— सुधा उपाध्याय —
यह कैसा समय है जिसकी सबसे ज्यादा हम बात करते हैं, वही हमारे जीवन में अनुपस्थित रहता है, मसलन प्यार, मसलन विश्वास, मसलन जनतंत्र।” ये कविता की पंक्तियाँ श्रीप्रकाश शुक्ल के नए संकलन वाया नई सदी में से हैं। कविता को धारदार हथियार बनाना, आने वाली सदी का पैरोकार बनाना, अभिव्यक्ति से बढ़कर समाज के स्पंदन को थामना, महसूस करवाना, असली शब्दों की शिनाख्त कर उन शब्दों के अर्थ और अनुगूंज को दूर और देर तक सहयात्री बनाना, यही श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं की पहचान है। यह तो हम सबका मानना है कि कवि का स्वभाव, मिजाज और तेवर उसकी कविता को विशिष्ट पहचान देते हैं। हम आलोचकों को भी अच्छी कविता से पहले सच्ची कविता की खोज होती है। माना कि दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है और हम जिस नई सदी में प्रवेश कर रहे हैं वहाँ क्रांति के स्वर, चेतना के स्वर, मद्धम पड़ते जा रहे हैं। विचार या तो पीले पड़ते जा रहे हैं या घिसटते-घिसटते बसिया गए हैं।
वाया नई सदी को दोहरी जिम्मेदारी निभानी होगी। क्योंकि जिस सदी से हम गुजर रहे हैं वह यूँ ही अचानक नहीं है। उसके पीछे यंत्रणाओं, वंचनाओं का लंबा खासा इतिहास रहा है। हम भूल-से गए हैं धीरे-धीरे उन जीवन मूल्यों को, उन संवेदनात्मक प्रेम-परवाह, मान-मुहार के सलीकों को, जो हमारी परंपरा और संस्कृति का अटूट हिस्सा थे। हम एक ऐसे दौर में साँसें ले रहे हैं, हाँ ठीक सुना आपने साँसें ही ले रहे हैं। बमुश्किल। क्योंकि इसे जीना तो कतई नहीं कहा जा सकता। जिसमें एक अस्वस्थ सी प्रतिस्पर्द्धा है, एक अस्वस्थ परिवेश; और इस रुग्ण परिवेश में हमारी मानसिकता रोगग्रस्त होने से कब तक बची रहेगी। हमारे भावों की दुनिया, संवेदना का धरातल, स्मृतियों का खजाना, यहाँ तक कि अनुभव की सजीवता भी हमसे बदगुमान होकर पीठ किए बैठी है। जन-गण-मन की बात तो कौन करे, इस भीड़ तंत्र में भेड़ों का शुमार ही जनगणना कहलाता है। जहां न हमारी अपनी कोई राय है, न कोई सदिच्छा न सपने। उन कुछ एक सपनों को पूरा करने के लिए हम जीवन भर जुटे रहते थे, वह सर्जनात्मक ऊर्जा भी नहीं बची है। जिन कोनों कगारों में हम खड़े हैं, वहाँ से संवेदना, करुणा, मर्म, ममता, समता, क्षमता ऐसे सभी मानवीय पक्ष धुँधलाए दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में श्रीप्रकाश शुक्ल वाया नई सदी में आकर हम सबसे टकराते हैं। जिनका यह कहना है कि यह एक चुप्पी का शोर है, कराहना जहाँ अपराध है और उलाहना अवसरवाद। इस व्यवस्था में असली चीजें इसी अवसरवाद के नाम पर मारी जाती हैं और नकली चीजें यूँ ही फलती-फूलती रहती हैं।
अब आप देखें कि ये नकली चीजें हैं क्या? मैं इन्हें ईर्ष्या, द्वेष और प्रतिस्पर्द्धा कहूँगी। जो बेइंतहा केवल पनप नहीं रहीं, पसर रही हैं और ये हाल संवेदनहीन दुनिया का नहीं है। कुछ एक संवेदनशील कहलाने वाले आपस में घृणा और संदेह से भरे हुए उन फैब्रिकेटेड लोगों का है जो कविता का भी वही हश्र किए दे रहे हैं जो आजादी के बाद लोकतंत्र का हुआ। न तब तमाशा देखने वालों की कमी थी और आज भी तमाशबीन बढ़ रहे हैं। जो वर्चस्व की सत्ता को, क्रूर अराजक शक्तियों को अपनी श्रद्धा के पुष्प व फल चढ़ावा देकर बढ़ा रहे हैं। और चहुँओर अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। प्रतिकूल परिस्थितियों में हम आह उह भी न कर पाए।
