— भवानी प्रसाद मिश्र —
संस्कृति की कई लोगों ने व्याख्या की है, परिभाषाएँ दी हैं। एक प्रोफेसर मॉरिस गिन्सबर्ग की है। उनका कहना है, “संस्कृति किसी कौम के रीति-रिवाजों, रहन-सहन के तरीकों और विचारों-विश्वासों का मजमुआ है। ये सारी बातें घुल-मिलकर जाति के जीवन में बहती हैं और वह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती हैं। यह एक तरह की सामाजिक विरासत है। जैसे वंशानुगत शारीरिक चेहरे-मोहरे आदि लोगों को विरासत में मिलते हैं, उसी तरह संस्कृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे जीवन के तौर-तरीकों को प्रभावित करती है। वह हमारे बर्ताव को किनारों में बाँधकर प्रवाहित करती है। इस तरह संस्कृति एक धारा है अखंड और अविच्छिन्न, जो आने वाले जमाने को उस जमाने की थाती से खींचती है जो कब का बीत गया है।” एक और विद्वान हैं फ़ित्जोफ शुऑन। उनका कहना है कि “संस्कृति या परंपरा एक ऐसे समूचेपन का नाम है जिसका मिलान हम जीते-जागते अस्तित्व से कर सकते हैं– जीवंत या प्राणवान अस्तित्व अपने कुछ तयशुदा जरूरी या जाने हुए ढंग से बढ़ता या विकसित होता है।” इसलिए यह कोई बाहरी चीज न होकर एक आत्मिक या सामाजिक अस्तित्व या सत्ता है।
मनमाने तौर-तरीके संस्कृति को बनाते नहीं तोड़ते हैं। इसलिए भीतर की समानता, समग्रता और एकता को भूलकर हम किसी संस्कृति को, उसके बाहरी लक्षणों से न जाँचें। यह मोटे-मोटे दिखाई देने वाले तथ्यों का योग या संयोग नहीं है। संस्कृति को कई बार लोग ऊपर जो कुछ दिखाई दे जाता है, उसके आधार पर जाँच लेते हैं और यह भूल उन लोगों से भी हो जाती है जिनके मन में पहले से उस संस्कृति के प्रति आदर या अनादर का भाव नहीं है। निष्पक्ष वैज्ञानिक दृष्टि से के लोग भी कई बार किसी कौम को उसके ऊपरी लिबास से पहचानना चाहते हैं, जबकि संस्कृति भीतरी चीज है- जैसे वह जीवाणु जिससे किसी जीव का शरीर, शरीर का रूप-आकार, हलचलें आदि तय होती हैं। यह आँखों से ओझल तत्त्व, संस्कृति का बीज, उनका अपना व्यक्तित्व है। एक संस्कृति कई बातों में दूसरी संस्कृति जैसी दिखाई देते हुए भी उससे उसी तरह और उतनी भिन्न है जितनी दो चिड़ियाँ, जो हमें एक-सी दिखाई देते हुए भी भिन्न हैं- या दो आदमी जिनके बाहरी अवयव वही हैं और जो अवयवों की हद तक समान दिखाई देते हैं।
इस तरह हर समग्र संस्कृति की अपनी मानसिकता होती है। सत्य और ज्ञान की अपनी पद्धतियाँ होती हैं। उसका अपना एक दर्शन होता है। अपना धर्म होता है और पावित्र्य के अपने स्तर होते हैं। उसका अपना ही कोई ‘सही’ और उसका अपना ही कोई ‘गलत’ होता है। कला और साहित्य की उसकी अपनी शक्ल होती है। उसका अपना अतिरिक्त और उसका अपना अभाव होता है। आचार-संहिता होती है, आचारों का तारतम्य और जोड़-तोड़ होता है। आर्थिक आचार और राजनीतिक संगठन-प्रकार उसके अपने होते हैं और अंत में उसके अनुसार विकसित आदमियों से बने समाज का एक व्यक्तित्व होता है, सोचने का ढंग होता है, जीने का तरीका होता है।
