके जीवन काल में विभिन्न संस्थानों द्वारा पचास से अधिक मानद उपाधियाँ प्रदान की गयीं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति है – I Know Why the Caged Bird Sings (1969). उनकी मृत्यु 2014 में 86वर्ष की आयु में हुई। )

1. फिर भी मैं उठती हूँ

तुम मुझे खारिज कर सकते हो इतिहास से
अपने कड़वे और कुटिल झूठ से
तुम मुझे धूलालुंठित कर सकते हो
फिर भी, उसी धूल की तरह, मैं उठती हूँ ।

क्या मेरी चंचलता दुखी करती है तुम्हें
तुम क्यों घिरे हो इस तरह निराशा से?
क्योंकि मैं चलती हूँ ऐसे मानो तेल के कुएँ
तेल उगल रहे हों मेरी बैठक में।

एकदम चाँद और सूरज की भाँति
ज्वार-भाटे की निश्चितता की भाँति
ऊँची उछाल लेती आशाओं की भाँति
फिर भी मैं उठती हूँ

क्या तुम चाहते हो देखना मुझे टूटा हुआ?
नत सिर और झुकी हुई आँखों संग?
कंधे गिरे हुए आँसू की बूँदों से
कमजोर होकर मेरे मार्मिक विलाप से।

क्या मेरी अकड़ चोट पहुँचाती है तुम्हें
क्या यह लगती है तुम्हें बहुत कठोर
क्योंकि मैं हँसती हूँ ऐसे मानो सोने की खान हो
मेरे पीछे के अहाते में।

तुम निशाना बना सकते हो मुझे अपने शब्दों का
तुम बींध सकते हो मुझे अपनी दृष्टि से
तुम मार सकते हो मुझे अपनी घृणा से
फिर भी, हवा की भाँति, मैं उठती हूँ

क्या मेरी यौनिकता अव्यवस्थित करती है तुम्हें?
क्या यह घटित होती है किसी आश्चर्य की भाँति
कि मैं नाचती हूँ मानो हीरे हों
मेरी जांघों के संधिस्थल में।

इतिहास की लज्जा की झोंपड़ियों से
मैं उठती हूँ
उस अतीत से जिसकी जड़ें हैं धँसी पीड़ा में
मैं उठती हूँ
मैं हूँ एक काला समुद्र, उद्वेलित और विशाल
गर्जन और उफान मैं धारण करती हूँ अपने ज्वार में।

आतंक और भय की रातें छोड़ कर पीछे
मैं उठती हूँ
एक प्रभात में जो है आश्चर्यजनक रूप से प्रभामय
मैं उठती हूँ
लेकर अपने पूर्वजों के दिए उपहार
मैं हूँ गुलामों की आशा और स्वप्न
मैं उठती हूँ
मैं उठती हूँ
मैं उठती हूँ। 

2. वे घर गए

वे घर गए और उन्होंने कहा अपनी पत्नियों से
कि अपने जीवन में कभी एक बार भी
नहीं जाना था उन्होंने मेरी जैसी किसी लड़की को,
लेकिन…… वे घर चले गए।

उन्होंने कहा मेरा घर चमचमाता हुआ साफ है
नहीं कहा कभी मैंने कोई शब्द जो रहा हो अपमानजनक
मुझ में था कुछ रहस्यमय,
लेकिन…… वे घर चले गए।

मेरी प्रशंसा थी सभी पुरुषों के होठों पर,
उन्हें पसंद थी मेरी मुस्कुराहट, मेरी हाजिर जवाबी, मेरे नितम्ब ,
उन्होंने बितायी थी  एक रात, दो या तीन।
लेकिन…… 

3. एक पति को

कभी किसी वक्त तुम्हारी आवाज होती है एक मुट्ठी
कस कर फॅंसी हुई तुम्हारे गले में
घूंसे बरसाती है बिना रुके
कमरे में के प्रेतों पर।
तुम्हारा हाथ एक तराशी हुई और
क्षिप्रगामी नाव
जाती है नील की धारा पर
संकेत करने को फराओ की समाधि की ओर।

