(यह लेख नहीं है। यह रिजर्व बैंक आफ इंडिया के नाम एक पत्र है जिसे लिखा है भारत सरकार में ऊर्जा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय में सचिव रह चुके ई.ए.एस. सरमा ने। सरकारी बैंक जिस तरह नियम-कायदों को ताक पर रखकर अडानी ग्रुप को अंधाधुंध कर्ज मुहैया कराते जा रहे हैं उस पर इस पत्र में सवाल उठाए गए हैं, साथ ही देश की अर्थव्यवस्था पर इसके जो बेहद खतरनाक प्रभाव पड़ेंगे उसके बारे में आगाह किया गया है। पत्र अंग्रेजी में लिखा गया है जिसका हिन्दी रूपांतर यहां प्रस्तुत है।)
सेवा में
श्री श्रीकांत दास,
गवर्नर
रिजर्व बैंक आफ इंडिया
प्रिय श्री दास,
आरबीआई की नजर में क्रेडिट रिसर्च एजेंसी ‘क्रेडिट साइट्स’ की वह चिंताजनक रिपोर्ट अवश्य आयी होगी जिसमें भारत में और भारत के बाहर भी अडानी ग्रुप के अत्यधिक कर्ज आधारित विस्तार-कार्यक्रम के बारे में बताया गया है।(https://www.reuters.com/world/india/indias-adani-group-deeply-overleveraged-creditsights-says-2022-08-23/)
रिपोर्ट में क्रेडिट रिसर्च एजेंसी ने यह मसला उठाया है कि “ग्रुप (अडानी ग्रुप) की कर्जपोषित वृद्धि-योजना एक बहुत बड़े कर्ज-जाल में फंस जा सकती है और इसकी परिणति एक बड़े आर्थिक संकट में होगी या ग्रुप की कंपनियां कर्ज की किस्तें चुकाने में अक्षम हो जाएंगी तथा और व्यापक फलक पर देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था की ऐसी दुर्गत होगी जैसी पहले कभी नहीं हुई थी।”
मैं निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि यह रिपोर्ट अडानी ग्रुप की वास्तविक वित्तीय स्थिति को किस हद तक बयान करती है, लेकिन मैं इस बारे में आश्वस्त हूॅं कि आरबीआई अत्यावश्यक मानकर इस मामले पर गौर करेगा।
इस मामले में निम्नलिखित चिंताएं उभरती हैं।
अडानी ग्रुप का सम्मिलित कर्ज 40.5 फीसद की तेज बढ़ोतरी के साथ वित्तवर्ष 2021-22 में लगभग 2.21 लाख करोड़ रु. तक पहुंच गया। उससे पहले के वित्तवर्ष में यह राशि 1.57 लाख करोड़ रु. थी।(https://www.news18.com/news/business/adani-groups-debt-up-40-to-rs-2-21-lakh-crore-in-fy22-adani-enterprises-sees-highest-rise-5370031.html)
वित्तीय स्थिरता के लिहाज से देखें तो यह बड़ा ही अहम मसला है।
एक खबर के मुताबिक (https://www.financialexpress.com/industry/sbi-to-refinance-adanis-loans-through-525/73493/) एसबीआई कुछ समय पहले अडानी ग्रुप की बिजली कंपनियों – अडानी पॉवर महाराष्ट्र (एपीएमएल) और अडानी पॉवर राजस्थान (एपीआरएल) – को फिर से 5000 करोड़ का कर्ज देने के लिए राजी हो गया था, तथाकथित “5/25 स्कीम” का इस्तेमाल करते हुए, जो कि और कुछ नहीं बल्कि लिये गए कर्ज की किस्तें या ब्याज चुकाने में नाकामी को अनदेखा करना और देनदारी को छिपाते हुए नया कर्ज मुहैया कराना है। यह निहायत अविवेकी रवैया है जिसे सरकारी बैंकों ने बड़े व्यापारिक घरानों पर खास मेहरबानी दिखाते हुए अपना रखा है। जबकि ऐसी सहूलियत न मिलने से देश के लाखों किसान खुदकुशी करने को मजबूर होते हैं! किसानों की कर्जमाफी को बड़े संवेदनहीन ढंग से ‘रेवड़ी बांटना’ कह दिया जाता है जबकि कारपोरेट जगत को टैक्सों में दी जानेवाली छूट को वाहवाही मिलती है, यह कहते हुए कि यह “कारोबारी सुगमता” (इज आफ डूइंग बिजनेस) को बढ़ाने वाला कदम है!
ऐसा लगता है कि कर्जों को ‘पुनर्गठित’ करते हुए कारपोरेट जगत को सरकारी बैंकों द्वारा दी जानेवाली रियायतों को रिजर्व बैंक का अनुमोदन है। यह तथ्य इस बात की ओर इशारा करता है कि आरबीआई और सरकारी बैंक राजी-खुशी, पहले से ही अत्यधिक ऋणग्रस्त कंपनियों के खैरख्वाह बनते जा रहे हैं, जैसा कि अडानी ग्रुप के मामले में दीख रहा है। अकसर किसी व्यक्ति या प्राइवेट कंपनी की इसी तरह की कर्जखोरी एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) की वजह बनती है। क्या आरबीआई को चिंतित नहीं होना चाहिए?
