— राजू पाण्डेय —
संविधान निर्माताओं समेत स्वाधीनता संग्राम से मॅंज-तपकर निकले सिद्धान्तनिष्ठ और खरे राजनेताओं की उस पुरानी पीढ़ी ने (जिसे यह पता था कि हमारा लोकतंत्र कितना बहुमूल्य है) यह कल्पना तक नहीं की होगी कि राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे पद बहुत स्थूल व निम्नस्तरीय राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि का माध्यम बन जाएंगे। यह कौन सोच सकता था कि इन गरिमामय पदों का उपयोग वयोवृद्ध नेताओं की सक्रिय राजनीति से स्वैच्छिक अथवा जबरन सेवानिवृत्ति के बाद पुनर्वास के लिए तो होगा ही; भारतीय राजनीति के प्रभावशाली राजनीतिक घरानों के प्रति चरम समर्पण, सेवाभाव एवं भक्ति दिखानेवाले राजनेताओं को पुरस्कृत करने के लिए भी यह पद प्रयुक्त होंगे।
राज्यपालों और राष्ट्रपतियों की भूमिकाओं पर भी राजनीतिक रंग चढ़ा। केंद्र द्वारा उन राज्यों के लिए चयनित राज्यपाल जिनमें केंद्र में सत्तारूढ़ दल की उन राज्यों में भी सरकार थी, बड़ी शांति से ऐश्वर्यशाली जीवन और राजसी सुख-सुविधाओं का आनंद लेते नजर आए किंतु जैसे ही विधानसभा चुनावों में सत्ता परिवर्तन हुआ और विरोधी दल की सरकार बनी उन्हें राज्यपाल के अधिकारों, कर्तव्यों और शक्तियों का सहसा ही स्मरण हो आया और वे राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप करने लगे। कुछ राज्यपाल विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों में इसीलिए भेजे गए थे ताकि वे राज्य सरकार को परेशानी में डाल सकें और उन्होंने यह काम बखूबी अंजाम भी दिया।
राष्ट्रपतियों के साथ भी अनुकूलन की समस्या रही। किसी एक दल के कार्यकाल में नियुक्त राष्ट्रपति दूसरे दल का शासन आने पर असहज महसूस करते रहे और बमुश्किल उन्होंने बचा हुआ समय काटा। कुछेक अपवाद ऐसे रहे जब राष्ट्रपति ने नए सत्ताधारी दल के साथ न केवल अनुकूलन किया बल्कि उसके रंग में ऐसे रॅंगे कि उनका पैतृक राजनीतिक दल ही उनसे रुष्ट हो गया।
शायद संविधान निर्माता राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के रूप में ऐसे विद्वान और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को देखना चाहते रहे होंगे जो राजनीति में आ भी नहीं सकते थे और राजनीति को जिनकी आवश्यकता भी थी। उनका ज्ञान, अनुभव और मौलिक चिंतन राजनीति को बॅंधी-बॅंधाई लीक से अलग हटकर एक नया फलक देता। संविधान निर्माताओं के लिए यह कल्पना करना भी असंभव था कि इन पदों पर नियुक्त व्यक्तियों से यह अपेक्षा की जाएगी कि वे किसी राजनीतिक दल के स्पष्ट पक्षधर के रूप में दिखाई दें और सरकारें बनाने-गिराने के खेल के निर्णायक के बजाय खिलाड़ी ही बन जाएं एवं इतिहास में यह लिखा जाए कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी और राज्यपाल या राष्ट्रपति बनने के बाद भी अपने पैतृक दल के प्रति जमकर वफादारी दिखाई।
बहरहाल ‘न्यू लो’ की जो अभिव्यक्ति आजकल अधिक प्रयुक्त हो रही है उसकी लोकप्रियता अकारण ही नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया में आरोप-प्रत्यारोप का जो दौर चला वह इस ‘न्यू लो’ को पाताल तल तक ले जाने को पर्याप्त है। आयकर विभाग, ईडी, सीबीआई आदि के बेजा उपयोग के आरोप, विधायकों को आलीशान होटलों में मतदान तक एकांतवास में रखने की शिकायतें, प्रलोभन और दबाव की चर्चाएं राष्ट्रपति चुनाव की गरिमा को खंडित करनेवाली थीं। यदि इनमें जरा भी सच्चाई है तो यह मानना पड़ेगा कि देश में लोकतांत्रिक प्रदूषण अब घातक स्तर पर पहुंच रहा है।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के रूप में देश को प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति का मिलना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है किंतु इसकी सकारात्मकता और इससे जुड़ी संभावनाओं पर चर्चा कम ही हो रही है। कहीं आरोप-प्रत्यारोप के खेल में हम इतने न खो जाएं कि इस ऐतिहासिक पल का आनंद न ले सकें।