
— नरेश गोस्वामी —
काँवड़ की तीर्थयात्रा पिछले चार दशकों के दौरान दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों में वार्षिक परिघटना बन चुकी है। आठवें दशक के आरंभ तक यह लगभग एक अल्पज्ञात यात्रा थी। उस समय यह यात्रा मुख्यत: एक व्यक्तिगत प्रयास हुआ करती थी। तब न कांवड़-यात्रियों के ठहरने और भोजन के लिए कोई सामूहिक-संगठित व्यवस्था थी, न ही शासन-प्रशासन इसका कोई नोटिस लेता था। चाक्षुष अर्थ में कहें तो उस समय तक यह यात्रा कोई दृश्य निर्मित नहीं करती थी। लेकिन इन वर्षों में वह उत्तरोत्तर एक विशाल जन-परिघटना बनती गयी है।
दिल्ली में कांवड़ यात्रियों के खानपान और विश्राम की सुविधा के लिए सरकार की तरफ से शिविर लगाने की शुरुआत 1995 में हुई थी। उल्लेखनीय है कांवड़ यात्रियों को सुविधाएं प्रदान करने की मांग इस नजीर से प्रेरित थी कि हज यात्रियों के लिए ऐसी ही सुविधाओं की व्यवस्था की जाती है। यात्रियों को राज्य सरकार द्वारा प्रोत्साहन दिए जाने का एक स्पष्ट उदाहरण 2019 की यात्रा के दौरान सामने आया जब उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ यात्रियों का पुष्प-वर्षा से स्वागत किया। यात्रियों के राजकीय स्वागत की यह पहल अब एक परिपाटी बनने लगी है।
बहरहाल, इस दौरान न केवल श्रद्धालुओं की संख्या में वृद्धि हुई है, बल्कि यात्रा को राज्य की तरफ से प्रोत्साहन और सुविधाएं भी मिलने लगी हैं। मसलन, एक अनुमान के अनुसार सन् 2004 में लगभग 60 लाख लोग काँवड़ यात्रा पर गए थे। 2011 तथा 2012 में यह संख्या बढ़कर एक करोड़ बीस लाख पहुंच गयी। ताजा सूचनाओं से पता चलता है कि 2017 में तीन करोड़ तो 2018 में लगभग साढ़े तीन करोड़ कांवड़िया हरिद्वार पहुंचे थे। 2019 में यह आंकड़ा तीन करोड़ साठ लाख के आसपास बताया गया था। इस बार मोटे तौर पर यात्रियों की संख्या तीन करोड़ अस्सी लाख बताई जा रही है।
यात्रा के शुरुआती दौर पर नजर रखनेवाले कुछ टिप्पणीकार कांवड़ यात्रा में श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या और उनके अराजक-आक्रामक व्यवहार को एक विकृति की तरह देख रहे थे। उनका मानना था कि कांवड़ियों का यह व्यवहार ‘हिंदू धर्म या जीवन-पद्धति के बुनियादी मूल्यों और समाज के व्यवहार के साथ’ मेल नहीं खाता। उन्हें कांवड़ के जरिये ‘धार्मिक ताकत दिखाने और खम ठोंकने’ की प्रवृत्ति हिंदू समाज में चल रही किसी प्रतिक्रिया की परिचायक लगती थी। हाल के एक समाजशास्त्रीय अध्ययन में कांवड़ यात्रा को ग्रामीण क्षेत्र में पैठ करती एक ऐसी नव-धामिर्कता के बृहत्तर संदर्भ में रखकर समझने का प्रयास किया गया है जिसमें गांव-देहात आध्यात्मिकता, व्यक्तिवाद, उपभोगवाद तथा मनोरंजकता का एक विकट घालमेल बन गया है तथा जिसके चलते खेती से जुड़े कर्मकाण्डों तथा त्योहारों की संख्या घटने लगी है जिसके चलते धर्म सड़कों तथा सार्वजनिक स्थानों पर आ पहुंचा है।