इतना कठिन समय तो पहले कभी नहीं था। कविता की ऊँगली थामे ही हम नई सदी में प्रवेश करते हैं। जहाँ जन के मन की थाह मिलती है, जहाँ मानवीय संभावनाएँ अब भी कुलबुला रही हैं। निश्चित तौर पर श्रीप्रकाश शुक्ल जी के सातों कविता संग्रहों में अपने समय के दबाव को चीन्हा गया होगा। पर इस संग्रह को गहराई से पढ़ने पर यह बात आशान्वित करती है कि ये न केवल समसामयिक चुनौतियों को चीन्हते भर हैं बल्कि लगातार सूक्ष्म से सूक्ष्म अपने इर्द-गिर्द को, यथास्थितियों को, गहरे धंसती जड़ता को उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं बल्कि कहीं-कहीं उसमें से उबरने का साहस भी देते हैं। झींगुर का उदाहरण कितना सार्थक है—ये नगण्य सा प्राणी सब तरह की नींद के खिलाफ अकेला मुहिम छेड़े है —
नींद के ख़िलाफ़ एक और जागरण
संगीत विद्ध जीवन मरन
कितने अच्छे हो तुम
आत्मा को चीरते हो
हम तो कहेंगे यह
तुम्हारी पहरेदारी है प्रकृति के लुटे जाने के ख़िलाफ़
यानी आप देखें कि नए मुहावरे गढ़ना, उन मुहावरों को दृश्यात्मक बनाना हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। ऐसे में गाय, पीपल, तुलसी के पुराने उपमानों के साथ छेड़छाड़ लगभग दुस्साहस ही कहा जाएगा। पर यह भी तो सच है कि नई सदी को नए संस्कार ये नए मुहावरे ही देंगे। क्योंकि चिर परिचित चौखटों में अब उनकी समाई नहीं हो सकती। अब इनके पारंपरिक अर्थ बेमानी होते जा रहे हैं। इसलिए श्रीप्रकाश शुक्ल जी गाय को न पारंपरिक नजर से देखते हैं न उसे संस्कृति और रीति-रिवाज या लोक व्यवहार से जोड़ते हैं। आज के इस बेशर्म दौर में कुछ अवसरवादी शक्तियों का ब्रांड बनती जा रही गाय, श्रीप्रकाश शुक्ल के लिए कुछ और है। इस संकलन में ये पंक्तियाँ बरबस ही मेरा ध्यान खींचती हैं—
जानना, उसके लिए उस मुहावरे से अनजान होना है
जिसमें एक सीधी सरल गाय
हिंसक पशु में बदल जाती है
और नाना प्रकार की पशुता को छूट देती
अपने ही मुहावरे की हत्या कर बैठती है
गजब का अनबूझा सैलाब है इन पंक्तियों में। जो अपनी त्वरा के साथ बाहरी तमाम मानदंडों को वर्चस्व की ताकतों को एक साथ धता बता देती है। इसी संकलन में एक और कविता ने मेरी उम्मीद को बाँधे रखा और लगा कि इस कविता का भी उल्लेख किया जाना चाहिए। वह कविता है उत्तर कोरोना, जहाँ आत्माएँ होंगी आत्मीयता न होगी। इस वैश्विक आपदा-विपदा में हमने केवल अपने-अपनों को ही नहीं अपने भीतर के सर्जना के क्षण को भी खोया है। हमारी सुधियों के बेशकीमती पल, हमारे अनुभवों में रचा-बसा संसार और हमारी संवेदना के टूटते तार, सबको साक्षात अपने सामने मरते-मिटते देखा। हर शय लाचार, हर व्यक्ति बीमार, इतना बेबस और लाचार तो हैजे और प्लेग में भी न रहा होगा। जहाँ लगातार लंबी कतार में लोग उपचार के लिए खड़े हों, साँस साँस के ऑक्सीजन को तरस रहे हों। नकारात्मक शंकाओं और असुविधाजनक दुविधाओं से घिरे हों, फिर भी बचने और बचे रहने की कोई खास उम्मीद न हो।
