— प्रफुल्ल सामंतरा —
(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)
सुंदरगढ़ जिले का बनाई सबडिवीजन लौह अयस्क से भरपूर है और वहाँ स्पंज आयरन की काफी फैक्टरियाँ हैं जो प्रदूषण फैलाती हैं। ओड़िशा खनिज निगम लौह-अयस्क के खनन के लिए कुदरती जंगलों को नष्ट कर रहा है, आदिवासियों को उनके प्राकृतिक पर्यावास के हक से वंचित कर रहा है। खनन गतिविधियों की वजह से अब कंदहार जलप्रपात खतरे में हैं। यह जलप्रपात ही ब्राह्मणी नदी के लिए पानी का शाश्वत स्रोत रहा है। बनाई सबडिवीजन के चारों तरफ 10 से ज्यादा स्पंज आयरन की परियोजनाएँ हैं जो कार्बन डाइआक्साइड का अत्यधिक उत्सर्जन करती हैं। यह मानव स्वास्थ्य, कृषि और नदियों-तालाबों के लिए बहुत ही नुकसानदेह है। आईडीसीओ यानी इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन आफ ओड़िशा (ओड़िशा ओद्योगिक विकास निगम) के जरिए सरकार बार-बार सामुदायिक जमीन लेकर उसे प्राइवेट कंपनियों को आवंटित कर रही है जिनमें वनक्षेत्रों में प्रदूषण फैला रहे संयंत्र भी शामिल हैं।
ओड़िशा ओद्योगिक विकास निगम द्वारा जमीनों का अधिग्रहण पेसा अधिनियम, वनाधिकार अधिनियम और संविधान की पाँचवीं अनुसूची का उल्लंघन है। कापंडा जगल में काइ इंटरनेशनल लि. को जो जमीन आवंटित की गयी है उस पर डेढ़ लाख से ज्यादा पेड़ हैं। पिछले साल, बिना अनुमति के, 10 हजार से ज्यादा पेड़ काट डाले गये। पेड़ों की इस कटाई और कंपनी द्वारा किये जा रहे प्रदूषण के खिलाफ लोग विरोध-प्रदर्शन करते रहे हैं और एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) से स्थगन आदेश प्राप्त करने में सफल हुए हैं। विरोध प्रदर्शन करनेवालों में आदिवासी तो हैं ही, अन्य समुदायों के लोग भी शामिल हैं। उन पर कंपनी ने अपने गुंडों से हमले कराए हैं। पुलिस ने लोगों को और मुझ जैसे कार्यकर्ताओं को जंगलों को बचाने के लिए आम सभा करने से रोका है। बनेई के निकट रुकुडा में एक मध्यम श्रेणी का बाँध बनाने के लिए वहाँ के वनवासियों को, जिन्हें वनाधिकार अधिनियम के तहत जमीन का पट्टा मिला हुआ था, जबरदस्ती विस्थापित कर दिया गया। वर्ष 2014 से वे मुआवजे के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन सरकार उन्हें अनसुना करती आ रही है।
7. तटीय ओड़िशा में, सरकार प्राइवेट बंदरगाह बनाने के लिए निजी क्षेत्र की कंपनियों को आमंत्रित कर रही है। इससे तटीस क्षेत्र की पारिस्थितिकी नष्ट होगी, जो कि स्थानीय मछुआरा समुदाय के लिए आजीविका का पारंपरिक स्रोत है। तटीय क्षेत्र में हजारों ग्रामीणों को उनकी खेती-बाड़ी से विस्थापित करते हुए बलपूर्वक जमीन अधिग्रहीत की गयी है। बालियापाल में जहाँ डिफेंस मिसाइल सेंटर बनाए जाने के खिलाफ ऐतिहासिक व कामयाब आंदोलन हुआ था, वहाँ टाटा को विकास के नाम पर बंदरगाह बनाने की इजाजत दे दी गयी है; उस क्षेत्र में एक पेट्रोकेमिकल कांप्लेक्स भी बनने जा रहा है। प्रभावित होनेवाले पाँच ग्राम पंचायतों के लोग इन परियोजनाओं का बरसों से विरोध कर रहे हैं। इस सब से बेपरवाह, सरकार ने ओड़िशा की खदानों से खनिज ले जाने के लिए, ऐसे और भी बंदरगाह बनाने के लिए हरी झंडी दे दी है। मानो यह काफी न हो, ओड़िशा सरकार ने अदानी और अन्य कंपनियों के सामने ब्राह्मणी और महानदी जैसी नदियों पर नदी-बंदरगाह बनाने की पेशकश की है। ये आनेवाली परियोजनाएँ न केवल पानी के प्राकृतिक प्रवाह को प्रभावित करेंगी बल्कि प्रदूषित भी करेंगी और जलप्रवाह में कमी भी आएगी। किसानों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा।
8. पुरी के तट पर, तटीय नियम-कायदों को ताक पर रखकर, गरीब गामीणों को आजीविका के उनके अधिकार से वंचित करते हुए, 2000 एकड़ से अधिक तटीय वनभूमि एक हवाई अड्डे के लिए देने की तैयारी कर ली गयी है। सीपासरुबाली तटीय वनक्षेत्र को बचाने के लिए उपाकुलिया जमी ओ जंगल सुरक्षा समिति के बैनर तले आंदोलन चल रहा है। नौ माह से ऊपर हो गया, सरकार ने इस आंदोलन के नेता को झूठे मामलों में जेल में बंद कर रखा है।