ऐसी खबरें हैं कि एसबीआई इसी तरह की ऋण सुविधा, 5000 करोड़ की या उससे अधिक की, अडानी ग्रुप को आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत में उसकी कारमाइकेल कोल परियोजना के लिए देने पर विचार कर रहा है, जिस परियोजना को लेकर दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब अडानी ग्रुप के अत्यधिक कर्जग्रस्त परिचालन को लेकर सवाल उठे हैं। मैं इसके बारे में पहले के एक लेख में, 2019 में, लिख चुका हूं।(https://scroll.in/article/923201/from-2014-to-2019-how-the-adani-group-funded-its-expansion)
आरबीआई ने पिछले चार साल से जिस तरह की खामोशी अख्तियार कर रखी है उस पर मैं हैरान हूं क्योंकि वह रिपोर्ट इतनी विस्तृत तो है ही कि सचेत होने और कार्रवाई करने के लिए काफी है।
हाल के वर्षों में अडानी ग्रुप का काफी आक्रामक तरीके से विस्तार हुआ है। अडानी ग्रुप ने बंदरगाह, हवाई अड्डे, बिजली, कोयला, अक्षय ऊर्जा, सीमेंट, एलुमिनियम, एकदम हाल में 5जी स्पेक्ट्रम, यहां तक कि मीडिया पर वर्चस्व कायम किया है। संभवतः शेयरों के बजाय कर्ज के बल पर वे इस तरह धावा बोलते जा रहे हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर आरबीआई को चिंतित होना चाहिए।
इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि बड़े घराने मीडिया पर भी नियंत्रण करते जा रहे हैं जिसका हमारे लोकतंत्र पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। मेरा मानना है कि स्वतंत्र प्रेस और मीडिया को बचाने के लिए केंद्र सरकार को भी, जिसे मैं इस पत्र की एक प्रति भेज रहा हूं, फौरन कार्रवाई करनी चाहिए।
यह ग्रुप (अडानी ग्रुप) कितने आक्रामक ढंग से नए क्षेत्रों में प्रवेश कर रहा है इसका एक उदाहरण यह है कि इसने ग्रीनको के साथ मिलकर 6 से ज्यादा राज्यों में लगभग 20,000 मेगावाट की पंप्ड स्टोरेज परियोजनाओं के समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं, सब के सब एकदम गैरपारदर्शी तरीके से। इन परियोजनाओं के लिए जिन स्थानों का चयन किया गया है वे चयन अधिसूचित क्षेत्र (शिड्यूल्ड एरिया) के लिए बने पेसा और वनाधिकार अधिनियम जैसे विशेष कानूनों का उल्लंघन करते हैं। इसके लिए 1 लाख करोड़ रु से अधिक के निवेश की जरूरत पड़ेगी, संभवतः इसकी अधिकांश राशि सरकारी बैंकों और पीएफसी (पब्लिक फाइनेंस कारपोरेशन) जैसे वित्तीय संस्थानों से ही प्राप्त की जाएगी। क्या यह मामूली धनराशि है!
भारत में शीर्ष स्तर पर थोड़ा सा दबाव डालकर अडानी ग्रुप ने पहले ही श्रीलंका में बंदरगाह और अक्षय ऊर्जा की परियोजनाओं में प्रवेश कर लिया है, जिसको लेकर श्रीलंका में सवाल उठ रहे हैं, और यह एक ऐसा मसला है जिसे लेकर भारतीय विदेश नीति के नियंताओं को चिंतित होना चाहिए।
यह देखते हुए कि इस कर्ज का अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से आएगा जिनकी मालिक सरकार और अन्ततः जनता है, लोक हित के कई गंभीर सवाल उठते हैं। आरबीआई पर बैंकों के परिचालन का नियमन करने की संवैधानिक जिम्मेदारी है ताकि बैंकिंग नियमन अधिनियम के तहत जमाकर्ताओं और शेयर धारकों के हित सुरक्षित रहें।
इस पृष्ठभूमि में, अडानी ग्रुप का परिचालन कर्ज में डूबे होने के मद्देनजर, मैं आरबीआई से अनुरोध करता हूं कि वह इस बात का व्यापक आकलन करे कि यह स्थिति बैंकिंग व्यवस्था और उसकी स्थिरता के लिए कितनी खतरनाक साबित हो सकती है।
भारत में दूसरे भी कारपोरेट घराने हो सकते हैं जो सियासी सरपरस्ती का लाभ उठाकर अपनी कंपनियों के परिचालन और नए इलाकों में विस्तार के लिए अंधाधुंध कर्ज का सहारा ले रहे हों। इससे सरकारी बैंकों के लिए खतरे पैदा होंगे और कुल मिलाकर वित्तीय स्थिरता पर नीचे तक असर पड़ेगा। यह वह समय है जब आरबीआई को सतर्क हो जाना चाहिए और कार्रवाई करनी चाहिए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।
सरकारी बैंक कारपोरेट घरानों को फंड मुहैया कराते हैं जोकि सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उद्यमों और उनकी बेशकीमती परिसंपत्तियों को बड़े पैमाने पर अंधाधुंध बेचे जाने (विनिवेश) के लाभार्थी हैं। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर वित्त मंत्रालय सरकारी बैंकों के निजीकरण की योजना बना डाले और सरकारी-बैंक शीघ्र सरकार के हाथों से निकलकर कारपोरेट के हाथों में चले जाएं।
भवदीय
ई. ए. एस. शर्मा
पूर्व सचिव, भारत सरकार
विशाखापट्टनम
26-8-2022
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अनुवाद : राजेन्द्र राजन