(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
एक-ईश्वरवाद एक अत्यंत विनाशकारी सिद्धांत है। स्वयं धर्म का उच्चतम रूप होने के कारण वह अन्य धर्मों की जड़ों पर कुठाराघात करता है। वह ईश्वर को संसार से परे मानता है अतः ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की संभावना पैदा होती है जिसमें ईश्वर के बिना भी सृष्टि का काम चल सके। कठोर एकात्मवादी धर्म होने के कारण इस्लाम मानव-इतिहास के उस अध्याय को समाप्त कर देता है जिसमें धार्मिक भावना की ही प्रधानता रहती थी और उसका स्वभाव ऐसा था जिसके द्वारा अशास्त्रीय आधार पर संसार की व्याख्या की जा सके। उस प्रकार की व्याख्याओं ने पुराने धार्मिक विचारों के स्थान पर आधुनिक विवेकवाद की नींव रखी। हम लोग एकात्मवाद की तुलना एक महान झील से कर सकते हैं जिसमें विज्ञान की बाढ़ का पानी जमा होता है और जब पानी सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो उसका बाँध टूट जाता है और वह बहने लगता है….एकात्मवादी धर्मों में तीसरा धर्म होने के कारण इस्लाम भौतिकवाद के सबसे निकट है। यह अन्य धर्मों की तुलना में नया है और उसने पहली बार अरब सभ्यता के उत्कृष्ट विकास में योगदान किया और स्वतंत्र दार्शनिक भावना से उसका संबंध स्थापित किया। उस दार्शनिक भावना का मध्ययुग में यहूदियों पर शक्तिशाली प्रभाव था और जिसने पश्चिम के ईसाई धर्म को भी प्रभावित किया था।
(फए. ए. लांगे – दि हिस्ट्री ऑफ मैटीरियलिज्म, भाग 1, पृ. 174-177)
एकात्मवादी धर्मों में सबसे अधिक पूर्ण होने के कारण इस्लाम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही। कुरान की अपरिपक्वता से इस्लाम के क्रांतिकारी प्रभावों को विकसित करने में बाधा नहीं पड़ी।
इस्लाम के कठोर एक-ईश्वरवाद के सिद्धांत से खुदा के रसूल होने के हजरत मुहम्मद के दावे का निषेध भी हुआ। कुरान में मूसा और ईसा को मसीहा स्वीकार किया गया है और अन्य हिब्रू मसीहाओं को ईश्वर का दूत कहा गया है। यद्यपि हजरत मुहम्मद के रसूल होने के दावे का खुला विरोध आरंभ में नहीं किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने गुप्त रूप से उसमें संदेह व्यक्त किया था। अल्लाह का रसूल होना इस्लाम का मौलिक सिद्धांत नहीं है। उसकी उस विशिष्टता का आधार एक-ईश्वरवाद का सिद्धांत है। हजरत मुहम्मद की मृत्यु के तत्काल बाद उनके अनुयायियों में इस संबंध में मतभेद पैदा हो गए थे। जब हजरत मुहम्मद की मृत्यु का समाचार सीरिया पर आक्रमण के लिए तैनात अरब सेना को मिला तो उनके भक्त उमर ने उस खबर पर विश्वास करने से इनकार कर दिया और उस व्यक्ति का सिर काटने की धमकी दी जो यह खबर लाया था और जिसे उन्होंने काफिर समझा था। इस पर वयोवृद्ध अबूबकर ने युवा अरब नेता को झिड़की देकर समझाया : ‘क्या तुम मुहम्मद की आराधना करते हो अथवा उसके अल्लाह की आराधना करते हो? मुहम्मद का अल्लाह हमेशा जीवित है लेकिन उनका रसूल हम जैसा आदमी था जो हमारी तरह पैदा होता है और मरता है। हजरत मुहम्मद ने अपनी भविष्यवाणी के अनुसार साधारण मनुष्यों के जीवन का अनुभव भोगा था।’
यह भी विचारणीय बात है कि हजरत मुहम्मद के उत्तराधिकारी ने उनके न रहने पर उन्हें ईश्वरीय शिक्षा देनेवाला धर्मगुरु कहा था और उन्हें मसीहा या रसूल नहीं कहा था। धर्मगुरु की कोटि में रखकर हजरत मुहम्मद को अन्य धर्मगुरुओं की श्रेणी में उनके अनुयायियों ने रखा था। इस्लाम के मसीहा या रसूल को दैवी शक्ति का व्यक्ति न मानकर इस्लाम के एक-ईश्वरवाद के सिद्धांत की शुद्धता की रक्षा की गयी। यदि उन्हें दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति स्वीकार कर लिया जाता तो उनको ही सर्वशक्तिमान ईश्वर अथवा अल्लाह के गुणों से संपन्न मान लिया जाता। ईश्वर की एकता अथवा प्रथम सिद्धांत की पूर्णता को तार्किक आधार पर नहीं रखा जा सकता था। इस विरोधाभास को दूर करने के लिए अस्पष्ट धार्मिक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयीं। धर्म की