9. कोयले के राष्ट्रीयकरण को अलविदा कहने के बाद, अब केन्द्र सरकार अनेक राज्यों में कोयला खदानों की नीलामी के लिए निविदा आमंत्रित करने की प्रक्रिया शुरू करने जा रही है। ओड़िशा में 33,000 एकड़ से अधिक वनभूमि और कृषिभूमि इन कोयला खदानों की भेंट चढ़ा दी जाएगी। चेंदीपदा ब्लाक के अनेक घने बसे हुए गाँव मटियामेट हो जाएंगे। अंगुल और झारसुगुड़ा जिलों में 11 कोल ब्लाक्स में खनन के चलते हजारों लोग, जिनमें आदिवासी भी हैं, विस्थापित हो जाएंगे। झारसुगुड़ा जिले के तालाबीरा कोयला क्षेत्र में, अदानी और बिड़ला ग्रुप की कंपनियों के द्वारा जंगल में पेड़ों को काटे जाने का लोग विरोध कर रहे हैं। ग्रामीणों को पुलिस धमकाती है और जब ग्रामीण अपनी कृषिभूमि पर खनन का मलबा अवैध रूप से रखे जाने का विरोध करते हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लेती है। खदान क्षेत्रों में जहाँ लोग कारपोरेट कब्जे का तीव्र विरोध कर रहे हैं, कानून का शासन नाम की कोई चीज नहीं बची है।
जिन जंगलों को खनन के लिए कारपोरेट के हवाले कर दिया गया है उन जंगलों की मौजूदा स्थिति के बारे में वन विभाग सूचना मुहैया नहीं करा रहा है। राज्य में सूचना का अधिकार बेमतलब होकर रह गया है। जिन इलाकों में कारपोरेट को जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधन भेंट करने के लिए न्योता गया है वहाँ बुनियादी अधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार गहरे संकट में हैं। कारपोरेट-हितों का एजेंट बन चुका राज्य पुलिस-स्टेट की तरह व्यवहार कर रहा है। प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के अधिकार और लोकतंत्र को बचाने के लिए साझा एकजुट संघर्ष आज वक्त की जरूरत है।
ओड़िशा में नवीन पटनायक के नेतृत्व में मुट्ठी भर नौकरशाहों द्वारा चलाई जा रही सरकार के पास किसी की बात सुनने के लिए वक्त नहीं है। मुख्यमंत्री के पास न तो जनता की बात सुनने के लिए फुरसत है न अपने मंत्रियों और विधायकों की। खनन उद्योग राज्य और केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टियों के लिए सियासी चंदे का बड़ा जरिया बन गया है। खनन उद्योग राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत है। लोग गरीब हैं भले उनका राज्य प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न है। राज्य के संरक्षण में कारपोरेट के हाथों यह भंडार दिनोदिन खाली होता जा रहा है।
देश में कारपोरेट कब्जे के इस जमाने में केंद्र सरकार वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के जरिए वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) 1980 के नियमों में ऐसे फेरबदल करना चाहती है ताकि वह वनाधिकार अधिनियम 2006, और पेसा अधिनियम 1996, तथा खुद एफसीए में ग्राम सभा को प्रदत्त अधिकारों को निरस्त कर सके। एफसीए के नियमों में इस तरह के बदलाब से घने हरे-भरे जंगलों को, जिनमें झीलों झरनों नदियों के उद्गम हैं, लूटकर खत्म करने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह हो रहा है, जंगल गैर-वानिकी गतिविधियों के लिए प्राइवेट कंपनियों को सौंपे जा रहे हैं, गुपचुप, स्थानीय वनवासियों को बिना बताये, बिना उनकी सहमति लिये। ओड़िशा में इस सब का घातक प्रभाव आदिवासियों की आजीविका और पर्यावास पर तो पड़ेगा ही, जलवायु न्याय के लिहाज से भी ये फैसले विनाशकारी साबित होंगे। मौजूदा सांप्रदायिक और कारपोरेट-नियंत्रित, फासिस्ट शासन के तहत स्वाधीनता के 75वें साल में हमारा लोकतंत्र और हमारे संवैधानिक अधिकार गहरे संकट में हैं। हमारे लोकतंत्र और हमारे संविधान को बचाने का एक ही तरीका है, और वह है सत्याग्रह का।
(जनता वीकली से साभार)
अनुवाद – राजेन्द्र राजन