
— रघु ठाकुर —
हवाई जहाज की यात्रा मेरे जैसे लोगों के लिए किसी छोटे-मोटे युद्ध जैसी होती है। मैंने बेंगलुरु जाने के लिए यशवंतपुर सम्पर्क क्रांति का टिकट लिया था। मित्रों ने बहुत प्रेम से एसी थ्री का टिकट करा दिया था। चालीस घंटे की यात्रा थी। यानी लगभग दो दिन और दो रात का रेल सफर। पर बेटी अनीता ने, जिद करके लगभग चार गुने किराये का साढ़े आठ हजार का इंडिगो का विमान टिकट करा दिया। साढ़े ग्यारह का विमान छूटना है। अत: सोचा कि, आराम से नाश्ता कर नौ बजे तक कमरा छोड़ेंगे। पर, कल के दिल्ली के अखबारों में खबर छपी कि लम्बी-लम्बी लाइनों की वजह से इंडिगो ने मार्गदर्शिका जारी की है कि साढ़े तीन घंटे पहले यात्री पहुंचें। सुबह सात बजे कमरा छोड़ना होगा। परेशानी थी कि, क्या सर्दी व कोहरे में इतनी सुबह आटो मिलेगा? फिर कितने पैसे लेगा? कुल जमा सात सौ पचास रु पास हैं और वापिस रेल से आना है तो रास्ते में खाना आदि भी खरीदना होगा। पर श्री संजय सिंह जी को धन्यवाद, उनने अपने सहयोगी श्री शमीम को गाड़ी से छोड़ने को भेज दिया।
उनने इंडिगो के सहायता को भी फोन किया तथा मेरे मित्र के बेटे ने भी हवाई अड्डे की अनजान दुनिया में सहयोग कर हजारों की भीड़ पार कराकर विमान तल की वैतरणी पार करा दी।
मै कई वर्षों से उबला पानी पीता हूँ पर यहाँ तो पानी नहीं ले जा सकते। दुकानों का पानी बहुत महंगा है। तो, श्री साहस जी ने खाली बोतल ले जाने की सलाह दी तथा सुरक्षा जाँच के बाद उसे अंदर भरने की अनुभवी सलाह दी। वह मेरे काम आई और मैने उसका पालन किया..
विमान अड्डे की अलग दुनिया है। यहाँ शायद ही कोई हिंदी बोलने की बेअदबी करता हो। बच्चों से लेकर बूढ़े तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं। अधिकांश के वस्त्र भी अबोधगम्य हैं। तथा इस सर्दी में भी अनेकों लोग आइसक्रीम खा रहे हैं।
इस अजनबी दुनिया की अंग्रेजी भी हम जैसों को समझने में कठिन ही होती है। पहले प्रतीक्षागृह में अखबार मिल जाते थे पर अब वे भी नहीं मिलते।
सच्चाई तो यह है कि हम जैसे अनपढ़ और अनगढ़ लोगों को यह अजनबी दुनिया है जो भयभीत करती है। पर जाना ही है। कल मांड्या में जेपी की सम्पूर्ण क्रांति और फिर वर्तमान में समाजवाद की सम्भावनाओं पर बोलना है।
एक मुल्क की दो विपरीत सभ्यताओं के इस अंतर को क्या कहा जाय?
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