— योगेन्द्र यादव —
भारतीय ऋषि सुनक पर एक क्षण के लिए गर्व कर सकते हैं। लेकिन तभी जब वे भारत में एक दिन किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने का स्वागत करने को तैयार हों। तभी अगर वे विदेशों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के लिए अधिकार की मांग करने और भारत में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध विषवमन की निंदा करने को तैयार हों। अगर उन्हें भारत में विदेशी मूल के व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने पर सर मुंडवा लेने जैसे बयानों पर ग्लानि होती हो। अगर भारत में धार्मिक अल्पसंखकों के विरुद्ध सत्ता के आशीर्वाद से चल रहे नफरत के अभियान पर हमें शर्म आती हो।
जब से ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं तब से हर हिंदुस्तानी में “साड्डा मुंडा” वाली फील आ गई है। मानो दिवाली की रौशनी में इजाफा हो गया हो। मानो हमारे देश ने दुनिया में झंडे गाड़ दिए हों। मानो किसी भारतीय ने 200 साल के अंग्रेजी राज का बदला चुका दिया हो।
गर्व एक सहज मानवीय भाव है। अपनी या अपनों की उपलब्धि पर गर्व करना एक सामान्य प्रतिक्रिया है। जब यह गर्व घमंड का रूप ले तो यह श्रेष्ठता-बोध जैसा अवगुण बन सकता है। लेकिन एक गुलाम देश या गरीब समुदाय के लिए गर्व एक कवच बन सकता है, सांस्कृतिक स्वाभिमान से न्याय के संघर्ष की शुरुआत हो सकती है।
गर्व उचित है या नहीं यह इस पर निर्भर करेगा कि उपलब्धि है क्या, उस उपलब्धि से गर्व करने वाले का रिश्ता क्या है। स्वाभिमानी समाज किसी उपलब्धि पर गर्व से उछलने से पहले कुछ सवाल पूछता है : क्या यह उपलब्धि वाकई गर्व करने लायक है? क्या इस उपलब्धि में हमारा कुछ भी योगदान है? क्या जिसकी उपलब्धि है वह वाकई मेरा अपना है? लेकिन हीनताबोध से ग्रस्त समाज बेगाने की शादी में दीवाने अब्दुल्ला जैसा व्यवहार करता है, किसी भी उपलब्धि से कोई भी रिश्ता जोड़ने को आतुर रहता है।। अगर उपलब्धि ऊंचे शिखर पर हो और हम खुद बहुत नीचे खड़े हों, तो झूठे गर्व का एहसास अनायास ही गाढ़ा हो जाता है। दीन हीन की नियति है कि वह दूसरों के दिए अन्न से अपना पेट, दूसरों के ज्ञान से अपना दिमाग और दूसरों की उपलब्धि से अपना मन भर लेता है। जिसकी अपनी जेब में कुछ नहीं होता वह दूर की रिश्तेदारी तलाशता है।
ऋषि सुनक की उपलब्धि में बहकर हम यह सवाल पूछना भूल गए हैं कि हमें गर्व करना चाहिए या नहीं, किसे गर्व करना चाहिए, कैसे इस गर्व को अभिव्यक्त करना चाहिए।
ग्रेट ब्रिटेन भले ही ग्रेट ना बचा हो लेकिन उसका प्रधानमंत्री बनना एक उपलब्धि ही कहलाएगा। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वे कितने दिन तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे या प्रधानमंत्री बनकर क्या गुल खिलाएंगे। पिछले कुछ महीनों में ब्रिटेन में प्रधानमंत्री का पद एक मजाक बन चुका है खासतौर पर लिज ट्रस की आवाजाही के बाद। इस लगातार सिकुड़ती हुई कुर्सी पर किसी का बैठना कितने गर्व का विषय हो सकता है यह कहना कठिन है।
यह कहना भी कठिन है कि ऋषि सुनक कितने सफल नेता और प्रधानमंत्री साबित होंगे। सच यह है कि ब्रिटेन का समाज उन्हें शक की निगाह से देखता है, उनकी चमड़ी के रंग की वजह से नहीं बल्कि उनकी अथाह दौलत के चलते। सच यह है कि वित्तमंत्री के रूप में ऋषि सुनक का कार्यकाल बहुत विवादों के दायरे में घिरा रहा। कोविड के समय तंगी में जीने को अभिशप्त ब्रिटेनवासी उन्हें एक कंजूस और असंवेदनशील वित्तमंत्री के रूप में याद रखते हैं। सच यह है कि उनकी कंजरवेटिव पार्टी की लोकप्रियता आज रसातल में है और जनमत सर्वेक्षण में वह लेबर पार्टी से 30 फीसद पीछे चल रही है। ऐसी स्थिति में सफल प्रधानमंत्री बनने के लिए ऋषि सुनक को चमत्कार करना होगा। नहीं तो उनका प्रधानमंत्री बनना गर्व नहीं शर्म का विषय हो सकता है।
फिर भी उनका प्रधानमंत्री बनना उनके और उनके परिवार के लिए गर्व का विषय रहेगा। सवाल यह है कि इस उपलब्धि में हमारा अंश क्या है?
