
— शिवानंद तिवारी —
क्या हमारे देश के मुसलमान और ईसाई, हिंदू मुसलमान और हिन्दू ईसाई कहे जाएँगे! मोहन भागवत जी के अनुसार तो यही लगता है!!
मोहन भागवत जी जो भी बोलते हैं उसको बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए। क्योंकि देश की मौजूदा सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीतियों को देश में लागू करने वाली सरकार है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री सहित प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण मंत्री संघ के स्वयंसेवक रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने तो लंबे समय तक संघ के प्रचारक की भूमिका निभाई है। इसलिए संविधान दिवस के मौक़े पर मोदी जी संविधान की जितनी भी दुहाई दे लें, उनके मन पर संघ की नीतियाँ पत्थर की लकीर की तरह खुदी हुई हैं।
स्मरण होगा कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय मोहन भागवत जी ने ही संघ द्वारा प्रकाशित ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ को दिये गये साक्षात्कार में देश की पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण पर पुनर्विचार करने का बयान दिया था। विश्व हिंदू परिषद ने भी वह माँग दुहराई थी। महागठबंधन के नेताओं ने भागवत जी के उस बयान को लोक लिया था और काफी हो-हल्ला मचाया था। उस समय का भागवत जी का कहा आज हमारे सामने सत्य बनकर खड़ा है।
स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने संघ के उस महत्त्वपूर्ण एजेंडे को पूरा कर दिया है। गरीबी को आधार बनाकर दस प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन हो गया। राज्यसभा में बहुमत नहीं था। वहाँ इस संशोधन के अटक जाने का खतरा था। इसलिए बहुमत के जोर से उसको ‘मनी बिल’ बनाकर लोकसभा में पास करवा दिया गया। लोकसभा में पारित हो जाने के बाद मनी बिल को राज्यसभा में पास कराने की जरूरत ही नहीं रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी है। पाँच सवर्ण जजों की संविधान पीठ ने इस आरक्षण को संविधान सम्मत घोषित कर दिया। सबसे चिंताजनक बात यह है कि पीठ के दो एक जजों ने पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत बताई। इस फैसले के बाद तो आरक्षण पर पुनर्विचार के पक्ष में लेख वगैरह भी आने शुरू हो गये हैं।
स्मरण रहे, 1992 में नौ जजों की संविधान पीठ ने मंडल कमीशन की अनुशंसा के आधार पर पिछड़ी जातियों को केंद्रीय सरकार की नौकरियों में आरक्षण दिए जाने के सरकार के फैसले को संविधान सम्मत करार दिया था।
वीपी सिंह की सरकार के बाद बनी नरसिंह राव की सरकार ने मंडल आयोग द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए अनुशंसित आरक्षण के साथ-साथ गरीबी को आधार बनाकर सामान्य वर्गों के लिए भी दस प्रतिशत आरक्षण जोड़ दिया गया था। लेकिन नौ जजों की उसी संविधान पीठ ने आर्थिक आधार पर दिये गये उक्त आरक्षण को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया था।
दलितों एवं आदिवासियों को दिये जाने वाले आरक्षण की व्यवस्था तो मूल संविधान में ही कर दी गई थी। लेकिन भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था की वजह से पिछड़ी जातियों की विशाल आबादी की सामाजिक, शैक्षिक पिछड़ेपन की स्थिति के अध्ययन के लिए आयोग गठित करने और उसकी अनुशंसा के मुताबिक कार्रवाई करने का निर्देश हमारे संविधान ने ही दिया है। इसी आधार पर 1952 के पहले चुनाव के तुरंत बाद 1953 के जनवरी महीने में ही पिछड़ी जातियों की हालत का अध्ययन करने तथा उनको मुख्यधारा में समान अवसर देने के तरीकों की अनुशंसा के लिए ‘काका कालेलकर आयोग’ का गठन किया गया था। स्पष्ट है कि आरक्षण की व्यवस्था गरीबी दूर करने के माध्यम के तौर पर नहीं बल्कि जाति व्यवस्था की वजह से सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में पिछड़ गए बड़े समूह को मुख्यधारा में शामिल करने के उद्देश्य से की गई है। इसी आधार पर नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने के प्रावधान को रद्द कर दिया था।
