— श्रवण गर्ग —
सत्ताएँ जब जनता को उसके सपनों की समृद्धि हासिल करवाने में नाकाम हो जाती हैं तो वे बजाय अपनी विफलताओं को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर पश्चात्ताप करने के, किसी वर्ग विशेष खिलाफ शस्त्र उठाने का उदघोष करनेवाली धर्म संसदों की आड़ में छुपने लगती हैं या फिर अपने नागरिकों के हाथों में झंडे थमा देती हैं। झंडा तब राष्ट्र के नागरिकों की अंतरात्मा और आकांक्षाओं के प्रतीक के स्थान पर व्यक्तिवादी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का हथियार नजर आने लगता है।
तिरंगे को लेकर दिए गए बलिदानों की हजारों-लाखों भारतीय कहानियाँ खून और ऑंसुओं से लिखी हुई और देश भर में बिखरी पड़ी हैं। हो यह रहा है कि आजादी की लड़ाई के दौरान किए गए देशभक्ति के संघर्षों को इस समय राष्ट्रवाद के गोला-बारूद में ढाला जा रहा है। आजादी प्राप्ति के अमृतकाल को विभाजन की विभीषिका की पीड़ादायक स्मृतियों से रॅंगा जा रहा है।
देश के एक सौ चालीस करोड़ नागरिकों की कल्पना का तिरंगा तो पीएम द्वारा किए गए आह्वान के काफी पहले से पटना में सचिवालय के बाहर महान मूर्तिकार देवी प्रसाद रॉय चौधुरी की अभिकल्पना का मूर्त रूप धारण किए सात युवा शहीदों की आदमकद कांस्य प्रतिमा में अंकित है। देशभक्ति के जज्बे से रोमांचित कर देनेवाली यह प्रतिमा उन सात युवा छात्रों के संकल्प का दर्शन कराती है जिन्हें ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान तिरंगा फहराने के प्रयास में 11 अगस्त 1942 को अंग्रेजों द्वारा निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया था। इन सात युवाओं में तीन, कक्षा नौ में पढ़ाई करते थे। पच्चीस अन्य युवा तब गंभीर रूप से घायल हो गए थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान तेरह से पंद्रह अगस्त तक हर घर में तिरंगा फहराने का आह्वान नागरिकों से किया है। पीएम ने यह अपील भी की है कि सभी लोग अपने सोशल मीडिया अकाउंट में तिरंगे की डीपी (डिस्प्ले पिक्चर) लगाकर इस राष्ट्रीय अभियान को और सशक्त बनाएँ।सरकार तिरंगे के लिए कपड़ा खादी का ही होने की अनिवार्यता पहले ही समाप्त कर चुकी है।
प्रधानमंत्री को पूरा अधिकार है कि वे समय-समय पर देश के नागरिकों का आह्वान करते रहें। हमारे कई पूर्व प्रधानमंत्री भी अतीत में ऐसा करते रहे हैं, पर केवल राष्ट्रीय संकटों के दौरान अथवा किसी महत्त्वपूर्ण अवसर पर। अन्न-संकट के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आह्वान पर पूरा देश सप्ताह में एक दिन उपवास रखता था (प्रधानमंत्री ने अपने पंद्रह अगस्त के लाल किले से उदबोधन में शास्त्री जी के ‘जय जवान जय किसान’ नारे का उल्लेख भी किया)। चीनी आक्रमण के दौरान पंडित नेहरू के आह्वान पर देशवासियों द्वारा किए गए त्याग की अनेक कथाएँ हैं। नागरिक अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहते थे। उनका उत्साह स्वत:स्फूर्त रहता था। तत्कालीन सत्ताओं ने न तो कभी नागरिकों के राष्ट्रप्रेम की परीक्षाएँ लीं, और न ही अपने आह्वानों को राष्ट्रीय उत्सवों में परिवर्तित किया।
याद यह भी किया जा सकता है कि आजादी के पचास साल पूरे होने पर ‘स्वर्ण जयंती’ वर्ष को तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किस तरह से मनाया था, देश को किस तरह की सौगातें उन्होंने दी थीं ! या आजादी की साठवीं वर्षगाँठ या ‘हीरक जयंती’ के अवसर पर पंद्रह साल पहले देश में किसकी सरकार थी, और तब क्या हुआ था?