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के पारिवारिक जीवन में अनेक दुखमय घटनाएं घटी हैं किंतु वे अविचलित रहती हुई अपने कर्तव्यपथ पर डटी रही हैं। उनकी राजनीतिक यात्रा यह दर्शाती है कि स्वयं को मिलनेवाले उत्तरदायित्वों के निर्वाह में उन्होंने असाधारण दक्षता दिखाई है। विधायक के रूप में उनकी सक्रियता को देखते हुए ओड़िशा विधानसभा में उन्हें वर्ष 2007 में सर्वश्रेष्ठ विधायक को दिया जानेवाला नीलकंठ पुरस्कार दिया गया था।
बतौर झारखंड के राज्यपाल उन्होंने जून 2017 में रघुवर दास के नेतृत्ववाली अपने ही पैतृक दल की सरकार द्वारा भेजे गए सीएनटी-एसपीटी संशोधन विधेयक को वापस कर दिया था। उस समय तब के नेता प्रतिपक्ष और आज झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्यपाल को धन्यवाद देते हुए कहा था कि राज्यपाल के इस कदम ने सिद्ध कर दिया है कि आदिवासियों के हित में चिंतन करनेवाली आदिवासी राज्यपाल राजभवन में हैं। राज्यपाल के रूप में उनके द्वारा लिए गए इस निर्णय से तत्कालीन भाजपा सरकार की बहुत किरकिरी हुई थी और कोई आश्चर्य नहीं कि आगामी विधानसभा चुनावों में यह निर्णय भी एक चुनावी मुद्दा बना।
बाद में जब 2019 के अंत में हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने तब उनकी सरकार ने ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल का गठन किया जिसके माध्यम से राज्यपाल की शक्तियों में कटौती करने का प्रयास किया गया। तब राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने इसका विरोध किया और विधिक परामर्श लेना प्रारंभ किया किंतु तभी उनका कार्यकाल समाप्त हो गया। फिर भी उन्होंने हेमंत सोरेन को संवैधानिक व्यवस्थाओं के पालन करने का परामर्श अवश्य दिया। राज्यपाल के रूप में दलित और आदिवासी शिक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास भी चर्चित और प्रशंसित हुए।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू एक बहुत कठिन समय में देश के राष्ट्रपति का पद सॅंभाल रही हैं। वर्तमान सरकार आनेवाले समय में कुछ ऐसे संवैधानिक परिवर्तन करने की चेष्टा कर सकती है जो देश के संविधान निर्माताओं की मूल भावना से सर्वथा असंगत होंगे। देश में अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक बहिष्कार की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार के रूप में विस्तार प्राप्त करे। दलित और आदिवासी समुदाय के लिए आनेवाला समय बहुत कठिन होगा। जिस निजीकरण की ओर सरकार अंधाधुंध गति से अग्रसर हो रही है उसकी अवश्यम्भावी परिणति योग्यता और कार्यकुशलता के अभाव का बहाना बनाकर इन वर्गों को नौकरियों से बाहर रखने में होगी। श्रीमती मुर्मू को दृढ़ता और नैतिक साहस दिखाने की आवश्यकता होगी तभी वे इन कठिन परिस्थितियों का सामना कर पाएंगी।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू यह अच्छी तरह जानती हैं कि विकास के पैमानों पर अगर देश में कोई सबसे पीछे है तो वह आदिवासी महिला ही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सशक्तीकरण, राजनीतिक भागीदारी आदि सभी क्षेत्रों में आदिवासी महिलाएं अंतिम पायदान पर हैं। सरकारें अब तक आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए जितनी अनिच्छापूर्वक योजनाओं का निर्माण करती रही हैं उतने ही बेमन से उनका क्रियान्वयन होता रहा है।
