— कुमार प्रशांत —
उन्हें ठीक इसी तरह जाना था जैसे वे गए– बेआवाज, अचर्चित! 91 साल की उम्र और लंबी बीमारी से जर्जर शरीर व मन को आगे खींचना जब शक्य नहीं रहा तब उन्होंने आँखे मूँद लीं। आँख मूँदने में भला कोई आवाज होती है! !लेकिन यह उस आदमी का आँख मूँदना था जिसने अपने वक्त में, दुनिया को आँखें फाड़ कर अपनी तरफ देखने-समझने पर मजबूर कर दिया था। 1985-91 के उस दौर में आत्मविश्वास व संकल्प से भरा वैसा दूसरा नेता विश्व रंगमंच पर नहीं था। वे साम्यवादी सोवियत संघ के वैसे प्रधान थे जिसने साम्यवाद का चश्मा नहीं लगा रखा था और न यूरोप-अमरीका की दौलत का आतंक उस पर असर डालता था। वे रूसी किसान परिवार के बेटे थे– ग्रामीण परिवेश से निकला एक ऐसा युवा जिसकी आँखों में अपने देश व अपनी दुनिया के बारे में एक सपना था : “मैंने खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पहचाना था जिसे उन बुनियादी सुधारों की दिशा में काम करना है जिसकी मेरे देश और यूरोप, दोनों को जरूरत है।’’
आज शायद यह समझना भी मुश्किल हो कि तब की दुनिया की दो महान व विकराल महाशक्तियों में एक सोवियत संघ का राष्ट्रपति व वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी का मुखिया होने का मतलब क्या होता था! मिखाइल सर्गेइविच गोर्बाचेव को भी शायद यह पता नहीं था कि वे जिस कुर्सी पर पहुँचे हैं उसका कद व उसका रुतबा क्या होता है। ऐसा इसलिए था कि वे रुतबे से कहीं ज्यादा रिश्ते की अहमियत जानते व पहचानते थे। रिश्ते उनकी राजनीति व उनकी राजनयिक रणनीति का आधार थे।
बहुत छोटी उम्र में वे सोवियत संघ के सर्वेसर्वा बने थे। 15 साल की छोटी उम्र में वे सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के युवा संगठन में शामिल हुए और वे फिर जैसे दौड़ते हुए ऊपर चढ़े। सोवियत संघ के तत्कालीन विचारक-रणनीतिकार मिखाइल सुस्लोव ने इस युवा का हाथ थामा, इसे आगे बढ़ाया। वे जानते थे कि वे जो बने हैं वहाँ से उन्हें बनाने की शुरुआत करनी है। वे रूसी समाज के भीतर की खलबलाहट व घुटन को पहचानते थे। उनके बुजुर्गों ने साम्यवादी चाबुक झेली थी; शीतयुद्ध की विभीषिका से उन सबका साबका पड़ता रहा था। इसलिए गोर्बाचेव ने बहुत तेजी से, बहुत निश्चित दिशा में काम करना शुरू किया।
दुनिया भर में राष्ट्राध्यक्षों को गोर्बाचेव से परेशानी हुई। उन्होंने सोवियत संघ का ऐसा सर्वेसर्वा कभी देखा कहाँ था जो पारदर्शी निश्छल मन व सूरत लिये उनके बीच पहुँचता था। जो खुली, मानवीय हँसी हँसता था, संगीत सुनते हुए जिसकी आँखें भीग जाती थीं, जो अपनी पत्नी का भावुक प्रेमी था, जिसे हत्या व षड्यंत्र से वितृष्णा थी। यह सब तब भी और आज भी राजनीतिक पकवान के मसाले नहीं माने जाते हैं। गोर्बाचेव के पास दूसरे मसाले थे नहीं। ऐसा नहीं था कि वे सोवियत राजनीति की गलाकाट स्पर्धा और उसके खूनी इतिहास से परिचित नहीं थे और न ऐसा ही था कि विश्व राजनीति के घाघ दादाओं को पहचानते नहीं थे। ऐसा भी नहीं था कि वे ताकत की राजनीति और कूटनीतिक चालों को नहीं समझते थे। था तो बस इतना ही कि वे इन सबको खारिज करते थे। वे कुछ दूसरी ताकतों के बल पर सोवियत संघ को बदलना चाहते थे और जानते थे कि सोवियत संघ में कोई भी बदलाव तब तक संभव नहीं है जब तक दुनिया में बदलाव की बयार न बहे।
यह करने के लिए अपने दो हथियार चुने उन्होंने : ग्लासनोस्त (खुला दरवाजा) और पेरेस्त्रोइका (आर्थिक सुधार)। रूसी क्रांति के बाद से ही ये दोनों मनोभाव सोवियत संघ में लगभग बहिष्कृत ही थे। दरवाजा उतना ही और तभी खुलता था जितना और जभी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के आका इजाजत देते थे; वही व उतनी ही आर्थिक दुनिया वहाँ मान्य थी जितनी आका इजाजत देते थे। इससे अधिक व इससे अलग जो कुछ भी था वह सब अमरीकी पूँजीवादी जाल था जो सोवियत संघ के सामान्य नागरिकों के लिए सर्वथा निषिद्ध था। गोर्बाचेव ने इन्हीं दोनों को आगे बढ़ाया– रूसी शासन के दरवाजे खोले और आर्थिक सुधारों की हवा बहाई। ऐसा करते हुए वे सावधान रहे कि दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध जारी रहे, उठाने-गिराने की चालें चली जाती रहें तो कोई परिवर्तन संभव नहीं होगा। इसलिए यूरोप-अमरीका के साथ रूसी संबंधों को एक नई जमीन देने की उन्होंने ऐसी पहल की, और इतनी तेजी से की कि सब अवाक् देखते ही रह गए।