लेकिन अब पाँच जजों की संवैधानिक पीठ ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के उद्देश्य से मोदी सरकार द्वारा संविधान में किये गए संशोधन को न सिर्फ संविधान सम्मत करार दिया बल्कि उन्हीं में से दो एक ने जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था पर पुनर्विचार की जरूरत भी बताई।
सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण में आए इस मौलिक परिवर्तन को समझने के लिए आरक्षण के मुद्दे पर दोनों काल के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी यहाँ समझने की जरूरत है। 1992 में जब नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने मंडल कमीशन की अनुशंसा को संविधान सम्मत माना और आर्थिक आधार पर जोड़ दिए गए दस प्रतिशत आरक्षण को संविधान सम्मत नहीं माना तो उसके पीछे उस काल के सामाजिक और राजनीतिक माहौल को भी समझा जाना चाहिए। उस समय सामाजिक न्याय के आंदोलन के पक्ष में मजबूत सामाजिक, राजनीतिक माहौल था।
यह ध्यान रखने की बात है कि अदालतें शून्य में काम नहीं करती हैं। उन पर भी तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक माहौल का अप्रत्यक्ष प्रभाव काम करता है। इसलिए 1992 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का वैसा निर्णय आया था। हालाँकि नौ जजों के उक्त संविधान पीठ में भी प्रायः सभी जज सवर्ण समाज के ही होंगे लेकिन आरक्षण के पक्ष में उस समय के राजनीतिक और सामाजिक माहौल का दबाव भी काम कर रहा था। तब के मुकाबले आज आरक्षण समर्थन का माहौल कमजोर हुआ है बल्कि विरोध का स्वर तेज हुआ है। पिछड़ों में भी अब पहले जैसी एकता नहीं रह गई है। उनमें भी सामान्य जातियों के वोट को अपनी ओर आकर्षित करने का लालच बढ़ा है। यही वजह है कि संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में आए निर्णय का औपचारिक विरोध भी वे कायदे से दर्ज नहीं करा पा रहे हैं। इसलिए आरक्षण पर पुनर्विचार की बात न्यायपालिका और राजनीति दोनों में उठाई जा रही है। लेकिन एक ज़माने में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाली जमातें आज लगभग मौन हैं या बहुत कमजोर स्वर में आरक्षण के समर्थन में आवाज उठा रही हैं।
मोहन भागवत जी बिहार में थे। उन्होंने कहा है कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। किसी ने उनके इस बयान पर प्रतिक्रिया नहीं दी है। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दरम्यान इन्हीं भागवत जी ने आरक्षण पर पुनर्विचार की जरूरत बताई थी। आज वे कह रहे हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं।
देश किस दिशा में बढ़ रहा है इसका अनुमान संघ प्रमुख की इस घोषणा से लगाया जा सकता है। बाबासाहब आंबेडकर ने संकल्प लिया था कि वे हिंदू धर्म में नहीं मरेंगे। उन्होंने अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म कबूल कर लिया था। लेकिन भागवत जी के अनुसार वे हिंदू ही माने जाएँगे। यानी आंबेडकर साहब के हिंदू धर्म के बाहर प्राण त्यागने के संकल्प को भागवत जी की यह परिभाषा असत्य करार देने जा रही है। पता नहीं बाबासाहब के भक्तों को यह दिखाई दे रहा है या नहीं।
सावरकर साहब की परिभाषा के मुताबिक मुसलमान और ईसाई एक नम्बर के भारतीय नहीं हैं। क्योंकि उनकी पुण्यभूमि इस देश के बाहर है। संघ प्रमुख ने अभी जो कहा है उसके अनुसार ये दोनों भी हिंदू ही माने जाएँगे। सवाल है कि उनको हिंदू धर्म में कौन सा स्थान मिलेगा ! क्या वे हिंदू मुस्लिम या हिंदू ईसाई कहे जाएँगे?
जैसे पूर्व में उन्होंने आरक्षण पर पुनर्विचार की जरूरत बताई थी और आज सात साल बाद उसको हम हकीकत के रूप में देख रहे हैं उसी तरह संभवतः कल संघ प्रचारक प्रधानमंत्री हिंदू मुसलमान और हिंदू ईसाई कहे जाने का कानून बनवा दें तो आश्चर्य नहीं होगा!
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