बतौर राष्ट्रपति सभी राजनीतिक दलों को अपनी प्राथमिकता के एजेंडे में आदिवासी महिलाओं को आगे रखने के लिए प्रेरित करना श्रीमती मुर्मू के लिए एक कठिन चुनौती होगी। लेकिन इससे भी बड़ी चुनौती आदिवासियों के अस्तित्व और उनकी अद्वितीयता को बचाए रखने की है। जिन सघन वनों में आदिवासियों का निवास है उनके नीचे छिपे कोयले और खनिजों पर उद्योगपति नजरें गड़ाए हुए हैं। यदि यह कहा जाए कि देश के औद्योगिक विकास की कीमत सबसे ज्यादा जिस समुदाय को चुकानी पड़ी है वह आदिवासी समुदाय ही है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हमारी प्रगति और उनका विनाश पर्यायवाची की भांति हैं। देश की सत्ता को नियंत्रित करनेवाले कॉरपोरेट घरानों के मुकाबले निरीह आदिवासियों की क्या बिसात? अनियंत्रित औद्योगिक विकास का प्रतिरोध प्रतीकात्मक ही रहा है। पेसा कानून(1996) और वन अधिकार अधिनियम (2006) की मूल भावना से खिलवाड़ और इनके स्वरूप में उद्योगपतियों के पक्ष में परिवर्तन लाने की कोशिशें सरकारों के चरित्र को उजागर करती हैं। वर्तमान सरकार तो कुछ औद्योगिक घरानों से विशेष लगाव रखती है।
पांचवीं अनुसूची इन आदिवासी बहुल इलाकों के प्रशासन में राष्ट्रपति को विशेष महत्त्व देती है। श्रीमती मुर्मू का साहस न केवल आदिवासियों की रक्षा करेगा बल्कि देश के पर्यावरण और जैव विविधता को बचाने में भी सहायक होगा?
एक समस्या नक्सलवाद की भी है। नक्सलवाद के प्रसार के कारणों से जुड़े जटिल विमर्श से यदि न भी उलझें तब भी इतना तो स्पष्ट दिखता है कि नक्सलियों और पुलिस दोनों का कहर सबसे ज्यादा उस भोले-भाले और शांतिप्रिय आदिवासी पर टूटा है जिसका न तो नक्सल हिंसा पर विश्वास है न ही उसका इससे कोई लेना देना है। क्या श्रीमती मुर्मू इस निरीह आदिवासी की रक्षा के लिए कोई पहल कर पाएंगी?
आदिवासियों पर धार्मिक-सांस्कृतिक आधिपत्य के लिए धर्म प्रचारक संघर्षरत रहे हैं। आदिवासियों की अद्वितीय और मौलिक प्रकृति केंद्रित धर्म परंपरा एवं संस्कृति पर वर्चस्व की लड़ाई में हिन्दू और ईसाई धर्मप्रचारक वर्षों से आमने सामने रहे हैं। क्या श्रीमती मुर्मू आदिवासियों को आदिवासी बनाए रखने की दिशा में कोई पहल कर सकेंगी?
अब जब श्रीमती मुर्मू राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हो चुकी हैं तो विपक्ष को आलोचना के स्थान पर आत्मावलोकन का आश्रय लेना चाहिए। विपक्ष द्वारा श्री यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाना उसकी हताशा और उसमें व्याप्त वैचारिक शून्य को दर्शाता है। यह देखना दुखद था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस एक ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहती थी जिसने अपने जीवन का स्वर्णिम दौर भाजपा के साथ गुजारा है और जो केवल अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षाओं के कारण कांग्रेस की भाषा बोल रहा है। यदि विपक्ष कोई ऐसा उम्मीदवार चुनता जिसका डीएनए और परवरिश वास्तविक रूप से गैरभाजपाई होती तो कम से कम जनता में यह संदेश तो जाता कि विपक्ष की अपनी पहचान बची हुई है।
बहरहाल कांग्रेस और विपक्षी दलों को आदिवासी विरोधी कहने का अवसर भाजपा को मिल गया है और वह उसे आगामी चुनावों में भुनाने से नहीं चूकेगी।
प्रधानमंत्री मोदी प्रतीकों की राजनीति में निष्णात हैं। यह बिल्कुल संभव है कि वे श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भी आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने की इच्छा रखते हों ताकि उनकी ओट में कॉरपोरेट परस्त आदिवासी विरोधी नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया जा सके।
भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास यह दर्शाता है कि गोरे शासकों के शोषण और दमन के प्रखर विरोध का अप्रतिम साहस आदिवासियों ने प्रदर्शित किया था। शायद कॉरपोरेट लूट के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष की शुरुआत श्रीमती मुर्मू के कार्यकाल में हो सके।