— विनोद कोचर —
(इस लेख के लेखक विनोद कोचर एक समय पूरी तरह आरएसएस के रंग में रँगे थे। लेकिन जब वह आपातकाल में जेल में मधु जी के सान्निध्य में आए तो उनका मानस-परिवर्तन हो गया। यह सान्निध्य उनके लिए आँख खोल देनेवाला अनुभव साबित हुआ। उन्हें शिद्दत से यह अहसास हुआ कि आरएसएस में जो कुछ बताया-सिखाया जाता है उसमें कोई सच्चाई नहीं है, सिर्फ द्वेष और दुष्प्रचार है। अब जब अपने अनुभवों के आधार पर कोचर साहब आरएसएस की असलियत उजागर करते रहते हैं तो अकसर संघ-भाजपा के लोगों के निशाने पर आ जाते हैं। यहाँ पेश है आपातकाल में मधु जी के सान्निध्य का उनका संस्मरण। प्रसंगवश याद दिला दें, यह मधु जी का शताब्दी वर्ष है।)
भारतीय राजनीति के जानकारों के लिए मधु लिमये (मधु जी) कोई अनजाने व्यक्ति नहीं हैं। महान समाजवादी चिंतक, नेता और सांसद, डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में, संसद में और संसद से बाहर सड़क पर, भारतीय राजनीति में भारतीय समाजवाद की कलमें अंकुरित करनेवाले एक सच्चे देशभक्त थे मधुजी।
गांधीजी के आह्वान पर कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर, 1942 में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन से लड़ाकू राजनीति की शुरुआत करनेवाले मधुजी द्वारा 1975 से पहले तक लड़ी गई लड़ाइयों के बारे में मैंने, आरएसएस के रंग में पूरी तरह से डूबे रहने के बावजूद, अपनी अध्ययनप्रियता के चलते, कुछ पढ़ा और सुना भर था।
लेकिन 1975 से 77 के बीच, जेल के सीखचों के भीतर से, न केवल अपनी कथनी बल्कि अपनी करनी से भी, मधुजी द्वारा आपातकाल के विरोध में लड़ी गई लड़ाइयों का, मैं न केवल चश्मदीद गवाह बना बल्कि मधुजी के सान्निध्य ने मुझे भी समाजवादी बना डाला। 25 अगस्त 1975 को मुझे बालाघाट जेल से और 7 सितंबर 1975 को मधुजी को रायपुर जेल से नरसिंहगढ़ जेल में स्थानांतरित किया गया था। 21 मार्च 1977 तक मुझे और 14 नवंबर 1976 तक मधुजी को नरसिंहगढ़ जेल में रखा गया था। जेल में मुझे मधुजी का सान्निध्य अनवरत 14 महीनों तक मिलता रहा।
इन 14 महीनों में मधु जी ने अपने कर्मों, विचारों और लेखन से, आपातकाल के विरोध में कई यादगार लड़ाइयाँ लड़ीं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लोकसभा की मियाद एक साल आगे बढ़ाए जाने के अलोकतांत्रिक निर्णय का, कथनी के बजाय करनी से विरोध करने के लिए, मधुजी ने जेलों में बंद प्रतिपक्ष के सांसदों को, 25 दिसंबर 75 को, अपनी पत्नी चंपा जी लिमये के जरिए एक परिपत्र भिजवाया था। इस परिपत्र में मधु जी ने लिखा था कि ‘…अनैतिक ढंग से लोकसभा का कार्यकाल एक साल आगे बढ़ाने के निर्णय का, प्रतिपक्ष के सांसद 18 मार्च, 1976 के तत्काल बाद ही लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर विरोध करें।’
इस परिपत्र में मधु जी ने आगे ये भी लिखा था कि…‘लोकसभा की मियाद अनैतिक ढंग से बढ़ाने का अर्थ ये होगा कि व्यक्ति शासन से अधिनायकवाद की ओर संक्रमण पूरा हो गया। अनैतिक ढंग से इस तरह सत्ता में बने रहने का स्पष्ट मतलब है कि लोगों ने स्वेच्छा से आंदोलन पर जो मर्यादाएं लगाई हैं, वे अब समाप्त होती हैं। आंदोलन के समर्थक अब दो हिस्सों में बँटें। एक खेमे में वे सब रहेंगे जो परंपरागत सिविल नाफरमानी के रास्ते पर चलेंगे। दूसरे में वे समर्थक होंगे जो 1942 की ‘न हत्या न चोट’ वाली रणनीति पर चलेंगे। संघर्ष समिति का नाम सिर्फ सिविल नाफरमानी वाले ही लें। अन्य लोग अपना अलग भूमिगत संगठन बनाएं जिसके अपने छापेखाने, अखबार, प्रकाशन, प्रसारण यंत्र और छापामार दस्ते (एक्शन स्क्वेड) रहेंगे। दो संगठन के तंत्रों और संघर्ष के दो तरीकों को मिलाने से कोई लाभ नहीं। उससे अकारण विभ्रम पैदा होता है। समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सिपाही स्वेच्छा से निर्णय करें कि उन्हें किस तंत्र पर चलना है और परस्पर कटुता एवं आलोचना के बिना अपने निर्णय को कार्यान्वित करें’।
