कृतज्ञता का अहोभाव

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— सुज्ञान मोदी —

कृतज्ञता एक महान मानवीय गुण है। मनुष्य एक पारिवारिक प्राणी है और एक वृहत् परिवार में परिजनों का एक-दूसरे से अन्योनयाश्रय संबंध होता है, अंतर्निर्भरता होती है। ऐसे में यदि सभी एक-दूसरे के प्रति कृतज्ञ रहते हैं तो आपस में प्रेम और ऐक्य बना रहता है। इसी प्रकार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी भी है। समाज में भी सभी एक-दूसरे से किसी-न-किसी रूप में उपकृत होते ही रहते हैं। किसी से प्रत्यक्ष उपकृत होते हैं, तो बहुतों का उपकार हमपर अप्रत्यक्ष रूप से होता है। इसलिए यदि समाज में सभी एक-दूसरे के प्रति कृतज्ञता की भावना रखेंगे तो कभी संघर्ष की नौबत ही नहीं आएगी। हमारी उदारता बढ़ेगी।

लेकिन असल प्रश्न है कि हम इतने उदार, इतने प्रेमी और करुणावान बनेंगे कैसे? तो इसका उत्तर है कि सत्पुरुषों की संगति में ही मनुष्य इतना उदार बन सकता है कि वह सबके प्रति कृतज्ञता की भावना से भर जाए। यहाँ तक कि जिन मनुष्यों से उसे दुख, अपयश, हानि आदि भी मिली हो उनके प्रति भी वह कृतज्ञता का ही भाव रखे। ऐसी देवदुर्लभ उदारता और कृतज्ञता भी मनुष्यों को सत्पुरुषों की संगति में प्राप्त होती है। और यह केवल सांसारिक व्यवहार की दृष्टि से नहीं, बल्कि आत्मकल्याण की दृष्टि से उसे प्राप्त होती है। ऋषियों, संतों, तीर्थंकरों और सत्पुरुषों के प्रति कृतज्ञता का यह भाव हमें उनके बताए मार्ग पर चलने के लिए सहज ही प्रेरित करता है।

इसलिए श्रीमद् राजचंद्र ने कई स्थानों पर अत्यंत आदर और भक्ति के साथ सत्पुरुषों के उपकार का गुणगान और वंदन किया है। 19वें वर्ष में 120 उपदेशों की जो उनकी माला है उसमें 29वें मनके रूपी वचन में वे कहते हैं—“यथार्थ वचन ग्रहण करने में दंभ नहीं रखना, और ऐसे वचनों के उपदेश देनेवाले का उपकार भुलाना नहीं।” वास्तव में तो मिथ्या दंभ के कारण ही कई बार सत्पुरुषों के वचन हमें कठोर प्रतीत होने लगते हैं और हम उन्हें ग्रहण नहीं कर पाते। यदि ग्रहण कर भी लें तो समय के साथ-साथ यह भूल जाते हैं कि किन सत्पुरुष के यथार्थ वचनों का लाभ हमें जीवन में मिला है। इसलिए श्रीमद् जी ने कहा है कि हम ऐसे सदुपदेष्टाओं का उपकार कभी भूलें नहीं और उनके प्रति सदैव कृतज्ञ रहें।

एक स्थान पर श्रीमद् कहते हैं कि सत्पुरुष हमारे आत्मकल्याण के लिए हमारा जो भी मार्गदर्शन करते हैं वे अपनी निष्कारण करुणा की वजह से ही करते हैं, इसलिए उनका कोई प्रत्युपकार भी नहीं हो सकता। ऐसे में हम उन्हें दे ही क्या सकते हैं। इसलिए उनके प्रति अपार कृतज्ञता और भक्तिभाव रखना चाहिए है। उनके शब्द हैं—“जिसके वचन अंगीकार करने पर, छह पदों से सिद्ध ऐसा आत्मस्वरूप सहज में ही प्रगटित होता है, जिस आत्म-स्वरूप के प्रगट होने से सर्वकाम जीव संपूर्ण आनंद को प्राप्त होकर निर्भय हो जाता है, उस वचन के कहनेवाले ऐसे सत्पुरुष के गुणों की व्याख्या करने की हममें असामर्थ्य ही है। क्योंकि जिसका कोई भी प्रत्युपकार नहीं हो सकता ऐसे परमात्मभाव को, उसने किसी भी इच्छा के बिना, केवल निष्कारण करुणा से ही प्रदान किया है।”

एक स्थान पर कहते हैं—“सत्पुरुष उपकार के लिए जो उपदेश करते हैं, उसे श्रवण करें और उसका विचार करें, तो अवश्य ही जीव के दोष घटें। जीव ऐसा कहता है कि मेरे तृष्णा, अहंकार, लोभ आदि दोष दूर होते नहीं, अर्थात्‌ जीव अपने दोष निकालता नहीं, और दोषों के ही दोष निकालता है। जैसे गर्मी बहुत पड़ रही हो और इसलिए बाहर न निकल सकते हों, तो जीव सूर्य का दोष निकालता है, परंतु वह छतरी और जूते, जो सूर्य के ताप से बचने के लिए बताए हैं, उनका उपयोग करता नहीं। ज्ञानी-पुरुषों ने लौकिक भाव छोड़कर जिस विचार से अपने दोष घटाए हैं—नाश किए हैं—उन विचारों को और उन उपायों को ज्ञानियों ने उपकार के लिए कहा है। उन्हें श्रवण कर जिससे आत्मा में परिणाम हो, वैसा करना चाहिए।”

सत्पुरुष अथवा सद्गुरु के प्रति श्रीमद् की कृतज्ञता ‘श्री आत्मसिद्धि शास्त्र’ की इन चार गाथाओं में सुंदरतम रूप में व्यक्त हुई है—

प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार;
एवो लक्ष थया विना, ऊगे न आत्मविचार। (गाथा- 11)
प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिनो, गणे परम उपकार;
त्रणे योग एकत्वथी, वर्ते आज्ञाधार। (गाथा- 35)
अहो! अहो! श्री सद्गुरु, करुणासिंधु अपार;
आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो! अहो! उपकार। (गाथा- 124
षट् स्थानक समजावीने, भिन्न् बताव्यो आप;
म्यान थकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप। (गाथा- 127)

तो इतने अहोभाव के साथ श्रीमद् ने सद्गुरु के प्रति अपनी कृतज्ञता का गान किया है।

एक पत्र में किसी आत्मार्थी को समझाते हुए श्रीमद् ने लिखा है— “ ‘प्रत्यक्ष सत्पुरुष के समान मेरा किसी ने भी परम उपकार नहीं किया,’ ऐसा अखंड निश्चय आत्मा में लाकर, और ‘इस देह के भविष्य जीवन में भी यदि मैं उस अखंड निश्चय को छोड़ दूँ तो मैंने आत्मार्थ ही त्याग दिया, और सच्चे उपकारी के उपकार के विस्मरण करने का दोष किया, ऐसा ही मानूँगा; और नित्य सत्पुरुष की आज्ञा में रहने में ही आत्मा का कल्याण है।’”

अपने सद्गुरु और सभी सत्पुरुषों के प्रति ऐसी परम कृतज्ञता का भाव रखने का उपदेश श्रीमद् ने किया है।

सत्पुरुषों का योगबल जगत का कल्याण करे!

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