इस तरह कह सकते हैं कि संस्कृति या परंपरा के तीन पहलू हैं- धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक। अहिंसा की बात करते समय यह ध्यान में रखना ठीक रहेगा कि वह तीनों पहलुओं से जुड़ा होकर भी खासतौर पर सामाजिक पहलू से संबद्ध है।
संस्कृति में जो धार्मिक है, धर्म से जुड़ा है, उसमें बदलाव होते हैं मगर बड़ी मुश्किल से। फिर ऐसे बदलावों की सीमा होती है। हमारे यहाँ का ‘सनातन’धर्म भी इसी बात को सूचित करता है। इसकी अलग-अलग व्याख्याएँ तो हो सकती हैं मगर मूल-पाठ नहीं बदला जा सकता। जैसे गीता है। उसकी हर युग में व्याख्याएँ हुईं। शंकर और रामानुज और वल्लभाचार्य से लेकर तिलक, श्रीअरविंद, गांधी और विनोबा ने उसकी व्याख्या अपने ढंग से की- किंतु गीता के मूल श्लोक नहीं बदल दिए। व्यावहारिक और अव्यावहारिक तक का भेद करना वहाँ संभव नहीं है क्योंकि वह एक आदर्श है, हमारे सामने है और हमें अपनी आँख उसी पर लगाए रखकर चलना है। वह एक दिव्य सिद्धांत है। हम उसे कैसे बदल सकते हैं।
मगर सामाजिक मूल्यों की बात अलग है। अहिंसा एक सामाजिक मूल्य है। समाज में यानी हमारे ही समाज में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो, ‘अहिंसा’ का नाम लेने वाले को बेईमान समझ सकते हैं या प्रतिक्रियावादी कह सकते हैं। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अहिंसा का विचार शताब्दियों से विश्लेषण का विषय रहा है। साधारण व्यक्ति से लगातार बड़े से बड़े विचारकों को इसने मथा है। एक जमाना था जब यह विचार धर्म के क्षेत्र का अधिक था और नैतिकता के दायरे में आता था। मगर पिछले पचास-साठ बरसों में गांधी ने उसे उसी क्षेत्र या दायरे में बँधकर पड़े रहने की स्थिति से बाहर निकाला। गांधी ने उसे नए आयाम दिए और अब इस पर नित्य खोजें चलती हैं कि समाज को बदलने में उसका किस जगह क्या उपयोग हो सकता है। यह उपयोग सीमित क्षेत्रों में ही नहीं अंतरराष्ट्रीय संबंधों को सँवारने-सुधारने तक में जरूरी लगने लगा है। हिंसा के हार्दिक हामी और विशेषज्ञ भी सह-अस्तित्व, पंचशील और देतांते आदि का उच्चारण करते हुए थकते नहीं हैं। ऐसे प्रयत्नों के प्रति दुनिया के बदले रुख और तत्परता से आशा फूटती है।
इसीलिए अहिंसा को उसके निष्क्रिय तथा सक्रिय दो रूपों में से उसके सक्रिय रूप में समझने और लागू करने की कोशिश ज्यादा जरूरी है। अहिंसा का निष्क्रिय रूप संस्कृति की धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक परंपराओं में और सक्रिय रूप व्यवहार में है। व्यवहार में उतरने पर उसके बल पर समाज में पारस्परिकता, सद्भावना, स्नेह और सहयोग के तत्व जोर पकड़ते हैं और एक-दूसरे की सीमाएं समझकर हाथ में हाथ लेकर आदमीयत को सार्थक करने की दिशा में बढ़ने की संभावनाएं उपजती और पक्की होती हैं।
