— रमाशंकर सिंह —
स्त्रियों का सौंदर्यबोध एक नहीं कई आयाम धारण करता है। ऐंद्रियकता, मादकता और यौनिकता उनकी अद्भुत शक्ति के कुछ ही रूप हैं। स्त्री में सौंदर्य नैसर्गिक रूप से स्थित है और उसका सजीव सुंदर प्रदर्शन भी।
प्रकृति ने इंसानी सभ्यता को स्त्री के विभिन्न सुंदर व शक्तिशाली रूपों से समृद्ध किया है। वह मॉं पुत्री बहन सखी सलाहकार होकर भी एक सैनिक की भाँति खेत खलिहान कारखानों पहाड़ों और श्रम के सभी क्षेत्रों में हाड़तोड़ मेहनत करते हुए भी वक्त मिलते ही अपने साथी को मात्र एक मादक दृष्टि से रिझा सकने की क्षमता रखती है। चूल्हे या तवे से एक अंगुली में कालिख लेकर क्षणभर में अपनी आँखों में काजल लगाकर वह सृष्टि की सुंदरतम होने का प्रदर्शन कर सकती है और उसका गुमान भी।
भारतीय संस्कृति में औरत ने खुद को इतना स्वतंत्र और शक्तिरूपा बनाया था कि उसने झीने अधोवस्त्र या मात्र आभूषणों से अपनी देह को अलंकृत किया। विश्व के सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम कलाकार कारीगर बुनकर केशसज्जाकार इन्हीं तमाम स्त्रीरूपों की माँग पर वह सब कर पाये जो दुनिया में कहीं भी रूपायित न हो पाया जैसा कि यहॉं भारत भूमि पर संभव और मान्य हुआ ! इन रूपों के कई शास्त्रीय विधान बने, मंदिरों में शास्त्रीय नृत्य विकसित हुए और जब राजदरबारों में आए तो कपड़े उढ़ाते गये कि सत्ता का दरबार निर्मल दृष्टि नहीं रखता जो विद्यालय गुरुकुल या आश्रम रख सकता है।
भारतभूमि यानी जहॉं-जहॉं जब-जब भारत से गये लोगों का राज रहा, वियतनाम तक और कभी कंधार तक ! फिर ईरान तक से कुछ चीजें अपनायी गयीं। पर इसके पहले ही भारत में विभिन्न देवियों के स्वरूप मान्य और पूज्य भी हो चुके थे। मंदिरों में, कंदराओं में, पूरे समाज में देवियॉं गुणों के आधार पर पूज्य हुईं ! वेशभूषा या निर्वस्त्र होने के आधार पर कभी नहीं ! जहॉं नजर डालें वहीं पत्थरों पर, कागजों पर देवीरूप यानी स्त्री रूप न्यूनतम आवरण में दिखता है, निर्वस्त्र भी। जल भी आवरण है इसलिए जलाशयों में नग्न नहीं माना जाता। नग्न जोगनियों का मान्य सामाजिक धार्मिक प्रतिष्ठान किसी अमेरिका में न था यहीं भारतीय समाज में मान्य था। यह आश्वस्ति भी है कि मर्दों व समाज की दृष्टि सौंदर्य को समझती एवं सम्मान्य करती थी।
वे इसलिए भी शक्तिरूपा हैं कि वे मर्द को अपने इर्द-गिर्द एक केंद्रित भावमग्न युगल के रूप में नचा सकती हैं। एक दूसरे में खो सकते हैं। यह दृश्य अप्रतिम मानवीय सौंदर्य का विषय है जो भारतीय नृत्यों में है भी और नहीं भी कि हर युग्म अपना खुद का भी रचता है ! यह खजुराहो में है, ऋषि वात्स्यायन के कामसूत्र में है और नहीं भी कि ये रचनाएं अनंत रूप पाती हैं जब दो व्यक्ति अपने भाव से अपना अनूठा युग्म बनाते हैं।
ऐसी अद्भुत ऐंद्रिकता सिर्फ भारत की महान सभ्यता में ही पाई गई कहीं अन्य नहीं। यह मादकता भी उसी ऐंद्रिकता का दूसरा रूप है। इसे एक कला के रूप में सार्वजनिक तौर पर सार्वजनिक स्थानों पर साझा भी किया गया जैसे पहले मंदिरों पर और अब सिनेमाघरों में।
जब सभ्यताओं का पतन होता है तो सबसे पहले दृष्टि दूषित होती है कि वह हीनभावना से ग्रस्त हो जाती है, सुंदरतम को देख ही नहीं सकते, नये का सृजन बर्दाश्त नहीं होता ! यह खराब नजर पराजय से, पराजय-भाव से पैदा होती है, अपने दासत्व की कुंठा से और निकम्मेपन से भी। जब राक्षस बनकर सब विध्वंस ही करना है कि कुछ भी रचने लायक योग्यता न बचे। बाद में तो मूर्तियों नाट्यशालाओं पुस्तकालयों विद्यालयों को और अब सिनेमा को नष्ट करो ! और यह काम पिछले हजार सालों से आज तक चलता ही आ रहा है खासतौर से एशिया के इस दक्षिणी हिस्से में।
दक्षिण एशिया अब वहशीपन की राजधानी बन चुका है। भारत अब इस असभ्यता का भी हृदयस्थल है जो कभी सृजनात्मकता का केंद्रबिंदु होता था। औरत यानी देवियों पर, उनके रूपरंग भाव देहयष्टि आदि पर जिसकी कुदृष्टि हुई है वह कालांतर में बचा कहॉं है ? इस कालखंड में हमें जिन विषयों पर गौरवान्वित भी होना चाहिए उसका राक्षसी विध्वंस कर रहे हैं। स्त्रियों के आसपास बुना हुआ सब कुछ एक काव्यशास्त्र है! सारे महाकाव्य स्त्री के बगैर, उसे केंद्रीय भूमिका में रखे बिना कब रचे गये हैं?
स्त्री को समझने की दृष्टि पैदा करो, उसे सखा जैसा सम्मान दो जैसे कृष्ण ने कृष्णा को दिया था। कृष्णा यानी साँवली द्रौपदी। एक स्त्री भी कई मर्दों से सौ गुना शक्तिशाली है, हर दृष्टि से पूजने का ढोंग अब मत करो कि वह तुम्हारे सामर्थ्य का नहीं है अब !
सौंदर्य, समानता और स्वतंत्रता का एक सम्यक् विचार ही भविष्य का आधार है।