— डॉ सुरेश खैरनार —
यह लेख मैं किसी को भी नीचा या ऊंचा दिखाने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मैं उम्र के बारहवें साल में था तब से राष्ट्र सेवा दल का सैनिक हूँ ! और गिनकर उम्र के बीसवें साल में था (1973-1976 आपातकाल के समय, जेल जाने के कारण इस्तीफा देना पड़ा ) तब से पूर्णकालिक कार्यकर्ता की भूमिका में रहा हूँ !
वर्तमान में देश की स्थिति को देखते हुए, मुझे चालीस साल के अंतराल के बाद 2017 से 2019 तक दो साल के लिए सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनाया गया था ! और मैंने अध्यक्ष पद ग्रहण करने के बाद पहले ही संबोधन में सभी प्रतिनिधियों को कहा था कि “मैं सिर्फ और सिर्फ संघमुक्त भारत बनाने के लिए चालीस साल के अंतराल के बाद अध्यक्ष बना हूँ ! और मेरे उद्देश्य से, इस सभा में एक भी सदस्य असहमति व्यक्त करते हैं तो मैं अपने पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हूँ ! क्योंकि मेरे हिसाब से आज की तारीख में भारत की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देश के कोने-कोने में हुआ फैलाव है, इसे रोकने के लिए राष्ट्र सेवा दल एकमात्र ऐसा संगठन है जो उसका विकल्प बनने का माद्दा रखता है। इसलिए मैंने अध्यक्ष बनने का निर्णय लिया, और आज यह घोषणा कर रहा हूँ!” और खुशी की बात है कि एक भी प्रतिनिधि ने, भारत को संघमुक्त बनाने के मेरे मकसद का विरोध नहीं किया ! इसलिए मैंने अपने अध्यक्ष पद की अपनी जिम्मेदारी को दो साल तक निभाया !
और उस हिसाब से मैंने तुरंत बंगाल, बिहार, झारखंड का संयुक्त शिविर मधुपूर ! और बंगाल के तिलुतिया में, फिर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, असम तथा उत्तर पूर्व, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ तथा आंध्र-तेलंगाना और तमिलनाडु, गोवा, गुजरात, केरल, दिल्ली, हरियाणा मतलब देश के सभी राज्यों में राष्ट्र सेवा दल की गतिविधियों को फैलाने की संभावना तलाशने का प्रयास किया। और जहाँ अनुकूल स्थिति दिखाई दी वहां के पांच-छह बार चक्कर लगाने का काम किया ! उसी दरम्यान कुछ जगहों पर शिविर, सम्मेलन हुए। दो साल बाद (2019) अध्यक्षता से मुक्त हो गया। लेकिन राष्ट्र सेवा दल का सैनिक मरते दम तक रहने वाला हूँ !
कल शाम को, नागपुर के इंडिया पीस सेंटर में ‘मथाई जकारिया’ स्मृति व्याख्यान हेतु काफी लंबे अर्से के बाद गया था। शुरू में डायरेक्टर के साथ उनके कार्यालय में चाय के लिए बैठा था और उनके आसन के पीछे, और अगल बगल में स्थित, अलमारियों में काफी नयी-पुरानी किताबों का संग्रह करीने से रखा हुआ था ! मैं चाय की चुस्कियों के साथ उन अलमारियों में भी झांक रहा था तो यह किताब दिखाई दी ! मैंने उन्हें कहा कि “देखने के लिए निकालिए तो!”
THE RSS : A VIEW TO THE INSIDE, नाम की दो लेखकों की मिलकर लिखी हुई ! (Walter K. Andersen & Shridhar D. Damle) किताब को देखते हुए लगा कि इसे ढंग से पढ़ने की जरूरत है ! तो कल कार्यक्रम के बाद, मै इसे लेकर आया हूँ ! और रात को दो बजे तक पढ़ रहा था !
