विशुद्ध नस्ल जैसी कोई चीज नहीं है

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— रितु कौशिक —

प्रथम भारतीय कौन थे?

नुवंशिकी अध्ययन के अनुसार लगभग 70,000 साल पहले होमोसेपियंस (आधुनिक इंसान के पूर्वज) यानी आज के आधुनिक इंसान जिस होमो प्रजाति की संतान हैं, वे असल में अफ्रीका से हिंदुस्तान की ओर आए थे और फिर विश्व के विभिन्न देशों में फैल गए थे। अब यह सवाल हमारे जेहन में उठ सकता है कि क्या होमोसेपियंस भारत में पैदा नहीं हुए थे? वे अफ्रीका से ही क्यों आए थे? इन सवालों के जवाब में हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि यह एक प्राकृतिक संयोग है कि हमारे पूर्वज यानी आधुनिक इंसान के पूर्वज होमो सेपियंस अफ्रीका में ही पैदा हुए थे। इसकी जानकारी सबसे पहले चार्ल्स डार्विन ने 1871 में ही दे दी थी जब उन्होंने कहा था कि आधुनिक मनुष्य अफ्रीका से आए थे। और अभी हाल ही में डीएनए साक्ष्यों ने भी इस तथ्य को और भी मजबूती के साथ पेश किया है। जेनेटिक साइंस के अनुसार अफ्रीका के बाहर के सारे मनुष्य अफ्रीका से आए उन प्रवासियों के वंशज हैं जो लगभग तीन लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में प्रकट होने लगे थे। वे लगभग 70000 साल पहले कभी एशिया आए थे और उसके बाद सारी दुनिया में फैल गए थे। हाल ही में तमाम खोजें भी सारे आधुनिक मनुष्यों के अफ्रीकी मूल के होने की पुष्टि करती हैं।

अफ्रीका से बाहर के लोगों का एमटीडीएनए यानी माता से बच्चों को स्थानांतरित होनेवाला डीएनए, L3 नामक उस हैप्लोसमूह से आता है जिनकी वंशावली अफ्रीका में गहराई तक फैली हुई है। इसका यह अर्थ है कि अफ्रीका के बाहर के सारे लोग उस एक अफ्रीकी स्त्री के वंशज हैं जिसने L3एमटीडीएन हैप्लोसमूह को जन्म दिया था। इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम के मामले में भी हम देखते हैं कि बाकी दुनिया को आबाद करनेवाले अफ्रीका के सिर्फ तीन हैप्लो समूह हैं C, D, और F, सभी CT नामक एक मूल हैप्लो समूह से उत्पन्न हैं। इसका मतलब है कि अफ्रीका के बाहर के सारे मनुष्य उस एक पुरुष के वंशज हैं जिसने वाई क्रोमोसोम हैप्लोसमूह CT की शुरुआत की थी। ये तथ्य यह भी बताते हैं कि अफ्रीका के आधुनिक मनुष्यों की आबादी का सिर्फ एक उप वंश बाकी दुनिया को आबाद करने वहां से निकला था। स्थानांतरण की यह घटना बार-बार नहीं हुई थी। जेनेटिक म्युटेशन की रफ्तारों और आज के समय के जीन संबंधी आंकड़ो के सहारे आनुवंशिकीविद हैप्लो समूहों के उद्भवों के समय का हिसाब लगा सकते हैं। इसी आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि L3 का उद्भव लगभग 70,000 साल पहले हुआ था। इसीलिए 70,000 वर्ष पूर्व अफ्रीका से आए प्रवासियों को हिंदुस्तान की आबादी की बुनियाद कहा जा सकता है।

अब एक सवाल यह भी आता है कि क्या अफ्रीका से आए होमोसेपियंस से पहले हिंदुस्तान में कोई भी मानवीय प्रजाति नहीं रहती थी? भारतीय पुरातात्विक स्रोत एक ऐसा जीता-जागता साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि भारत में लगभग एक लाख वर्ष पूर्व से ही मनुष्यों के रहने की शुरुआत हो चुकी थी। मध्यप्रदेश के भीमबेटका में ऐसी प्राचीन गुफाएं मिली हैं जिनमें मनुष्यों के रहने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहां रहनेवाले लोगों के द्वारा बनाये गए चित्र उनके रहने और उनकी जीवन शैली की झलक प्रस्तुत करते हैं। इन गुफा-चित्रों में देखा जा सकता है ढोल की ताल पर नाचते हुए और शिकार करते हुए इंसानों के समूह को। अभी तक इन चित्रों की निश्चित तिथि ज्ञात नहीं है लेकिन चट्टानों पर ज्ञात नक्काशियों के अध्ययन से पता चलता है कि ये दुनिया में होमो प्रजातियों के द्वारा रची गयी कला के सबसे आरंभिक साक्ष्य हैं। अगर हमारे पूर्वज यानी होमोसेपियंस 70,000 साल पहले हिंदुस्तान में आए थे तो फिर जिन लोगों के यहां रहने के साक्ष्य लगभग एक लाख साल पहले के हैं वे कौन थे?