मोटे तौर पर देखें तो लिखित इतिहास, काव्य, साहित्य आदि में हमें हिंसा का दौर-दौरा दिखाता है। हर धर्म ने मान लिया है कि कुछ ऐसे प्रसंग और अवसर हैं या होते हैं जिनमें युद्ध की हिंसा अनिवार्य है। महाभारत युद्ध का महाकाव्य है और कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो धर्मशास्त्र से बिल्कुल अलग कूट-नीति और युद्धनीति के पक्षों को ही पद्धतिबद्ध करने के लिए लिखा गया है। डॉ. विनयकुमार सरकार हमारे सम्मान्य इतिहासकारों में गिने जाते हैं। उनका कहना है कि अहिंसा की परंपरा का हमारा दावा इतिहास पर नजर डालें तो एकदम बकवास है। मुअनजोदड़ो से लगातार रणजीत सिंह तक भारत के इतिहास का कोई काल ऐसा नहीं है जिसे किसी भी अर्थ में अहिंसा प्रधान कहा जाए। अशोक तक के जमाने में जीवहत्या का दण्ड हत्या करने वाले की हत्या कर डालना था। उनका कहना है कि हमारे पुरखे कटे सिरों की गिनती में एक-दूसरे से आगे जाते रहे। अहिंसा का पालन हमारे यहाँ अगर हुआ तो इस तरह हुआ कि जिसने सिर नहीं काटे, जंगल में जाकर बैठ गया और माला जपने लगा, वह हमारे यहाँ महात्मा हो गया। दुनियादारी से कटे हुए निकम्मे लोग धार्मिक कहलाते रहे और हमीं ने नहीं संसार के विचारकों ने इस सबके बावजूद हमें आश्चर्यजनक कहा और बताया कि दर्शन, प्रेम और भाईचारा हमारी रगों में खून बनकर बहता है।
अब साफ है कि डॉ. सरकार ने संस्कृति को और इतिहास में लिखी घटनाओं को एक मान लिया है। इस चूक को ध्रुवतारा मानकर वे बढ़ते चले गए और ऐसी बातें कह गए जो कम से कम ऐसी तो नहीं ही हैं, जिनको पढ़कर हम अपनी संस्कृति को एक खूनी संस्कृति मानकर उदास हो जाएँ। पारस्परिक सद्भाव के बिना दो आदमी दो दिन साथ नहीं रह सकते। तब फिर भारत जैसा देश जिसे रवीन्द्रनाथ ने ‘महामानेवर सागर’ कहा है, शताब्दियों से टिका ही नहीं रहा, बढ़ता चला आया सो कैसे है। कैसे विभिन्न देशों से आयी हुई कौमें और धर्म और भाषाएँ और संस्कृतियाँ यहाँ फल-फूल रही हैं।
यह ठीक है कि हमारे सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ वेदों में प्रत्यक्ष-नीति आचार के रूप में अहिंसा का उल्लेख नहीं मिलता। ऋग्वेद में हमें ब्रह्मलीन या ब्रह्म से एक हो जाने का अर्थ रखने वाले अनेक वचन मिलते हैं। जैसे कहा गया है, “हमने सोम पान किया हम अमर हो गए और अविनाशी ब्रह्म से जा मिले।”मनुष्य का यह ऊपर उठना और परमात्मा तत्त्व से अभिन्न हो जाना अहिंसा के उस अर्थ से बड़ा है जिसका अर्थ केवल ‘न मारना’ होता है। ‘सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै तेजिस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै’, निस्सन्देह इससे आगे के अर्थ को व्यक्त करता है। वेदों का अंतिम सिद्धांत अद्वैत है, यह सिद्धांत अहिंसा के नकारात्मक अर्थ से हर सूरत में अधिक सार्थक और प्रेरणा देने वाला है। वेद ने ‘ऋत’ एक शब्द दिया है और उसे सर्वाधिक महत्त्व दिया है। यह अनेक सद्गुणों का समाहार है जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आ जाते हैं। इन्हीं सद्गुणों को आगे चलकर पतंजलि ने अपने योग-सूत्र में ‘यम’ के नाम से अभिहित किया।