देखते-देखते रूसी समाज पर स्टालिन के जमाने का इस्पाती पंजा ढीला पड़ने लगा, यूरोप, अमरीका व सोवियत संघ घुलने-मिलने लगे, संधियाँ भी हुईं, कई मर्यादाएँ भी तय हुईं। 28 साल पुरानी व अभेद्य बर्लिन की दीवार ढह गई; पोलैण्ड, हंगरी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया टूटा। वारसा-संधि के देश यहाँ-वहाँ हुए। इन सबको रोकने के लिए केजीबी ने पोशीदा बगावत का षड्यंत्र रचा लेकिन वह विफल गया। गोर्बाचेव ने कुर्सी छोड़ दी, सोवियत संघ दरक गया।
“इससे कम गति से यह सब किया ही नहीं जा सकता था। सोवियत संघ के भीतर भी और दुनिया में भी ऐसे परिवर्तनों की जड़ काटनेवाली ताकतें मौजूद हैं, यह मैं जानता था। इसलिए उनकी गति से अधिक तेजी लाने की जरूरत थी। यूरोप समझे इससे पहले तो आणविक हथियारों पर प्रतिबंध की संधि भी मैंने पूरी कर ली थी,” गोर्बाचेव याद करते थे, “इतना जरूर अब लगता है मुझे कि पेरेस्त्रोइका को पहले करता मैं ताकि सोवियत नागरिक उससे खूब परिचित हो जाते तब ग्लासनोस्त की शुरुआत करता तो यह जो बिखराव हुआ सोवियत संघ का, वह बचाया जा सकता था।” ऐसा आत्मसंशय बुनियादी परिवर्तन की कोशिश करनेवाले हर आदमी के भीतर कभी-न-कभी उठता ही है। बिखरता देश, टूटता साम्यवादी तिलिस्म और पश्चिमी आकाओं में सोवियत संघ के कमजोर पड़ने की अमर्यादित खुशी– इन सबका कितना दबाव गोर्बाचेव पर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है लेकिन वे भीतर से कितने मजबूत व दृढ़ रहे होंगे, यह भी समझा जा सकता है।
सच तो यह है कि दरवाजा खोलना भर ही आपके हाथ में होता है– फिर खुला दरवाजा अपनी गति व दिशा दोनों तय करने लगता है। दबाव, ताकत व दमन के जिस ईंट-गारे से सोवियत संघ– और पूरा साम्यवादी खेमा बनाया गया था, उसे बिखरना ही था और इसी तरह बिखरना था। क्या पाकिस्तान सारा जोर लगाकर भी खुद को बिखरने से रोक सका? पाकिस्तान एक कृत्रिम रचना थी। उसकी जिंदगी उतनी ही लंबी थी। ऐसा ही सोवियत संघ के साथ भी था।
सोवियत संघ को बिखरना ही था जैसे यूरोपीय यूनियन को अप्रभावी होना ही था। नाटो जैसी संधियाँ अर्थहीन होनी ही थीं। गोर्बाचेव के कारण यह बिखराव शांतिपूर्ण व स्वाभाविक हुआ अन्यथा इसका स्वरूप बहुत खूनी व प्रतिगामी हो सकता था।
हम यह भी देख रहे हैं कि सोवियत संघ जिन 8 मुल्कों में टूटा वे सब अब तक अपना ठौर पा चुके हैं, अपनी तरह जी रहे हैं। पुतिन व रूस का दर्द व वहाँ पसरी गोर्बाचेव की आलोचना कुछ वैसी ही है जैसी कुछ मुस्लिमों के मन की यह गांठ कि हम तो शासक थे जिहें अंग्रेजों ने बेदखल कर दिया!पाकिस्तान भी बिसूरता ही रहता है कि भारत ने शह देकर हमें तोड़ा व बांग्लादेश बनवाया। अखंड भारत वाले बिसूरते हैं कि हम तो ऐसे थे जिसे ऐसा बना दिया गया। ये सभी इतिहास की गति को नहीं पहचानने वाले‘फॉसिल्स’ हैं जो समाज व मानव-चेतना की राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा में अवशेष-से छूट गए हैं।
गोर्बाचेव इतिहास की उस यात्रा को गति देकर चले गए। वे महात्मा गांधी नहीं थे लेकिन अपनी कोशिशों व अपने लक्ष्यों में वे कोई गांधी-तत्त्व छिपाए जरूर थे। सांप्रदायिक दंगों के दावानल के सामने महात्मा जिस तरह खड़े-अड़े-लड़े उससे अभिभूत होकर वाइसरॉय मांउटबेटन ने उन्हें ‘एक आदमी की फौज’कहा था। इतिहास गोर्बाचेव के लिए भी ऐसा ही कहेगा– एक निहत्थे आदमी ने अकेले दम पर मेरी दिशा व दशा दोनों बदल दी! हम अपनी दुनिया कितनी बदल पाएंगे यह तो पता नहीं लेकिन जब कभी दुनिया मनुष्यों के रहने के लिए आज से ज्यादा शांत, उदार व न्यायप्रिय बनेगी, वह गोर्बाचेव को याद जरूर करेगी।