जाहिर है कि इस बीच काँवड़ एक बहुस्तरीय घटना बन चुकी है। इसमें सिर्फ श्रद्धालु प्रमुख नहीं रह गए हैं। अब उसका बाकायदा एक आयोजन-तंत्र बन गया है जिसमें स्थानीय नेता, परंपरागत अभिजन समूहों से लेकर नव-धनिक वर्ग और छोटे-बड़े व्यवसायी समूह शामिल रहते हैं। इस तरह काँवड़ की तीर्थयात्रा आज एक स्वत:स्फूर्त आस्था से आगे बढ़कर एक नियमित आयोजन और एक सीमा तक प्रबंधित प्रदर्शन बन गयी है।
काँवड़ के यात्रा-मार्ग को गौर से देखें तो हम ऐसे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्पेस से परिचित होते हैं जिसमें व्यक्ति और समुदायों की जीविका हाल के समय तक मुख्यत: खेती पर निर्भर रही है। इस क्षेत्र में सामाजिक और राजनीतिक सत्ता पर मध्यवर्ती किसान जातियों का वर्चस्व रहा है जबकि स्थानीय वाणिज्य और व्यापार तंत्र वैश्य समुदाय के नियंत्रण में रहा है। स्थानीय सामाजिक संरचना में संख्यात्मक रूप से छोटी और छितरी हुई जातियाँ दीर्घकालीन नीतियों और फैसलों के लिहाज से आमतौर पर अधीनस्थ स्थिति में रही हैं।
इस तरह, अपने मूल रूप में काँवड़ ग्रामीण और खेतिहर समाज की तीर्थयात्रा थी। लेकिन, पिछले चार दशकों में यह ग्रामीण-खेतिहर समाज आमूल रूप से रूपांतरित हो चुका है। मसलन, अब इस समाज में आर्थिक संबंध जाति के पारंपरिक पदानुक्रम और तत्संबंधी कर्मकांडों से स्वतंत्र होकर संविदा व मौद्रिक लाभ से तय होने लगे हैं। जजमानी व्यवस्था के स्थान पर नियोक्ता-कामगार तथा पूंजी व दिहाड़ी पर आधारित संबंध प्रमुख हो गए हैं।
आर्थिक संबंधों के इस स्पेस में जब कोई प्रभुत्वशाली जाति किसी कमजोर जाति-समूह से पारंपरिक सामाजिक व धार्मिक दायित्वों की अपेक्षा करती थी तो इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया होती थी। ऐसे में, कई दफा गैर-खेतिहर कारीगर-दस्तकार समूह टकराव से बचने और बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में देहात के बजाय निकटतम शहरों का रुख कर जाते थे। संक्षेप में कहें तो ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य-उत्पादन तथा सामाजिक पदानुक्रम पर आधारित आर्थिक संबंधों की यह व्यवस्था निरंतर भंग होती गयी है।
राजनीतिक समाजशास्त्री धीरूभाई शेठ के नजरिये से देखें तो मौजूदा समय में जातियां कर्मकांडीय श्रेणीक्रम पर आधारित इकाइयों के बजाय कौटुम्बिक संबंधों के छोटे-छोटे समुदायों के रूप में जीवित बची हैं। इसलिए हिंदू धर्म के बदलते स्वरूप— नए संप्रदायों, देवी-देवताओं और तीर्थस्थलों के संदर्भ में जाति-समूहों के पारस्परिक संबंध परंपरागत पदानुक्रम के आधार पर निर्धारित नहीं किए जा सकते। अब हिंदू धार्मिक त्योहार विशाल सामाजिक-भौगोलिक स्तर पर मनाए और आयोजित किए जाते हैं और उनमें अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न–भिन्न कर्मकांडों का व्यवहार करनेवाली जातियां भाग लेती हैं। इन परिवर्तनों के चलते हिंदू धर्म का पारंपरिक कर्मकांडीय और सामाजिक-संगठनात्मक स्वरूप जड़ताओं से मुक्त होता गया है। दूसरे शब्दों में, अब अंतर्जातीय संबंधों का व्यवस्थामूलक संदर्भ ही नहीं, बल्कि उसका धार्मिक संदर्भ भी तिरोहित हो गया है।
अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तथा राजनीतिक संस्थाओं के लोकतंत्रीकरण के कारण समुदायों के श्रेणीबद्ध संसार में किसी भी समुदाय की पहचान एकांगी नहीं रह गयी है। जाति-समूहों के भीतर नए पेशागत समूहों के उभार की संभावना बनती रही है। एक बार फिर धीरूभाई शेठ के सूत्रीकरण का सहारा लेकर कहें तो अपनी इस विशेषता के कारण ही कतिपय जाति-समुदाय स्तंभीय गतिशीलता प्राप्त करने व निम्न सामाजिक हैसियत से उच्च हैसियत की ओर बढ़ते रहे हैं। पुरानी पहचान को छोड़कर नयी पहचान हासिल करने की यह प्रक्रिया ही वह युक्ति थी जिसके जरिये विभिन्न जाति-समुदाय विभिन्न सामयिक परिस्थितियों में अपनी गतिशीलता बरकरार रख पाते थे।
हमारा मानना है कि जातियों की आपेक्षिक हैसियत पर आधारित चेतना की जगह उभरी यह सामूहिक चेतना जब शहर में विस्थापित होती है तो एक साझी स्मृति के रूप में उसके पास तीज-त्योहारों की स्मृति होती है। ग्रामीण-खेतिहर समाज के इस रूपांतरण में जातियों की संरचना का यह विश्लेषण इस तथ्य के बिना अधूरा रहेगा कि लघु और सीमांत किसानी से जुड़ी और दस्तकार जातियों को आधुनिक अर्थव्यवस्था में कोई निश्चित और सम्मानजनक जगह नहीं मिल सकी। पारंपरिक पदानुक्रम में उनके पास कमतर सही लेकिन एक सामाजिक पूंजी और आर्थिक निश्चिंतता थी। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में उनकी यह स्थिति और अरक्षित होती गयी। स्वतंत्रता के बाद उभरी सत्ता-संरचना में ऐसे जाति-समूह सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता की प्रक्रिया में शामिल नहीं हो पाए। इस तरह, नवें दशक में जब भारतीय समाज में मध्यवर्ग के संख्यात्मक विस्तार के साथ मौजूदा शहरों के आसपास उपनगर बनने शुरू हुए तो इन जाति-समूहों के लिए बेहतर अवसरों की संभावनाएं खुलने लगीं।
हमने कांवड़ की सामाजिकी को समझने के लिए जिन लोगों से बातचीत की उनमें एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्हें ग्रामीण खेतिहर समाज के इस बहुस्तरीय रूपांतरण के कारण सातवें दशक के आसपास दिल्ली का रुख करना पड़ा। कहना न होगा कि आजीविका के पारंपरिक स्रोतों से वंचित हुए इन लोगों के जीवन में इस दौरान दिल्ली एक जरूरी विकल्प बनता गया था।
जब हम काँवड़ की सामाजिक निर्मिति को ध्यान से देखते हैं तो पहली बात यह समझ आती है कि उसका आधार निम्न और मध्यवर्ती जातियों से मिलकर बना है। इन जातियों ने हाल के दशकों में चुनावी राजनीति के जरिये अपने लिए नयी जगह और पहचान गढ़ी है। मूलत: खेती, दस्तकारी तथा देसी तकनीक पर आधारित जीविका-तंत्र से जुड़ी इन जातियों का एक हिस्सा धीरे-धीरे दिल्ली में आकर बसता गया है।