महात्मा गांधी ने इन पाँचों को अहिंसा में समाविष्ट माना और एकादश व्रतों में उसे सबसे पहले स्थान दिया। पतंजलि के योग और गीता के कर्मयोग को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि कर्म-योग का विचार एक शाश्वत विचार है। कर्मयोगी वह है जो आदर्शों में सबसे बड़े आदर्श अविरोध को आत्मसात किये है और जो जानता है कि अविरोध सबसे बड़ी उस शक्ति को पा जाना है जिससे अशुभ और दुष्टता का विरोध सहज और सरल हो जाता है। अविरोध प्रकारान्तर से अद्वैत भावना का रूप है।
आज के मानस शास्त्र के अनुसार अहिंसा का आचरण ‘ईगो’ अहं को नाबूद करने का उपाय है। जेम्सलुई हेन्डरसन ने एक ‘छायाविहिन व्यक्तित्व’(शैडोलेस सेल्फ) का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इस सिद्धांत के अनुसार ऐसे व्यक्ति के लिए किसी प्रतिद्वन्द्वी का अस्तित्व एकदम गैर-जरूरी हो जाता है। प्रतिद्वन्द्वी आखिरकार, अहं की जरूरत है, उसकी काली छाया है। व्यक्तित्व का विकास इस सिद्धांत के अनुसार बिना किसी संघर्ष के नितांत संभव है। इस तरह ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ और ‘डायलैक्टिक मैटीरियलिज्म’ के ख्याल झूठे पड़ जाते हैं।
आखिरकार यह ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ आधार तो मानवीय दर्शन का ही लेता है और कहता है कि किसी दिन ऐसे एक समाज की स्थापना हो जायेगी जिसमें न कष्ट रहेगा न संघर्ष क्यों की समाज में अन्तर्निहित विरोध हल हो जायेंगे। अब यह बहुत सोचने लायक बात है कि संघर्ष और हिंसा से ही संघर्ष और हिंसा के तत्व समाप्त कैसे हो जाएँगे। इसलिए भारतीय अद्वैत की अहिंसा-आधारित कल्पना में और मार्क्स के हिंसा-आधारित वर्गहीन समाज की कल्पना में जमीन-आसमान का फर्क है।
मार्क्स मानता है कि एक अरसे तक हिंसा समर्थनीय रहेगी और समाज के चरम उत्कर्ष के साथ यह समाप्त हो जाएगी। निस्संदेह यह दृष्टि समूचे के बजाय वर्गों पर आधारित काल्पनिक सत्य या सीधा-सीधा भय है। जहाँ साध्य के स्वभाव से विपरीत साधन मान्य किये गये हैं, अहिंसक शोषणहीन समाज के लिए साधन और साध्य की एकता को जहाँ अनिवार्य नहीं माना गया है, वहाँ किसी भी मात्रा में सामाजिक शांति एक कोरी बौद्धिक कसरत है। यह लोगों को किसी भूल-भुलैया में ले जाकर छोड़ देना है। मार्क्स अपने दर्शन को गये जमाने के मोटे-मोटे तथ्यों का आधार देता है। इस मामले में वह आखिरकार डॉ. विनयकुमार सरकार की जाति का ही ठहरता है।
अमरीका के जेनेशार्प ने कहा है कि पुराने जमाने की विभिन्न संस्कृतियों के प्राप्त इतिहास के आधार पर अहिंसा की परंपरा को समझने का प्रयत्न सतही होने के साथ ही आज की सार्वभौम शांति की अनिवार्यता से संबंधित विचार और उसे प्राप्त करने के उपायों के आड़े आने वाली बात है। उसने लिखा है कि जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं अहिंसा की उन विधायक शक्तियों की खोज और उनके विनियोग की संभावनाओं में दिलचस्पी रखता हूँ जो राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय तनावों को रोज-रोज कम करके खत्म करने में उपयोगी हैं। यह देखना चाहिए कि युद्ध कैसे समाप्त हों और कैसे आदमी बचे और फिर बढ़े अपने अंतिम लक्ष्य तक।