निश्चय ही होमो प्रजाति के वे सदस्य जो अफ्रीका से आनेवाले होमोसेपियंस या आधुनिक मनुष्यों के पूर्वजों से पहले हिंदुस्तान में रहते थे वे भी हमारे पूर्वज थे। लेकिन उनके विषय में अभी तक यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि वे किस होमो प्रजाति से संबंध रखते थे यानी वे होमोसेपियंस थे या फिर होमोनीयन्डेरथल थे या होमो इरैक्टस या किसी और प्रजाति के थे। लेकिन उसके बावजूद एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जो हमारे इस सवाल का विश्वसनीय जवाब दे सकता है वह 2010 में आनुवांशिकी विज्ञान ने पेश किया है जिसके अनुसार तमाम गैर-अफ्रीकी मनुष्यों में निएंडरथल जीन समूह का लगभग दो प्रतिशत हिस्सा शामिल है। इसका अर्थ यह है कि होमोसेपियंस और निएंडरथलों के बीच अंतरप्रजनन जरूर हुआ होगा। इस विषय में हो रहे अनुसंधान इस बात की बढ़ती संभावनाओं को सामने ला रहे हैं कि आधुनिक इंसानों और उन होमो प्रजातियों जिन्हें अभी तक हम पहचान नहीं सके हैं, उनके बीच अंतरप्रजनन की और भी घटनाएँ हुई थीं।

क्या हिंदुस्तान में पहले से ही रह रहे आदिमानवों ने होमोसेपियंस को आसानी से अपने उन स्थानों पर कब्जा करने दिया होगा जहां वे सैकड़ों सालों से रह रहे थे? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ, इसके लिए संघर्ष हुआ। आधुनिक मानवों को पूरी तरह से हिंदुस्तान पर कब्जा करने में 30,000 वर्ष लग गए क्योंकि शुरुआत में वे उन आदिमानवों के हमलों के शिकार होते थे, जो यहां पहले से रह रहे थे। लेकिन बाद में वे धीरे-धीरे और अवसरानुकूल ढंग से आगे बढ़ते हुए पूरे भारत में फैल जाते हैं और इसी बीच वे अपने शिकारों को मार गिराने और अपने प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करने योग्य प्रौद्योगिकी से स्वयं को लैस कर चुके थे। उन्होंने अपने विस्तार को बढ़ाना शुरू कर दिया और आदिमानवों को उनके विलुप्त होने तक स्थानीय शरणार्थियों की हैसियत से आदिमानवों के प्राचीन शरणस्थलों जैसे ज्वालापुरम या फिर भीमबेटका में बने रहने को विवश कर दिया था। इन्हीं प्रथम भारतीयों और ईरान की जेग्रोस पर्वत श्रृंखलाओं से आए कृषकों की संतानों के द्वारा ही हड़प्पा सभ्यता का निर्माण किया गया था।

भारत की आत्मा

इस प्रकार से सिर्फ आर्यों को ही नहीं बल्कि सदियों से हमारी इस प्रिय मातृभूमि ने दोनों हाथ फैलाकर लोगों को शरण दी, भोजन, पानी, आश्रय दिया, यहां बसाया और उनके वंशवृक्ष के जाल को फैलाने में मदद की। हमारे देश के कवि, लेखक, साहित्यकार, राजनीतिक व्यक्तित्व, समाजशास्त्री एक स्वर में यह कहते आए हैं कि इस देश में शुद्ध नस्ल नाम की कोई चीज नहीं है। हजारों वर्षों से यहां आए विभिन्न भाषा-भाषी, जनगोष्ठी व नस्ल के लोगों के आपसी रक्त संबंध के जरिए जीनों का संमिश्रण हुआ है।

अब तो आनुवांशिकी विज्ञान ने संदेहातीत रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में कहीं भी शुद्ध नस्ल नाम की कोई चीज हो ही नहीं सकती।

परंतु इतिहास गवाह है कि इसी शुद्ध नस्ल की झूठी अवधारणा के नाम पर हिटलर और नाजी पार्टी ने लाखों लोगों की हत्या की थी। हिटलर और नाजी पार्टी का कहना था कि उत्तर पश्चिम यूरोप के नॉर्डिक लोग, जिनका बाहुल्य जर्मनी में है, शुद्ध आर्य हैं, लंबे, गोरे, चौड़े ललाटवाले। इस नस्ल को हिटलर ने सभी उंची संस्कृतियों का जनक और यहूदियों को संस्कृतियों को अपवित्र करनेवाला, राष्ट्रघाती और सभ्यता के पतन का कारण माना। इसलिए 60 लाख यहूदियों की हत्या कर शुद्धिकरण अभियान चलाया गया।