गौरतलब है कि इन जाति-समूहों का जमावड़ा दिल्ली के उस बाहरी इलाके में हुआ है जो पिछले चार-पांच दशकों के दौरान अस्तित्व में आया है। इस आबादी में उन लोगों की संख्या अधिक है जिनके पास गाँवों में भी जीविका के स्थायी और टिकाऊ साधन नहीं थे। जोत के घटते रकबे, जजमानी प्रथा के अवसान तथा शहरीकरण की प्रक्रिया से उभरे अवसरों के बीच इस विस्थापित आबादी के एक छोटे से हिस्से ने कुछ संपन्नता भी हासिल की है।
लेकिन उसकी यह संपन्नता मध्यवर्ग की संभ्रान्त संपन्नता नहीं है। नागरिक संस्थाओं, शिक्षा और शहरी संस्कृति से उसका जुड़ाव बहुत गहरा नहीं है। यह वर्ग उपभोग की आधुनिकता से तो जुड़ा है लेकिन आधुनिक नागर संस्कृति में उसकी पैठ मजबूत नहीं है। उसकी एक परंपरागत दुनिया है और उसका विश्व-बोध इसी दुनिया की मूल्य-मान्यताओं से तैयार होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो देहात छोड़कर दिल्ली जैसे शहर में आ बसी यह आबादी एकसाथ दो परिवेशों में रहती है—एक वह जिसे जीवनयापन की जरूरतों के चलते उसे छोड़ना पड़ा है, लेकिन जिसके साथ उनका संबंध समाप्त नहीं हुआ है तथा दूसरा, वर्तमान शहर का परिवेश।
हमारे विचार में विस्थापित और प्रवासी लोगों की इस आबादी का लोक ग्रामीण क्षेत्र से चलकर शहर तक व्याप्त हो गया है। शहरी समाज में अपनी पहचान और दावेदारी स्थापित करने के लिए उसे अपनी धार्मिकता का इस्तेमाल करना होता है। इस अर्थ में काँवड़ को इस विशाल वर्ग की राजनीति के एक विशिष्ट प्रकार के रूप में भी पढ़ा जा सकता है जिसके जरिये वह सत्ता पर अपनी दावेदारी पेश करना चाहता है।
लेकिन, इस संबंध में यह बात भी ओझल नहीं होनी चाहिए कि आस्था की यह लहर केवल श्रद्धालुओं की भक्ति से पैदा नहीं हुई है। काँवड़ के आयोजन में शिविरों का संगठित ढाँचा केंद्रीय भूमिका निभाता है। इस नाते इन शिविरों को यात्रा का केंद्रक भी कहा जा सकता है। काँवड़ के दौरान एक आम शिविर में भोजन, नहाने-धोने, आराम करने, दवाइयों और पूजा-अर्चना की व्यापक व्यवस्था रहती है। धीरे-धीरे ये शिविर बृहत्तर हिंदू समाज को काँवड़ से जोड़ने का माध्यम भी बनते गए हैं। शिविरों की यह व्यवस्था मुख्यत: व्यावसायिक समूहों और समाज के पारंपरिक नेतृत्व के हाथों में है। इस संदर्भ में यह बात अहम है कि शिविरों की व्यवस्था करनेवाला वर्ग आमतौर पर राज्य और धर्म के औपचारिक पृथक्करण में विश्वास नहीं रखता।
अगर थोड़ा फासले से देखा जाए तो परिघटना, प्रदर्शन तथा आयोजन के स्तर पर काँवड़ केवल आस्था की अभिव्यक्ति नहीं है। अगर इसके विभिन्न पहलुओं को वृत्तों के रूप में प्रक्षेपित किया जाए तो आस्था का वृत्त सत्ता और सामाजिक पुनर्विन्यास से जुड़ने लगता है। मसलन, आठ-दस बार काँवड़ लाने का रिकॉर्ड बनाने के बाद कुछ लोग काँवड़ के प्रबंधन और व्यवस्था से जुड़ने लगते हैं और स्थानीय समाज और समुदाय में काँवड़ से प्राप्त ‘पुण्य’ का लौकिक लाभों के लिए भी इस्तेमाल करने लगते हैं। उनके द्वारा स्थापित सेवा-समितियाँ स्थानीय सत्तातंत्र में वर्ष भर सक्रिय रहती हैं।
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