तुम हो अफ्रीका मेरे लिए
किसी शुभ्रतम भोर में।
कांगो की हरियल और
तांबे की खारी रंगत,
एक महाद्वीप निर्मित करने को
अश्वेत लोगों के बाहुबल से।
मैं बैठी हूँ घर में और देखती हूँ यह सब
तुम्हारे माध्यम से।

4. दुर्घटना

आज की रात्रि
जब तुमने फैलाई अपनी पट्टिका
जादू की,
मैं बच कर भाग गयी।
दूर बैठे
देखा मैंने तुम्हें गंभीर और अस्त व्यस्त।
तुम्हारी अशिष्टता
नहीं आयी है जीवन संघर्ष से,
तुम्हारी मांगें
नहीं हैं आवश्यकतावश।

आज की रात्रि
जब तुमने छिड़की अपनी इंद्रधनुषी
मस्तिष्क-धूल,
मुझे नहीं थी कोई आँखें।
सब कुछ देखते हुए
मैंने देखा रंगों को बदरंग होते
और परिवर्तित होते।
रक्त, फीका पड़ चुका लाल,
रंजकों से
और नग्न
श्वेत-श्याम सच से। 

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

5. आँसू

आँसू
टुकड़े स्फटिक के
चिपचिपे चिथड़े
एक पूर्णतः जीर्ण आत्मा के।

मूक रुदन
गंभीर हंस-गीत
भावपूर्ण विदा
एक मरणासन्न स्वप्न की। 

6. जब मैं सोचती हूँ स्वयं के बारे में

जब मैं सोचती हूँ स्वयं के बारे में
मैं मर ही जाती हूँ हँसते हँसते,
मेरा जीवन रहा है एक बहुत बड़ा मज़ाक,
एक नृत्य जो चला गया
एक गीत जो बोला गया
मैं हँसती हूँ इतनी जोर से कि दम घुटने लगता है मेरा
जब मैं सोचती हूँ अपने बारे में।

साठ वर्ष उन लोगों की दुनिया में,
वह बच्ची, जिसके लिए मैं काम करती हूँ, पुकारती है मुझे ‘लड़की’,
मैं कहती हूँ , “हाँ,मैम” काम चलाने के लिए।
गर्वीली इतनी कि झुक न सकूँ
इतनी गरीब कि टूट न सकूँ,
मैं हँसती हूँ जब तक कि दुखने नहीं लगता मेरा पेट,
जब मैं सोचती हूँ अपने बारे में।

मेरे लोग कर सकते हैं मुझे मजबूर कहकहा लगाने को
मैं हँसी इतनी जोर कि बची मरते मरते,
कहानियां जो कहते हैं वे लगती हैं बिलकुल झूठ जैसी
वे उगाते हैं फल
पर खाते हैं छिलका
मैं हँसती हूँ जब तक मैं रोने नहीं लग जाती
जब मैं सोचती हूँ अपने बारे में। 

7. बाद में

नहीं गिरती कोई ध्वनि
मूक विलाप करते आसमान से
किसी भ्रूभंग से सिलवटें नहीं आतीं
साँझ की झील में

सितारे झुक जाते हैं
एक पथरीली चमक
जब उड़ते हैं पंछी

बाजार देखता है वक्र दृष्टि से
अपनी रिक्त दराजें
गलियों के अनावृत वक्ष
कुछ थोड़ी कारों के लिए
यह शैय्या जम्हाई लेती है
वजन तले
हमारी अनुपस्थित आत्माओं के।  

8. स्मरण करना

भूरे कोमल प्रेत रेंगते हैं मेरी कमीज़ की बॉंह पर
झॉंकने को मेरी आँखों में
जबकि मेरा अंतस झुठलाता है उनके भय को
और देता है उन्हें झूठे उत्तर।

लुगदी जैसी स्मृतियाँ करती हैं
एक कर्मकाण्ड मेरे होंठों पर
मैं झूठ बोलती हूँ एक भावहीन नैराश्य में
और वे पसार देते हैं मेरी आत्मा को धज्जियों में।

अनुवाद : श्रीविलास सिंह


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