— प्रो राजकुमार जैन —
जवाहरलाल नेहरू को लेकर सोशलिस्ट तहरीक के दो साथियों चंचल bhu तथा रमाशंकर सिंह के बीच सवाल-जवाब हो रहा है, जिन्होंने बरगद के पेड़ के नीचे अपनी वैचारिक आँखें खोली हैं।
चंचल और रमा दोनों ने अपने लड़कपन, जवानी में सोशलिस्ट फलसफे को परवान चढ़ाने के लिए सिविल नाफरमानी के तहत सड़क पर संघर्ष करते हुए एक ओर जहाँ पुलिस और सरकारी पार्टी के कारिंदों की मार, जेल को सहा वहीं जलसे-जुलूसों में नारेबाजी, दरी-मेजों को सर पर उठाकर “हंगामी जलसों” में अपने नेताओं की तकरीरके लिए स्टेज बनाने से लेकर दिसंबर-जनवरी की हाड़ कंपकंपाती सर्दी में हाथ में रंग ब्रुश लेकर डॉ. लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ के सिद्धान्तों को नौजवानों में पहुँचाने के लिए विश्वविद्यालय की दीवारों पर पहले सफेदी फिर रंग ब्रुश से लिखकर रातें गुजारी हैं। उम्र के इस पड़ाव पर अब भी वे सोशलिस्ट विचार, दर्शन, सिद्धान्तों तथा उसके इतिहास के प्रचार प्रसार पर पूरी मुस्तैदी से, जुटे हुए हैं। इन दोनों को वैचारिक घुट्टी में एक चीज मिली थी कि सत्ता में कोई भी हो उस निजाम, बादशाहत, जोरावर का जब जुल्म, बेइन्साफी देखो उसकी तत्काल मुखालफत करो। आज भी उनकी क़लम से मुसलसल यह पढ़ने-सुनने को मिलता है।
परंतु एक ऐतिहासिक घटना पर इनमें जो जवाब-सवाल हुआ। उसको जानना बेहद, ऐतिहासिक, रोचक है। इसमें जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल का सोशलिस्टों के लिए क्या नज़रिया था वह भी देखने को मिलेगा।
सवाल रमा ने किया। “आज़ादी मिलते ही पहली बार डॉ. लोहिया के नेतृत्व में महिलाओं समेत कुल 70-80 निहत्थे अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर अश्रु गैस, लाठी चार्ज दिल्ली में मंडी हाउस के निकट क्यों किसने करवाया? (इशारा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की तरफ)।
चंचल का जवाब था, “रमा भाई के बहाने हम अपने उन तमाम शुभेच्छुओं से मुखातिब हैं जो अक्सर हमसे पूछते हैं, ताउम्र (वहीं आप वाली सीमा रेखा, रमा भाई) 2014 तक तुम कांग्रेस के विरोध में रहे, मार खाते रहे, जेल जाते रहे, अचानक कांग्रेस के समर्थन में कैसे आ गये यानी कांग्रेस और समाजवादियों का रिश्ता।
चंचल की वैचारिक घुट्टी फिर ज़ोर मारती है और कहती है कि “कांग्रेस के साथ तो हम अपने स्वार्थ के लिए हैं और हमारा स्वार्थ है, कल कांग्रेस सत्ता में आ जाए हम फिर सड़क पर तख़्ती लिये खड़े मिलेंगे”- “जो सरकार निकम्मी वो सरकार बदलनी है”- एवज में लाठी चार्ज होगा, पानी के फव्वारे फेंके जाएँगे, आँसू गैस के गोले फेंके जाएँगे, जेल की तनहाई मिलेगी। सरकार (कांग्रेसी) बताएगी नहीं कि ये देशद्रोही हैं, टुकड़े-टुकड़े गैंग है, आंदोलनजीवी है, …. नक्सल है, इसकी जगह सरकार पूछेगी- कौन हैं ये लोग? इनकी मांग क्या है? इन्हें रिहा किया जाए, बातचीत का न्योता दो।”
रमा भाई : हम खौफ में हैं हमारी एक पीढ़ी … हो चुकी है, बोलना बंद हो गया।
उपरोक्त सवाल जवाब का लब्बेलुआब यह है कि रमा चंचल से कहते हैं कि जिस जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने आज़ादी मिलते ही निहत्थे सोशलिस्टों पर अश्रु गैस के गोले दागे, लाठी चार्ज किया तथा उम्र भर मेरे और तुम्हारे जैसे हज़ारों सोशलिस्टों ने मार खाई, जेल गए, उसके समर्थक तुम किस बिना पर बन गए?
चंचल ने जवाब दिया कि कांग्रेस के सामने जो तंजीम बरसरेइकतदार हुई, उससे मुकाबला करने के लिए, राजनैतिक, वक़्ती मजबूरी के लिए ऐसा करना ज़रूरी था और है। चंचल फिर अपने सोशलिस्ट तेवर में आकर हुंकार भरते हैं कि हम उस सरकार के खि़लाफ़ भी सड़क पर लड़ते हुए मिलेंगे।
दरअसल इस सारी बातचीत की शुरुआत रमा के वाजिब गुस्से की एक घटना से उपजी। 25 मई 1949 को नेपाल दिवस पर दिल्ली में नेपाली दूतावास पर नेपाल में तानाशाह, राजशाही के द्वारा किये जा रहे लोकतंत्र विरोधी जु़ल्मों के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए लोहिया की रहनुमाई में निहत्थे शांतिपूर्ण जुलूस पर पुलिस ने अश्रु गैस के गोले, लाठी चार्ज तथा प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार कर इनको तीन महीने की सजा सुनाई गई थी।
रमा के सवाल से शायद एक गलतफहमी हो सकती है कि वे नेहरू के विरोधी हैं, जी नहीं, उनका विरोध प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा किये गये लाठी चार्ज, अश्रुगैस के गोले को लेकर था।
संघियों और अन्य नेहरू विरोधियों को रमा जवाब देते हुए लिखते हैं :
“निस्संदेह नेहरू आज़ादी की लड़ाई के एक ऐसे चमकते नक्षत्र हैं जिन्हें गांधीजी, शहीदे आजम भगतसिंह, सुभाष बोस, सरदार पटेल और आज़ादी के बाद उनके कटु आलोचक डॉ. लोहिया भी एक महानायक व प्रेरणास्रोत मानते रहे।”
(जारी)