हमारे देश में हिंदुत्व की विचारधारा भी इसी भ्रामक अवधारणा से प्रेरित है। 1940 में मदुराई में हिंदू महासभा के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए सावरकर ने कहा था-  “यह मानने की कोई वजह नहीं है कि हिटलर मानव रूपी राक्षस है….जर्मनी जिस प्रकार की परिस्थितियों में घिर गया था उसमें नाजीवाद उनके लिए सुस्पष्ट रूप से मुक्तिदाता साबित हुआ।…..नाजीवाद और फासीवाद की जादुई छड़ी के छूने से जर्मनी और इटली जिस आश्चर्यचकित रूप से उबरे और विकसित हुए हैं, जैसा कि इससे पहले कभी नहीं हुआ था, यही साबित करने के लिए काफी है कि इस टॉनिक की उसे आवश्यकता थी।

इस विचारधारा को माननेवाले लोग यह मानते हैं कि हिंदू धर्म और संस्कृति को माननेवालों का संबंध आर्य नस्ल से है और आर्यों की नस्ल ही सबसे विशुद्ध नस्ल है, बाकी सब बाहरी लोग हैं, जिन्हें हिंदुस्तान में रहने का कोई अधिकार नहीं है। इसी मान्यता को प्रतिष्ठित करने के लिए जरूरी हो जाता है यह साबित करना कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए थे बल्कि इस देश में ही उनका आदि निवास था। इसलिए यह बहस सिर्फ विशुद्ध सैद्धांतिक या एकेडेमिक बहस नहीं रही यह एक हिंसक विचारधारा का रूप ले चुकी है और विडंबना देखिए पूरी की पूरी विचारधारा ही गलत तथ्यों व गलत जानकारी के आधार पर खड़ी की गई है।

यह लगभग आम धारणा है कि आदिवासी या मूल निवासी जो हमारी आबादी का लगभग 8 फीसद हिस्सा हैं, वे हिंदुस्तान की बाकी आबादी से बहुत अलग लोग हैं। यह एक ऐसी अवधारणा है जिसके कारण उनको हेय दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें ऐसे लोगों के रूप में देखा जाता है जो हमसे अलग हैं। लेकिन अब आनुवंशिकीविदों ने साबित कर दिया है कि यह अवधारणा निराधार है कि आदिवासी हमसे अलग किस्म की प्रजाति के लोग हैं। आदिवासी भी बाकी आबादी के साथ आनुवांशिक तौर पर बहुत कुछ साझा करते हैं, क्योंकि वे भी उसी वंशावली को धारण करते हैं जिन्हें हिंदुस्तान की बाकी आबादी धारण करती है। इसलिए उन्हें आज के हिंदुस्तान की बुनियाद रखनेवाली आबादी के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

ये अलग-अलग भाषा, नस्ल, रंग, भेष-भूषा वाले लोग भारत में आकर एकसूत्र में बँध गये, इन सब को मिलाकर ही भारतीयता का निर्माण होता है, यही भारत की आत्मा है। परंतु आज यूरोप की फासिस्ट व नाजी विचारधारा से प्रेरित कुछ लोग भारतीय आत्मा को रौंदने की तैयारी कर रहे हैं, इतिहास की गति को उल्टी दिशा में मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें रोकना हम सभी का प्राथमिक दायित्व बनता है।

सिर्फ आर्य ही नहीं, विशुद्ध ब्राह्मण या विशुद्ध क्षत्रिय भी कोई नहीं है। ये बातें सिर्फ कल्पना की उपज हो सकती हैं। 2013 में जेनेटिक एविडेंस फॉर रीसेंट पॉपुलेशन मिक्सचर इन इंडिया शीर्षक से प्रकाशित एक आनुवंशिक अध्ययन ने इस बात को गलत साबित कर दिया है कि जब आर्य हिंदुस्तान में आए थे तो उन्होंने ही यहां आकर जाति व्यवस्था को भारतीयों पर थोप दिया था। इन वैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार ईसापूर्व 2200 से 100 सन के बीच में विभिन्न भारतीय आबादियों के बीच व्यापक सम्मिश्रण हुआ था, जिसका परिणाम यह हुआ था कि लगभग सारे हिंदुस्तानियों ने प्रथम भारतीयों, हड़प्पावासियों और स्टेपी के लोगों की वंशावली अर्जित की हुई थी।

पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान लगभग सारे समूह बड़े स्तर के मिश्रण की प्रक्रिया से गुजरे थे जिनमें भील, चमार और आदिवासी समूह भी शामिल थे। लेकिन मिश्रण की यह प्रक्रिया सन 100 के आसपास आकर खत्म हो गई थी। क्योंकि सन 100 के आसपास एक नई विचारधारा ने कामयाबी और सत्ता हासिल कर समाज पर नए सामाजिक प्रतिबंध और एक नई जीवनशैली थोप दी थी। यह वर्ग था आर्थिक और सामाजिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मण वर्ग, जो कि आर्यों के आगमन की शुरुआत से ही समाज में हो रहे आर्थिक बदलावों के कारण अपनी सर्वश्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयास में तथा रूढ़ परंपराओं, जिसमें पदानुक्रम का अत्यधिक महत्त्व, सख्त दृष्टिकोण और विभिन्न वर्गों के बीच सम्मिश्रण का विरोध शामिल था। लेकिन ईसापूर्व की चौथी और दूसरी सदियों के बीच मौर्य साम्राज्य के तीव्र विस्तार ने उस ब्राह्मणवादी विचारधारा के सामने खतरा पैदा कर दिया था जो यज्ञों, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और शासक वर्ग के साथ उनके विशेष रिश्तों पर आधारित थी। मौर्य साम्राज्य पर ईसापूर्व छठी शताब्दी के बीच विकसित हुई बौद्ध और जैन धर्मों की विचारधारा का अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ा था क्योंकि इन धर्मों ने तत्कालीन धर्मग्रंथों, यज्ञ अनुष्ठानों और सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी थी। लेकिन शुंग वंश, जो स्वयं ब्राह्मण थे, के शासनकाल के दौरान ही ब्राह्मणों ने समाज में अपनी वह जगह बनानी शुरू कर दी थी जिस पर वे अपना अधिकार समझते थे।

जब आर्य भारत आए तो आर्यों का समाज मुख्यतः तीन सामाजिक समूहों में विभाजित था- ब्राह्मण, क्षत्रिय और जनसाधारण। समाज का तीन समूहों में विभाजन केवल सामाजिक और आर्थिक संगठन की सुविधा के लिए था, कोई भी व्यवसाय पैतृक नहीं थे और न ही कोई ऐसा नियम था जो विवाह संबंधों को विशेष वर्ग तक ही सीमित रखता हो तथा यह बताता हो कि किसके साथ भोजन करना है और किसके साथ नहीं। विशिष्ट किस्म की सामाजिक या व्यावसायिक भूमिकाएं निभानेवाले लोगों के, सिर्फ अपने ही समुदाय के भीतर विवाह संबंध बनानेवाले समूहों की जाति व्यवस्था का ऋग्वेद में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। इसका जिक्र केवल उन्हीं ग्रंथों में किया गया है जो ऋग्वेद के सदियों बाद लिखे गए हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों और शूद्रों से निर्मित चतुर्वर्ण व्यवस्था का उल्लेख भी ऋग्वेद के उस हिस्से में मिलता है जो बाद में जोड़ा गया है।

आज हम जिन्हें हिंदुस्तानी या भारतीय कहते हैं उसकी नींव या बुनियाद लगभग 65000 साल पहले रखी गई थी, जब अफ्रीका से बाहर निकले प्रवासी हिंदुस्तान पहुंच थे। इसके बाद 7000 ईसापूर्व के समय ईरान की जेग्रोस पर्वतश्रृखंलाओं से चरवाहों के झुंड बलूचिस्तान पहुंचे, प्रथम भारतीयों के साथ उनका मिश्रण हुआ और उसके बाद उन्होंने मिलकर हड़प्पा सभ्यता का निर्माण किया। इसके बाद ईसापूर्व 2000 के आसपास आर्य आए, यहां पहले रह रहे लोगों के साथ उनका संबंध स्थापित हुआ, हड़प्पा सभ्यता का पतन हुआ, यहां के लोग पूरे देश में फैल गए, इनके साथ भी स्थानीय उपजातियों का मिश्रण हुआ। उसके बाद तिब्बती, चीनी, बर्मी भाषा बोलनेवाले लोग आए। उसके बाद लगातार बहती धाराओं की तरह यूनानी, यहूदी, हूण, शक, पारसी, सीरियाई, मुगल, पुर्तगाली, अंग्रेज आए और उनका भी संबंध यहां के लोगों के साथ हजारों वर्षों तक होता रहा। फलस्वरूप कहां है शुद्ध नस्ल? आनुवंशिकी विज्ञान ने यह भी साबित कर दिया है कि हिंदुस्तान में जितने भी आबादी-समूह हैं उन्होंने अपने जीन्स विभिन्न समय पर विभिन्न लोगों में हासिल किए हैं। इसलिए कोई भी जाति या नस्ल, विशुद्ध नस्ल, या कोई जाति समूह ऐसा नहीं है जिसका वजूद चिरकाल से आज तक विशुद्ध रहा हो।

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