
— नंदकिशोर आचार्य —
यह अक्सर देखा गया है कि मनुष्य के कल्याण और सही विकास को अपना प्रयोजन माननेवाली विचारधाराएँ और उनसे प्रेरित संस्थाएँ एक-दूसरे के इतना विरोध में हो जाती हैं कि वे एक-दूसरे को अपना शत्रु घोषित कर देती हैं और उनका समय और श्रम अधिकांशतः एक दूसरे की निंदा करने और उसे समाप्त करने की कोशिश में ही लगा रहता है। आधुनिक काल में राजनीतिक और मध्यकाल में धार्मिक संप्रदाय इस प्रवृत्ति का स्पष्ट उदाहरण हैं।
मेरे सम्मुख यह सवाल अक्सर खड़ा होता है कि लक्ष्य एक होने पर एक दूसरे के प्रति यह भाव क्यों? यह भाव यदि सिर्फ उन लोगों में हो जो राजनीतिक या धार्मिक या अन्य किसी प्रकार के सत्ता-संस्थान पर आसीन हैं या होना चाहते हैं तो उसका कारण समझ में आता है। लेकिन इस तरह की प्रवृत्ति उन लोगों में अधिक दिखायी पड़ती है जो अपने बाकी दैनन्दिन जीवन में सरल और सादा हैं तथा जिन्हें वे ठीक मानते हैं उन विचारों के लिए कष्ट उठाने को भी तैयार रहते हैं – वे सामान्य जन जो सत्ता पर आसीन होना नहीं चाहते।
ऐसा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम विचारधारा से अधिक उन संस्थाओं और व्यक्तियों से जुड़ जाते हैं जो स्वयं को उस विचारधारा का पोषक मानते हैं और उस विचारधारा की व्याख्या और अपने कार्य-व्यापार के औचित्य के संबंध में ऐसी किसी संस्था या व्यक्तियों के निर्णय को ही कसौटी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ यह भी समझ लिया जाना चाहिए कि कोई विचारधारा यह नहीं चाह सकती कि मनुष्य अपने आचरण के औचित्य की तलाश अपने विवेक की बजाय किसी अन्य संस्था या व्यक्ति या व्यक्ति-समूह में खोजे। ऐसी कोई भी कोशिश उस विचारधारा को मानव-विरोधी बना देती है; क्योंकि मनुष्य एक स्वतंत्र चेतनासंपन्न और विचारशील प्राणी है अतः उसकी हर स्वतंत्रता और विचारशीलता पर यदि कोई अन्य बात एक स्थायी बाधा हो जाती है– चाहे उसमें उस व्यक्ति की सहमति भी क्यों न हो– तो उसे सार रूप में मानवविरोधी ही कहना होगा।
कई दफा ऐसा भी हो सकता है कि हम विचारधारा को भी जरूरत से अधिक महत्त्व दे देते हैं। विचारधारा का महत्त्व इस बात से निर्धारित होता है कि वह किन बुनियादी मानवमूल्यों से अनुप्राणित है और किस हद तक उन्हें पुष्ट करती है। यदि विचारधारा की विस्तृत योजना में कोई ऐसी बात आ जाती है जो उन बुनियादी मानवमूल्यों को कहीं आघात पहुँचाती है तो उसका विरोध करना होगा क्योंकि ऐसा न करना उस विचारधारा की बाकी सार्थकता को भी आघात पहुँचाना होगा। निरंतर बदलती हुई परिस्थितियों में विचारधारा की निरंतर व्याख्या करते रहना होता है।
इस व्याख्या के सही या गलत होने का निर्णय तत्कालीन परिस्थितियों में उसकी कामचलाऊ उपयोगिता पर नहीं निर्भर करता। यह इस पर निर्भर है कि इस नई व्याख्या की संगति उन बुनियादी मानवमूल्यों से बैठती है या नहीं जो उस विचारधारा का प्राण हैं। इस मूल्यबोध को खो देने पर कोई भी पद्धति, विचार या संस्था एक ऐतिहासिक विकृति बनकर रह जाती है। कई दफा इस तरह की विकृति तत्कालीन परिदृश्य पर अधिक प्रभावी हो जाती है– जैसा कुछ सीमा तक आज है भी– लेकिन इस तरह प्रभावी हो जाने मात्र से उसे उचित या सार्थक नहीं माना जा सकता बल्कि ऐसी परिस्थितियों में उन बुनियादी मूल्यों के लिए हर स्तर पर प्राणपण से संघर्ष करना और भी ज्यादा जरूरी और सार्थक हो जाता है।