अपनी इस कथनी को करनी में बदलते हुए, मधु जी ने 8 मार्च, 1976 को अपना ऐतिहासिक त्यागपत्र प्रेषित कर, 18 मार्च 1976 के बाद लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। मधु जी के दिल से निकली संघर्ष की इस गांधीवादी अपील को सिर्फ युवा समाजवादी सांसद शरद यादव ने ही माना और 14 मार्च 1976 को इंदौर जेल से इस्तीफा देकर लोकसभा की सदस्यता का परित्याग किया।
तब स्वयं लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित देश के अनेकानेक लोकतंत्र समर्थकों ने मधु जी और शरद जी को पत्र लिखकर उनके इस साहसिक संघर्ष की दिल खोलकर सराहना की थी।
एक तरफ मधु जी आपातकाल के विरुद्ध गांधी/लोहिया वादी तौर-तरीकों से लड़ने के लिए देशवासियों और विपक्ष को ललकार रहे थे तो दूसरी तरफ प्रतिबंधित आरएसएस के नेता, जेलों में बंद अपने स्वयंसेवकों की रिहाई के लिए विनोबा भावे और श्रीमन्नारायण को, गिड़गिड़ाते हुए, इंदिरा गांधी को पत्र लिखने के लिए विनती कर रहे थे।
संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री बाबासाहब देवरस तो स्वयं ही यरवदा जेल से श्रीमती इंदिरा गांधी को, अपातकाल के समक्ष घुटने टेकते हुए, ‘इंदिरा शरणं गच्छामि’ वाली भावमुद्रा में पत्र लिख रहे थे और श्रीमती गांधी को ये यकीन दिलाने की असफल कोशिश कर रहे थे कि श्री जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से आरएसएस का कोई संबंध नहीं है जबकि श्रीमती इंदिरा गांधी भी ये जानती थीं कि उनसे त्यागपत्र की माँग के पीछे, जनसमर्थन संगठित कर संघर्ष करने हेतु जिस लोक संघर्ष समिति का गठन किया गया था, उसके मंत्री आरएसएस के वरिष्ठ स्वयंसेवक और जनसंघ के नेता श्री नानाजी देशमुख चुने गए थे।
और तत्कालीन जनसंघ के शीर्षस्थ नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी क्या कर रहे थे? श्रीमती इंदिरा गांधी के सामने लोकतंत्र की पुनर्बहाली की कोई शर्त रखे बिना ही, उस समय हो रहे राज्यसभा के चुनावों में उम्मीदवार बनकर राज्यसभा के निरुपयोगी सदस्य बन बैठे थे।
मधु जी ने जेल में रहते हुए, अपनी सत्याग्रही करनी से, और भी कई लड़ाइयां लड़ीं।
जेल में मधु जी द्वारा अपने ट्रांजिस्टर की होली जलाकर लड़ी गई लड़ाई की कहानी तो ऐसी है जिसमें न केवल आपातकाल के दिनों में अफसरशाही की निरंकुश उच्छृंखलता, कानून की नासमझी, अधिकारों के बेशर्म दुरुपयोग आदि के अलावा एक जेलर द्वारा, मधुजी के प्रति सम्मान की खातिर, कलेक्टर के आदेश की नाफरमानी और आईजी प्रिजंस की धमकी के बावजूद अपनी नौकरी तक गँवाने की तत्परता के साथ-साथ जेलर के प्रति मधु जी के करुणावत्सल स्वभाव का भी पता चलता है।
ये कहानी मेरी डायरी में दिनांक 21 मार्च 1976 में सविस्तार दर्ज है और इतनी रोचक है कि उसे अलग से छापा जाना चाहिए। जेल से मधु जी ने श्रीमती इंदिरा गांधी को जितने भी पत्र लिखे वे भी एक तरह के पत्र-युद्ध से कम नहीं हैं। उदाहरण के लिए, मधु जी का इंदिरा जी को लिखा गया ये छोटा सा पत्र पठनीय है जिसका संदर्भ है प्रधानमंत्री की अजमेर यात्रा। पत्र का विषय है- ‘गुलाबी सड़क‘ ।