साल 2020 के पीड़ादायक कोरोना काल में जब देश भारी संकट से गुजर रहा था, प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों से आह्वान किया था कि वे 22 मार्च की शाम अपने घरों के दरवाजों, खिड़कियों के पास या बालकनियों में खड़े हो पाँच मिनट तक ताली-थाली बजाकर अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों की सेवाओं के प्रति धन्यवाद का ज्ञापन करें।अपने तमाम अभावों और कष्टों को भूलकर नागरिकों ने प्राणप्रण से प्रधानमंत्री की भावनाओं का सम्मान किया। उसके बाद क्या हुआ ?
दवाओं, ऑक्सीजन की कमी और कोविड से निपटने की अपर्याप्त सरकारी कोशिशों की जानकारी और नागरिकों की मौतों के आँकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों में तलाश किए जा सकते हैं। कोविड के टीकों को लेकर देश द्वारा हासिल की गई उपलब्धि की चर्चा तो प्रधानमंत्री दुनिया भर में गर्व के साथ करते हैं, पर आजादी के अमृतकाल के ठीक पहले कोविड से हुई लाखों मौतों के सवाल पर वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के दावों को कोई चुनौती नहीं देते। गलत-सही आरोप यह है कि प्रधानमंत्री अपने हरेक नागरिक आह्वान को अपनी लोकप्रियता और सरकार की उपलब्धि में तब्दील करके उसे दुनिया के सामने भारत की ताकत के प्रदर्शन के रूप में पेश कर देते हैं।
पूछा जा सकता है कि देश के 140 करोड़ नागरिकों (जिनमें वे बाईस करोड़ मुस्लिम भी शामिल हैं, जिनकी भारतीयता और देशभक्ति को संघ और (जनसंघ) भाजपा द्वारा पिछले पचहत्तर सालों से शक की नजरों से देखा जाता रहा है) से उनकी राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बार-बार क्यों माँगा जाना चाहिए? बहुत सम्भव है कि प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद मदरसों और मस्जिदों की छतों पर दूर से ही नजर आ जानेवाले तिरंगे सरस्वती शिशु मंदिरों और हिंदू धार्मिक स्थलों से पहले ही लगा दिए गए हों।
एनडीए-शासित उत्तराखंड राज्य के भाजपा प्रमुख के हवाले से वायरल हुए वीडियो में अगर कोई सच्चाई है तो उनका कहना है कि : “भारत उन लोगों पर भरोसा नहीं कर सकता है, जो राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराते। जिसके घर में तिरंगा नहीं लगेगा, हम उसे विश्वास की नजर से कभी देख नहीं पाएंगे। मुझे उस घर का फोटो चाहिए जिस घर में तिरंगा न लगा हो। समाज देखना चाहता है उस घर को, उस परिवार को देखना चाहता है कि भारत को लेकर सम्मान का भाव किस-किस (परिवार) के अंदर नहीं है। घर में देश का झंडा लगाने से किसे दिक्कत हो सकती है? देश ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं कर सकता जो तिरंगा नहीं फहराते हों।’’
नागरिक डरे हुए हैं। वे स्वीकार नहीं करना चाहते हैं कि तिरंगे को लेकर सरकार उन्हें डराने की कोई भावना रखती है। पर ऐसा हो रहा है। जो नजर आ रहा वह यही है कि तिरंगे को राष्ट्र के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करने से अधिक देश के प्रति वफादारी साबित करने का अवसर बनाया जा रहा है।(‘हर घर तिरंगा’ अभियान में भाग लेनेवाले नागरिक सरकार से एक ‘प्रशंसा प्रमाण पत्र’ (सर्टिफिकेट) भी प्राप्त कर सकेंगे। इसके लिए सरकार द्वारा एक वेबसाइट जारी की गई है जिस पर नागरिकों को तिरंगे के साथ अपनी सेल्फी अपलोड करना होगा।)
प्रधानमंत्री के आह्वान की उपलब्धि इस बात को अवश्य माना जा सकता है कि तिरंगे को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ आजादी के बाद से ही लगाए जा रहे रहे आरोप तात्कालिक रूप से ही सही, खारिज करने पड़ रहे हैं। संघ ने तिरंगा भी फहरा लिया है, और अपनी डीपी भी बदल ली है। मानकर चला जा सकता है कि प्रधानमंत्री का कोई नया आह्वान संघ की विचारधारा को भी बदलकर उदार बना देगा। प्रधानमंत्री के उस आह्वान के दिन की प्रतीक्षा उत्सुकता से की जानी चाहिए!