परिवेशगत प्रवृत्तियों से परिचित होना, उन्हें पहचानना एक अलग बात है, लेकिन उन्हें अपने पर, अपने निर्णय पर हावी कर लेना या उनमें इसलिए बह जाना कि अधिकांशतः वैसा ही हो रहा है, अपने को एक स्वतंत्र मानव व्यक्तित्व की हैसियत से एक दर्जा नीचे उतार देना है।
कई दफा ऐसा भी होता है कि मनुष्य अपने स्वतंत्र निर्णय और विवेक के प्रयोग से अधिकार को– और यह अधिकार मनुष्य का सबसे बड़ा अधिकार है जिसका समर्पण उसे सिर्फ जैविक स्तर पर ही मनुष्य रखता है– इसलिए छोड़ देना मंजूर कर लेता है कि बाह्य दबाव इतने अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं कि उनका मुकाबला अस्तित्व तक को समाप्त कर सकता है।
कुछ लोग आपद्धर्म के रूप में इस आचरण का औचित्य स्वीकार कर लेते हैं– यद्यपि इस पर भी काफी मतभेद की गुंजाइश है पर यह तर्क समझ में आता है कि अस्तित्व भी एक मूल्य है अतः उसकी रक्षा होनी चाहिए। लेकिन यह भी होता है और यह ज्यादा खतरनाक है कि मनुष्य कई दफा अपनी स्वतंत्रता की सिद्धि से भागता है– वह अपनी स्वतंत्रता को विभिन्न बहानों से किसी-न-किसी इतर सत्ता को इसलिए सौंप देता है कि स्वतंत्रता अपने मूल्यगत स्तर पर एक उत्तरदायित्व है और उस उत्तरदायित्व का बोझ इतना दुर्वह है कि वह उसे सहन करने से कतराता है।
अपने स्वतंत्र विवेक की बजाय जाति, वर्ग, दल, धर्म-संप्रदाय या राष्ट्र के निर्णय को स्वीकार कर लेना कि वे उससे किसी बड़ी सत्ता के निर्णय हैं या अपने लिए निर्णय का भार उन्हीं पर छोड़ देना स्वतंत्रता से पलायन है।
एक गहरे और बुनियादी अर्थों में यह मानवत्व से भी पलायन है– लेकिन किसी भी भाँति यह पलायन स्वाभाविक नहीं है, एक विकृति है और इसलिए इस तरह के पलायन का प्रयास करनेवाले व्यक्तियों या समाजों में विभिन्न प्रकार की विकृतियाँ दिखाई देने लग जाती हैं।
इस विकृति की विभिन्न सामाजिक-मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्तियाँ हो सकती हैं। लेकिन एक बात जो इन सभी जगहों पर सामान्य नजर आती है वह है मनुष्य का अवमूल्यन। इस तरह के संदर्भों में मनुष्य को– एक यथार्थ इकाई के रूप में व्यक्ति मनुष्य को– किसी न किसी इतर सत्ता से ओछा बताया जाता है। यह इतर सत्ता संप्रदाय हो सकती है, जाति हो सकती है, राजनैतिक दल भी हो सकता है, आर्थिक प्रक्रिया हो सकती है, ऐतिहासिक नियतिवाद हो सकता है– यहाँ तक कि राष्ट्र भी हो सकता है।
इसलिए विचारधाराओं या संगठनों से जुड़ते हुए– यह जुड़ना भी स्वाभाविक है, लेकिन यह जुड़ना है अपना टूटना नहीं– क्या निरंतर यह ध्यान में रखना जरूरी नहीं है कि हमारा और संबंधित संस्था या विचारधारा का आचरण भी उन बुनियादी मानवमूल्यों की कसौटी पर कसा जाता रहे जो उसका वास्तविक प्राण हैं और जिनके बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है? लेकिन क्या ऐसा होता है? क्या हम इस ओर सजग हैं? ऐसा नहीं होने पर ही तो लोकतंत्र अधिनायकवाद में, धर्म एक अमानवीय सत्ता के रूप में और क्रांतियाँ प्रतिक्रांतियों में परिवर्तित हो जाती हैं।
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