सच यह है कि ऋषि सुनक का आज के भारत से कोई लेना देना नहीं है। सुनक के परिवार के वटवृक्ष का मूल जिस मिट्टी में है वह आज के पाकिस्तान में है, उसकी पौध को जिस मिट्टी में रोपा गया वह अफ्रीका की है, उसे खाद पानी औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन से मिला और फल जाकर इंग्लैंड में लगे।
जहां तक ऋषि सुनक का संबंध है, वह काली चमड़ी वाले खांटी अंग्रेज हैं। इंग्लैंड में पैदा हुए, वहीं पढ़े, और वहीं अपना कैरियर बनाया। उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड से बाहर निकले तो भारत नहीं आए बल्कि अमरीका गए। जब राजनीति में प्रवेश किया तो ब्रिटेन के भारतीय मूल के जनता के प्रतिनिधि के रूप में नहीं, बल्कि ब्रिटेन के दौलतमंद वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में। बेशक वे जन्म और संस्कार से हिंदू हैं, लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया है कि उन्हें गौमांस से या फिर बूचड़खानों के व्यापार से कोई परहेज नहीं है। उनकी पत्नी भारतीय हैं, लेकिन उन्होंने ब्रिटेन के भारत से संबंध के बारे में कोई उत्साह नहीं दिखाया है। तो क्या चमड़ी का रंग और जिस कुल में जन्म लिया उसका धर्म हम सब के लिए गर्व का आधार हो सकता है?
हां, ब्रिटेन के लिए और वहां के बहुसंख्य गोरे ईसाई समुदाय के लिए ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री बनना एक गर्व की घड़ी हो सकती है। दुनिया में औपनिवेशिक राज कर उसका शोषण करने वाला देश जब शोषित समुदाय की नस्ल के किसी व्यक्ति को अपना सर्वोच्च पद दे तो यह एक अनूठी घटना है।
इसे प्रायश्चित तो नहीं कहा जा सकता, जैसा नेलसन मंडेला का राष्ट्रपति बनना था। फिर भी इसे ब्रिटेन के उदार मन की निशानी माना जाएगा, खासतौर पर इसलिए कि वह नेता अल्पसंख्यक धार्मिक समाज से है जिसका वोट की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है। यह सच है कि ऋषि सुनक ब्रिटेन की जनता का विश्वास जीतकर प्रधानमंत्री नहीं बने, फिर भी कंजरवेटिव पार्टी द्वारा उन्हें नेता स्वीकार करना ब्रिटिश राजनीति के लिए एक गर्व का क्षण है।
हम इस गर्व के हिस्सेदार क्यों न बनें? बेशक अगर दुनिया अपना दिलो-दिमाग खोलती है तो हम उसमें गर्व ले सकते हैं। ओबामा का अमरीकी राष्ट्रपति बनना हम सबके लिए एक गर्व का क्षण था। इस मायने में विश्व समुदाय का नागरिक होने के नाते धर्म, रंग, जाति से ऊपर दुनिया का सपना देखने वाले भारतीय ऋषि सुनक पर एक क्षण के लिए गर्व कर सकते हैं। लेकिन तभी जब वे भारत में एक दिन किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने का स्वागत करने को तैयार हों। तभी अगर वे विदेशों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के लिए अधिकार की मांग करने और भारत में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध विषवमन की निंदा करने को तैयार हों। अगर उन्हें भारत में विदेशी मूल के व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने पर सर मुंडवा लेने जैसे बयानों पर ग्लानि होती हो। अगर भारत में धार्मिक अल्पसंखकों के विरुद्ध सत्ता के आशीर्वाद से चल रहे नफरत के अभियान पर हमें शर्म आती हो।