मधुजी लिखते हैं कि –
‘सरकारी पहल पर सभी समाचार एजेंसियों के एकीकरण से ‘समाचार एजेंसी’ बनी है इसलिए उसे अर्धसरकारी एजेंसी कहना अनुचित नहीं होगा। उसने निम्न समाचार प्रसारित किया है : ‘प्रधानमंत्री के लिए गुलाबों की सड़क …।
प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के 24 अक्टूबर, 1976 को अजमेर आगमन पर उनके लिए गुलाब बिछाकर फूलों का मार्ग बनाया जाएगा। जिलाधीश की अध्यक्षता में, प्रधानमंत्री के आगमन पर स्वागत के लिए आयोजित बैठक में यह निर्णय लिया गया है कि उनके स्वागत में 251 स्वागत द्वार बनाए जाएंगे। (नवभारत भोपाल, दिनांक 15-10-76,पृष्ठ 1, कॉलम 6)’।
कहते हैं कि मुगलेआजम ने अजमेर की यात्रा चिलचिलाती धूप में, नंगे पैर की थी। अंग्रेजों के बड़े लाटसाहब के लिए भी स्वागत का ऐसा इंतजाम शायद ही हुआ होगा। फिर दो-तिहाई कंगाल और रंगीन दुनिया की नेता के लिए शान का ऐसा अभद्र प्रदर्शन क्यों? फूलों को पौधों पर देखकर मन प्रसन्न होता है। लोग उन्हें देवताओं पर चढ़ाते हैं। फूलदानियों में वे अच्छे लगते हैं। हमारे यहाँ की औरतें फूलों से बालों को सँवारती है। मेरा खयाल है कि फूलों की सड़क पर आपकी और आपके सहयोगियों की शोभायात्रा की कल्पना आपको भी अच्छी नहीं लगे इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि ऐसे चापलूसों से भगवान आपको बचाए।
आपका,
मधु लिमये’
भयातुर जनता व मीडिया को निडर बनाने के सदाशय से, आजादी की लड़ाई के गांधी युग के इतिहास का भी, मधुजी ने परिशीलन किया। महात्मा गांधी संपूर्ण वांग्मय के 90 से भी अधिक खंडों में से, छांट-छांटकर मधुजी ने कई सारे सामयिक प्रसंगों को संकलित किया था ताकि उन्हें प्रकाशित करवाकर, आपातकाल के आतंक से डरी-सहमी जनता में निर्भयता का संचार हो तथा अभिव्यक्ति की आजादी की खातिर, मीडिया में त्याग और बलिदान की भावना पैदा हो और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के अहिंसक हथियार के रूप में ‘सत्याग्रह’ की सर्वकालिकता से संदेह के बादल छँट सकें।
मधु जी की प्रासंगिक टिप्पणियों सहित, ये सारा संकलन, श्री एन.जी. गोरे ने (जो बाद में जनता पार्टी के राज में ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे), अपनी नियतकालिक पत्रिका, ‘पीपुल’ में, ‘सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी’ शीर्षक से तत्काल ही प्रकाशित भी किया था।
खुले आकाश में अनगिनत टिमटिमाते तारों के बीच, उँगलियों पर गिने जा सकने वाले अपलक, एकटक निहारते ग्रहों को मधुजी बड़ी आसानी से चीन्हलेते थे। मुझे लगता था कि वे तारेनुमा साथियों के बजाय, ग्रहनुमा साथियों की तलाश करते रहते थे जो हर अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने विचारों और उसूलों के साथ कभी भी समझौता नहीं करते।
उनके व्यक्तित्व की इस खासियत को अभिव्यक्त करने के लिए मैंने जेल में मनाई गई होली के अवसर पर, मधुजी के लिए लिखा था कि :
सपने टूट-टूट जाते हैं, साथी छूट-छूट जाते हैं!
कड़ी परीक्षा के मौके, योगी के जीवन में आते हैं!
काली रात बड़ी लंबी है, मैं ना इससे डरता हूँ!
टिम टिम करते तारों में भी, ग्रह ढूंढ़ा मैं करता हूँ।
मधु जी अपने लेखन और कर्मों से आज भी, समाजवादी आंदोलन की कभी न बुझनेवाली मशाल की तरह, अपने अनुयायियों को संदर्भानुकूल राह दिखाते हुए मानो ये कह रहे हैं कि :
गिरि श्रृंगों पर अभय आज भी, शंख फूँकता चलता हूँ,
बुझा कहाँ मैं?
मध्यसूर्य के आलिंगन में जलता हूँ!