गुजरात का चुनावी माडल देश के बाकी हिस्सों ने नकार दिया है

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— अनिल सिन्हा —

भी अभी संपन्न चुनावों को लेकर एक ही बात ज्यादा हो रही है और वह है गुजरात के नतीजों के बारे में। यह चर्चा भी एक खास कोण से ही हो रही है जिसका उद्देश्य प्रधानमंत्री मोदी की छवि चमकाने और भाजपा को एक अपराजेय राजनीतिक पार्टी बताने का है। यह सच है कि गुजरात में भाजपा ने भारी विजय पायी है। लेकिन गोदी मीडिया इसे आधार बनाकर प्रधानमंत्री मोदी को ऐसी करिश्माई शख्सियत साबित करने पर आमादा है जिसका जादू कभी खत्म नहीं हो सकता है। वास्तव में यह 2024 के लोकसभा चुनावों के प्रचार अभियान का हिस्सा है जो उस दिन ही शुरू हो गया था जब नरेंद्र मोदी पिछला लोेेकसभा चुनाव जीते थे।

हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार तथा विभिन्न राज्यों की छह विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भाजपा के महज दो सीट पाने, उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव में दिवंगत मुलायम सिंह की सीट उनकी बहू को मिल जाने और दिल्ली एमसीडी के चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिली जीत – ये सारे तथ्य बड़ी चालाकी से खारिज कर दिए गए। असलियत यह है कि गुजरात को छोड़कर सभी जगहों पर भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा।

यह भी बताना जरूरी है कि लोगों ने भाजपा की कोशिशों को नकार दिया और स्थानीय मुद्दोें को प्राथमिकता दी। भाजपा ने तो हिंदुत्व के राष्ट्रीय एजेंडे पर ही चुनाव लड़ा था जिसमें समान नागरिक कानून, नागरिकता संशोधन कानून, कश्मीर में धारा 370 हटाने और राममंदिर के निर्माण में हो रही प्रगति जैसे मुद्दे शामिल थे। इसके साथ ही हर जगह प्रधानमंत्री मोदी ही चेहरा थे।  लेकिन लोगों ने भाजपा के एजेंडे और मोदी के चेहरे, दोनों को अस्वीकार किया।

इस बात पर चर्चा जरूरी है कि हाल के चुनावों में गौर करने लायक सबसे जरूरी बात क्या थी? यह साफ तौर पर समझना चाहिए कि इसका भाजपा की हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं है। इसका संबंध भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप से है जिसे इन चुनावों ने एक बार फिर सामने ला दिया है।

इन चुनावों ने इस बात की याद दिला दी है कि देश की सारी की सारी संवैधानिक संस्थाएं ध्वस्त हो चुकी हैं, और मीडिया, जो किसी संविधान से संचालित नहीं होता है, लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों और अपनी परंपरा से प्रेरित होना छोड़ चुका है। उसका मुख्य काम सही सूचना समय पर पहुंचाने का है। पिछले दिनोें हुए चुनाव और उसके बाद मीडिया की भूमिका ने यही साबित किया है कि वह पत्रकारिता तथा सूचना देने के बुनियादी काम को छोड़ कर सरकार के प्रचार तंत्र में तब्दील हो गया है।

सबसे पहले हम गुजरात के नतीजों पर आते हैं। गौर से देखने पर भाजपा और उसके समर्थक मीडिया के इस दावे में ज्यादा दम नजर नहीं आता कि ऐसा परिणाम कभी किसी पार्टी के पक्ष में नहीं आया है। ऐसे परिणाम कई बार देखने को मिले हैं। तमिलनाडु के दो चुनावों के उदाहरण सामने हैैं। जयललिता की पार्टी एडीएमके ने कांग्रेस के साथ मिलकर 1991 में 234 में 225 सीटें जीत ली थीं और उसने 59 प्रतिशत से ज्यादा मत पाए थे। सामने की पार्टी डीएमके के गठबंधन को सिर्फ सात सीटें मिलीं और मत प्रतिशत 30 था।

पांच साल बाद जयललिता के गठबंधन को सिर्फ चार सीटें मिलीं और डीएमके गठबंधन ने 221 सीटें और 61 प्रतिशत मत हासिल कर लिये। एडीएमके को सिर्फ 27 प्रतिशत वोट मिले। गुजरात में ही माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1985 में 149 सीटें जीती थीं जो भाजपा की ओर से जीती हुई 156 सीटों से सिर्फ सात सीटें कम हैं। लेकिन भाजपा उस चुनाव में कांगेस को मिले मत-प्रतिशत का रिकार्ड नहीं तोड़ पाई है। उसे 2022 के चुनावों में 52.5 प्रतिशत मत मिले हैं जबकि कांग्रेेस को 1985 में 55.5 प्रतिशत मत मिले थे।

पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा समेत मानव-सूचकांक के ज्यादातर मानकों पर पिछड़े गुजरात में कोरोना की बदइंतजामी से लोगों की बड़ी संख्या में मौत हुई। हाल ही में मोरबी हादसे ने 150 लोगों की जान ले ली।  ऐसे में, भाजपा की भारी विजय हमारे सामने कई तरह के सवाल खड़े करती है।

गुजरात का माडल विकास का कोई माडल हो या न हो, राजनीति का एक माडल जरूर है जो चुनाव जिताने में सक्षम है। हमें गुजरात के इस राजनीतिक माडल को समझना होगा। यह नफरत को सालोंसाल जिंदा रखने और किसी भी तरह चुनाव जीतने का माडल है। अलबत्ता हिमाचल प्रदेश में यह राजनीतिक माडल काम नहीं कर पाया जबकि गुजरात वाले सारे मुद्दे तथा मोदी ब्रांड वहां भी मौजूद थे। यही देश के विभिन्न हिस्सों के उपचुनावों में हुआ।