तो समझना चाहिए कि वेदों का वह देवता भी जो रुद्र कहलाता है और जो संहार का देवता माना गया है, करुणानिधि कहा गया और इसी सूत्र को पकड़कर दक्षिण में वीर-शैव संप्रदाय ने अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म कहा। यानी सोचा गया और शक्ति को भक्ति तक लाने की कोशिश हुई। भक्तों में कबीर और नानक ने रातों-दिन प्रेम और अहिंसा के गीत गाये। नानक ने कहा, “साधु संत या पापी शब्दों से नहीं बनते। और लेखा हमारे कहने का नहीं, करने का रखा जाएगा। हम जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे।” बिना पढ़ा-लिखा नानक पूरे ब्रिटिश-म्यूजियम की लायब्रेरी को चाट जाने वाले मार्क्स की तुलना में कैसा ठहरता है, यह रुक कर सोचने की बात है- खासकर आज के जमाने में।
दक्षिण के भक्त कवि बसवेश्वर का कहना है, “कैसा है वह धर्म, और कैसा है उस आदमी का मन जिसमें दया और प्रेम, और करुणा भरी नहीं है। दया सब धर्मों का मूल है। कुदाल संगम देव अर्थात् भगवान शिव जिसके मन में दया नहीं है उसे अपनी शरण में नहीं लेते। नहीं, मैं जिह्वा-लौल्य में पड़कर किसी पशु या पक्षी का मांस नहीं खाऊँगा। मैं कहता हूँ चोरी मत करो, हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, क्रोध मत करो, दूसरों को छोटा मत गिनो। यही पवित्रता है, यही धर्म है, यही करने लायक है, कर्तव्य है।”
इस तरह हमारे संतों ने ही अहिंसा को मारने से आगे बढ़कर विधायक होने का इशारा कर दिया था। इस विधायकता को मूर्त किया गांधी ने। इस मूर्तीकरण की छवि संसार ने देखी और महसूस किया ‘नान्यः पंथा:’। दूसरा रास्ता कोई है नहीं।
अलबर्ट स्विट्जर ने पूर्व और पश्चिम के विचारों की तुलना करके कहा कि दोनों में ही कहीं-कहीं कसर है। यह कसर एक-दूसरे से छूटे हुए तत्त्व लेकर पूरी की जा सकती है। उसने कहा है : यूरोप का विचार और जीवन संसार के उस पहलू पर जोर देता है जो ऊपरी है, दृश्यमान है, सतह पर है, यानी गहरा नहीं है। और सबब इसका यह है कि उसने अभी तक नीतियुक्त होकर कुछ छोड़ना नहीं सीखा है, जैसे-तैसे समेटने को ही उसने परम-पुरुषार्थ माना है।भारत में एक लंबे और अथक त्याग-प्रयोग ने नीति को दृढ़ करके व्यवहार को कमजोर बनाने की दिशा प्राप्त कर ली है। इसलिए पश्चिम के विचार को चाहिए कि वह सार्वभौम दृष्टि अपनाकर जीवन में स्पर्धा के स्थान को गौण बनाये और भारत की मनीषा को चाहिए कि वह अपने त्याग को कर्म से जोड़े।
अलबर्ट स्विट्जर की यह इच्छा गांधी ने साकार करके दिखाई। उन्होंने कहा, “भारत की नियति पश्चिम के खूनी रास्ते पर चलकर हाथ में आने वाली नहीं है। पश्चिम खुद उस रास्ते से ऊबा-ऊबा लग रहा है। भारत ने तो खून के दाग से विहीन एक रास्ता बनाया है। और अब उसे वही रास्ता पक्का करना है। उसी पर चलना है। अहिंसा और प्रेम भारत की आत्मा है। वह अपनी आत्मा को कैसे नष्ट होने देगा। आत्मा को नष्ट हो जाने दिया तो वह टिकेगा किस चीज के बल पर।”