प्रारंभिक सादगी धार्मिक कठमुल्लापन अथवा रहस्यपूर्ण आत्मप्रवंचना में बदल जाती है। धार्मिक कट्टरपन के बिना इस्लाम उस ऐतिहासिक भूमिका को पूरा नहीं कर सकता था जो उसने पूरी की। जब हजरत मुहम्मद को दैवी शक्ति से अलग माना गया तो उसका यह दावा भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शास्त्र पूर्ण और अक्षय सत्ता को बाधित नहीं कर सकता। फलतः धर्मभक्त लोगों के दिमाग के लिए कुछ ढील दी गयी। जन्म-मृत्यु वाले व्यक्ति की शिक्षाओं और उपदेशों को शाश्वत सत्य की महत्ता नहीं दी जा सकती और धार्मिक कानूनों को अनित्य नहीं स्वीकार किया जा सकता।
12वीं शताब्दी तक इस्लाम में समान धार्मिक सिद्धांत नहीं थे। एक-ईश्वर (अल्लाह) में विश्वास करने के बाद मुसलमानों को अपने आध्यात्मिक जीवन में असीमित स्वतंत्रता थी। और यह बात इतिहास से मालूम होती है कि अरब विचारकों ने नये धर्म के भीतर रहते हुए विचारों की स्वतंत्रता और ढिलाई का उपयोग किया। ईसाई धर्म के त्रेतवाद का, जिसे वे एक-ईश्वरवाद के सिद्धांत को भ्रष्ट करने का प्रयास मानते थे, खंडन करने के लिए मुसलमान धर्मगुरुओं ने धर्म के मौलिक सिद्धांतों का निरूपण अत्यंत अमूर्त रूप में किया, जो मानव- मस्तिष्क की उपलब्धि कही जाएगी। (देखिए– रेनान ‘अबेरोस एट अबेरोसवाद’) अरब लोगों ने अतुलनीय सफलता प्राप्त की। इसका मुख्य कारण हजरत मुहम्मद का एक-ईश्वरवाद का सिद्धांत था, जिसे उन्होंने पूर्ण रूप से अपनाया था और उसमें किसी प्रकार का पौराणिक मिश्रण नहीं था। (एफ.ए.लांगे – ‘दि हिस्ट्री ऑफ मैटीरियलिज्म’ भाग 1, पृष्ठ 184)। इसी अधिकार से ऐसे मौलिक धार्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया जो इस्लाम के संस्थापक ने अपरिपक्व रूप में रखे थे और जिनमें महान विकास की संभावनाएँ निहित थीं। एक-ईश्वरवाद के कठोर स्वभाव के कारण बाद के विकास ने उसकी धार्मिक विचारों की सीमाओं का अतिक्रमण किया और उससे आध्यात्मिक प्रसार हुआ, जिसने विश्वास (धर्म) के युग को समाप्त कर दिया। ‘अरब लोगों को यूनानी दर्शन का ज्ञान होने के पूर्व इस्लाम में अनेक संप्रदाय और धार्मिक विचारों का उदय हुआ था जिनमें ईश्वर के संबंध में अमूर्त कल्पनाएँ की गयी थीं कि बाद में उसके संबंध में और कुछ सोचने की गुंजाइश नहीं रह गयी थी। कुछ लोगों का विश्वास इस बात में नहीं था जिसमें न कुछ समझा जा सकता था और न कुछ प्रदर्शित किया जा सकता था….। बसरा के बड़े मदरसे में अब्बासी लोगों के संरक्षण में विवेकवादियों का एक संप्रदाय विकसित हुआ जिसने विवेक और धर्म को एकसाथ लाने का प्रयास किया।’
(एफ.ए. लांगे – दि हिस्ट्री ऑफ मैटीरियलिज्म, पृष्ठ 177)।
इस्लाम के इतिहास के पहले पाँच या छह सौ वर्षों के दौरान ऐसे विद्वान पैदा हुए जिनमें अधिक दैवी गुण थे, जो दैवी शक्तियों में माने जाते थे। उन लोगों ने चुपचाप कुरान को एक किनारे रख दिया और आध्यात्मिक मूल्यों के लिए अधिक उन्नत पुस्तकों के अध्ययन पर जोर दिया। ऐसे क्रांतिकारी विचारक भी सामने आए जिन्होंने तर्क की वेदी पर धर्म का बलिदान कर दिया। धर्मभक्त सेनापतियों में कुछ ने, जिनका शासन बगदाद, काहिरा और कोरडोवा में 11वीं शताब्दी तक था, निश्चित ज्ञान पर प्राप्त ज्ञान से अधिक जोर दिया। बुखारा के स्वतंत्र साम्राज्य ने मुल्लाओं से अधिक सम्मान शायरों को दिया। धार्मिक गुरुओं की अपेक्षा चिकित्सकों को अधिक सम्मान दिया गया और धर्म के प्रचार से अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान पर जोर दिया गया।
यदि हम इस बात को अपने दिमाग में रख लें कि केवल सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों से ही नवीन बौद्धिक चेतना विकसित नहीं हुई थी, जिसे इस्लाम की विजय ने उत्पन्न किया था, वरन् हजरत मुहम्मद के धर्म में ही वह निहित थी तो इसे समझने के बाद इस्लाम धर्म के पिछड़ेपन और कुरान की आश्चर्यजनक बातों के कारण इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका को कम नहीं आँका जा सकता।