चुनाव जीतने के इस माडल में सतत जिंदा रहने वाली नफरत के अलावा कई तत्त्व ऐसे हैं जिसकी वाहवाही होती रही है। इसमें आरएसएस के कार्यकर्ताओं की ओर से मतदाताओं के बारे में जानकारी इकट्ठा करना और उसके आधार पर उन्हें मतदान केंद्रोें तक लाना। इसमें दबाव, लालच और  सांप्रदायिक भावना का कितना इस्तेमाल होता है, इसकी कभी चर्चा नहीं होती है। लोग इसकी चर्चा भी नहीं करते कि क्या इस तरह चुनाव लड़ना, मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित करने के कारण, जन प्रतिनिधित्व कानून के दायरे में नहीं आता है! पन्ना प्रमुख बनाने और बूथ मैनेजमेंट को गृहमंत्री की चुनाव जीतने की रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा बताया जाता है। मीडिया ने इसके खूब कसीदे पढ़े हैं।

चुनाव जीतने की इस रणनीति में ‘युद्ध में सब कुछ जायज है’ की तर्ज पर चुनाव प्रचार कभी भी और कैसे भी किया सकता है। राज्य में एक दिसंबर को मतदान हो रहा था और मतदान वाले क्षेत्र से कुछ किलोमीटर की दूरी पर प्रधानमंत्री मोदी का रोड शो चल रहा था। यह हर चैनल पर लाइव हो रहा था। यह दूसरे चरण का प्रचार था। दो चरण मेें मतदान कराने के पीछे शायद यही कारण रहा होगा।

किसी भी तरह चुनाव जीतने की यह रणनीति वोट बटोरने के और तरीकों में भी नजर आती है। इसमें आम आदमी पार्टी, ओवैसी की पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियों का इस्तेमाल शामिल है। आम आदमी पार्टी ने गुजरात में आदिवासी और पिछड़े इलाकोें में कांग्रेस को हराने में बहुत मदद की।

अगर हम कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के मत प्रतिशत को जोड़ देें तो यह कांग्रेस को पिछले चुनावों में मिले मत-प्रतिशत के करीब करीब बराबर हो जाता है। कांग्रेस को 27 प्रतिशत और आप को 13 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस को पिछली दफा 41 प्रतिशत वोट मिले थे। ओवैसी की पार्टी के कारण, पिछली बार मुसलमान बहुल तीन सीटें जीतने वाली कांग्रेस, सिर्फ एक ही ऐसी सीट जीत पाई।

आम आदमी पार्टी को चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका दिलाने में सीबीआई, ईडी और मीडिया की काफी भूमिका रही। शराब घोटाला और सत्येंद्र जैन के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम पर अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को चर्चा में रखा गया और मीडिया उन्हें गुजरात में भाजपा का प्रतिद्वंद्वी बताता रहा। मीडिया ने यह सवाल नहीं उठाया कि आम आदमी पार्टी और ओवैसी की पार्टी को देश के विभिन्न हिस्सों में चुनाव लड़ने का धन कहां से आता है।

चुनाव जीतने के इस माडल ने लोकतंत्र को क्या नुकसान पहुंचाया है यह समझना जरूरी है। इसमें न केवल देश की तमाम संस्थाओं के इस्तेमाल की खुली छूट है बल्कि धन के बेहिसाब इस्तेमाल की इजाजत है। यह हिसाब लगाने की बात है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों के चुनावी दौरों में कितना सरकारी धन खर्च हो रहा है। उनके चमकीले प्रचार अभियानों में पार्टी की ओर से हो रहे खर्च पर चुनाव आयोग की कितनी नजर है?

लेकिन मोदी का ब्रांड और चमकीले प्रचार अभियान मतदाताओं को मतदान केंद्र की ओर खींच नहीं सके और गुजरात में मतदान का प्रतिशत पहले से कम हो गया। इसे लेकर भाजपा को चिंता हो या न हो, कांग्रेस को अवश्य होनी चाहिए क्योंकि जो लोग भाजपा को जिताना नहीें चाहते होंगे उनके ही बूथ से दूर होने की संभावना ज्यादा है। उन्हें यह विश्वास नहीं हुआ कि भाजपा हारेगी। मतदान के प्रतिशत में कमी के हिसाब से ही भाजपा के मत-प्रतिशत में इजाफा हुआ मालूम देता है। यह लोकतंत्र के प्रति लोगों की निराशा भी दर्शाती है। यह उन लोगों की चिंता का विषय भी होना चाहिए जिन्हें लोकतंत्र के भविष्य की चिंता है।

इसका एक और अर्थ है जो सकारात्मक है कि गुजरात में भी मोदी की छवि कमजोर हो चुकी है। यही कमजोर छवि हिमाचल में हारी है। वहां भी मोदी ने अपने लिए वोट मांगा था। एक व्यक्ति, एक संगठन और एक धर्म की सत्ता के इस सपने को गुजरात भी लंबे समय तक ढोने को तैयार नहीं दिखाई देता है और देश के बाकी हिस्सों में तो इसे अस्वीकार किए जाने का सिलसिला जारी है, सिर्फ लोगों को भरोसा दिलाने की जरूरत है। इस भरोसे का रास्ता हिमाचल ने दिखाया है जहां पुरानी पेंशन योजना लागू करने समेत जनहितकारी वायदों ने कांग्रेस की वापसी में अहम भूमिका निभाई है। यही रास्ता विपक्ष को अपनाना होगा।

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