ये लगातार का आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंसिंग अपनी हद से बाहर आकर सोल डिस्टेंसिंग में तब्दील हो गया। इस घुटन और अकेलेपन की पीड़ा में जो संत्रास हाथ लगा, कि हम कुछ कहीं किसी से साझा भी न कर पाए। न डूबते उतराते भाव, न आशंकाओं के विचार, न एक दूसरे की दुविधा। ऐसी मर्मांतक पीड़ा कि हम अपने-अपनों के देहावसान पर चार लोग जुटा नहीं पाए। अब ये पालकी कैसे उठे, जहाँ चार कहार ही गायब हों। वक्त थम सा गया और लगा कि ये सदी का अंत होगा। इस कविता को पढ़ते-गुजरते मैं लगातार उसी संघर्ष से जूझती रही जहाँ चुप्पी घनेरी होती जा रही, नीरवता धंसाए जा रही अंधेरों में और भविष्य आशंकाओं से घिरा हुआ। ऐसे माहौल में, जो यहाँ वहाँ छिटके हुए सृजनशील बीज हैं वो इस निर्ममता को फोड़कर अंकुआना चाह रहे थे।
जहाँ अभिव्यक्तियाँ होंगी लेकिन आस्वाद न होगा
लोग लौट रहे होंगे लेकिन लौटने के लिए कुछ न होगा
आत्माएँ होंगी आत्मीयता न होगी
एक देह होगी जिसको एक आत्मा ढो रही होगी
रचना का सुख रचने में ही है। दरअसल यह वह सतत यात्रा है जहाँ तमाम असंतुष्टियों और असहमतियों को आदर मिले। एक अकेली बेचैनी और खीझ को आवाज मिले। घुप्प अंधेरों के खिलाफ लड़ती है कविता और श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं—
बोलने को वो रोक सकते हैं
हमारे प्रदर्शन को भी वे नष्ट कर सकते हैं
लेकिन हमारे सोचने का वे क्या करेंगे
जहाँ डीएनए नहीं हमारा वजूद बोलता है
मित्रो यह कोई कविता नहीं है
यह एक ऐसे परिसर का बयान है
जहाँ हमें सबकुछ को देखने की आजादी है
लेकिन बहुत कुछ न बोलने की हिदायत
वाया नई सदी में हम प्रवेश कर रहे हैं। तो इसी कविता के हथियार को लेकर, जहाँ हमारी पक्षधरता साफ हो। हम इतने निर्भीक हो सकें कि कविता को लेकर ईमानदार रह सकें और कविता प्रलय की स्थितियों से हमें बार-बार उबार ले।
किताब : वाया नई सदी (कविता संग्रह)
कवि : श्रीप्रकाश शुक्ल
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य : 495 रु.
बहुत सुंदर बयां किया है सुधा मैम आपने।
” रचना का सुख रचने में ही है। दरअसल यह वह सतत यात्रा है जहाँ तमाम असंतुष्टियों और असहमतियों को आदर मिले। एक अकेली बेचैनी और खीझ को आवाज मिले। घुप्प अंधेरों के खिलाफ लड़ती है कविता और श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं—
बोलने को वो रोक सकते हैं
हमारे प्रदर्शन को भी वे नष्ट कर सकते हैं
लेकिन हमारे सोचने का वे क्या करेंगे
जहाँ डीएनए नहीं हमारा वजूद बोलता है
मित्रो यह कोई कविता नहीं है
यह एक ऐसे परिसर का बयान है
जहाँ हमें सबकुछ को देखने की आजादी है
लेकिन बहुत कुछ न बोलने की हिदायत””
आज के समाज की नब्ज़ को पकड़ती हुई कविताएं हैं।श्रीलाल शुक्ल जी की।
श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएँ वाक़ई बेहतरीन हैं। सुधा उपाध्याय जी ने इनकी कविताओं का पाठ भी किया है, वो भी आलेख की तरह ही ज़बरदस्त है। समता मार्ग को बहुत बधाई।
बहुत शुक्रिया आपका। श्री प्रकाश शुक्ल जी की कवितायें वाक़ई नयी सदी में प्रवेश करते हुये युग्मन सच्चाइयों और चुनौतियों को उजागर करती हैं। बहुत शुक्रिया