सबेरे उठने के बाद लगा कि आप लोगों के साथ, आरएसएस के संघटनात्मक तथ्य और आंकड़े साझा करूं। ताकि हम अपने पढ़ने-लिखने, बोलने के समय आरएसएस की सौ साल की यात्रा में संघटनात्मक ताकत क्या है, उसका मुकाबला करने की तैयारी कर सकें! अन्यथा हवाई बातें करने से क्या होगा? पेंगुइन इंडिया ने 2018 में छापी है यह किताब! वैसे तो Left Word ने भी A G NOORANI की 547 पेज की किताब, इस किताब के एक साल बाद 2019 में छापी है ! और देशराज गोयल, जो खुद ही काफी समय से आरएसएस से संबंधित रहे हैं उनकी किताब और भंवर मेघानी तथा प्रोफेसर शमशुल इस्लाम, डॉ राम पुनियानी, प्रोफेसर जयदेव डोळे, तथा प्रोफेसर रावसाहेब कसबे, डॉ बाबा आढाव, देवानूर महादेव तथा मधु वाणि तथा हमारे जैसे कार्यकर्ताओं के हजारों की संख्या में लेख वीडियो आदि सामग्री उपलब्ध है। लेकिन 405 पेज की इस किताब को दोनों लेखकों ने अकादमिक तरीके से, बगैर कोई टीका-टिप्पणी किये, तटस्थ भाव से लिखा है !
इसके मुताबिक संघ की वर्तमान संघटनात्मक ताकत क्या है? 1990 के बाद विश्व का सबसे बड़ा संगठन ! दो करोड़ रोज की गतिविधियों में भाग लेने वाले लोगों से लेकर दैनिक 57000 शाखा, और 14000 साप्ताहिक शाखा, 7000 मासिक शाखाओं का विस्तार 36,293, देश के विभिन्न क्षेत्रों में ! यह 2016 के आंकड़े हैं ! 2015 से 16 के दौरान 51,332 से 57000 की संख्या में शाखाओं की वृध्दि हुई है ! 6000 प्रचारकों के सहयोग से ! हिंदू राष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार करने के लिए लामबंद हैं! इसके अलावा 1980 के बाद आखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिंदू परिषद के अलावा जीवन हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग इकाइयों का गठन किया है जिसमें विज्ञान भारती, ज्ञान प्रबोधिनी जैसे महत्त्वपूर्ण संस्थाएं हैं। इसके अलावा दीनदयाल शोध संस्थान, रामभाऊ म्हाळगी अकादमी जैसे संस्थानों का निर्माण किया गया है।
1925 में डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार, तेलुगु ब्राह्मण ने आरएसएस की स्थापना की थी। पंद्रह वर्ष उन्होंने सरसंघचालक का पद संभालने के बाद अपनी मृत्यु के पहले, चार साल तक प्रचारक के रूप में रहे ! माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने 1940 में, डाॅ हेडगेवार की मृत्यु के बाद 1973 तक, तैंतीस साल संघ की कमान संभाली, जिस कारण वर्तमान समय के संघ और उसकी कार्यप्रणाली से लेकर हिंदुत्व की बौद्धिक बैठक बनाने का काम उन्होंने किया है !
उनकी मृत्यु के बाद, महाराष्ट्र के ही हेडगेवार के शिष्यों में से एक मधुकर दत्तात्रेय देवरस 1973 – 94 तक लगभग इक्कीस साल संघ प्रमुख रहे। जन्म से ब्राह्मण रहने के बावजूद (संघ को बहुत लोग सिर्फ ब्राह्मणों का संघटन मानने की गलती करते हैं) देवरस ने अपने कार्यकाल में संघ में पिछड़े वर्ग के लोगों से लेकर दलित, मुस्लिम और ईसाई लोगों को भी प्रवेश देने की शुरुआत की! नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ, विनय कटियार, उमा भारती जैसे पिछड़ी जातियों के लोग इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।
बालासाहब देवरस ने नई आर्थिक नीति के दौरान तथाकथित भूमंडलीकरण के आपाधापी के दौर का फायदा उठाकर पहचान की राजनीति को उछाला। बाबरी मस्जिद- राममंदिर आंदोलन और गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं के स्टिकर हर दरवाजे पर दिखने लगे।
उनके संघप्रमुख रहते हुए ही 1985-86 में शाहबानो के मामले को देश में विवाद उठा ! और उसमें से निकला नारा, सवाल आस्था का है, कानून का नहीं। संपूर्ण देश में राम जन्मभूमि विवाद की आड़ में सोमनाथ से आयोध्या तक की रथयात्राओं का दौर शुरू कर दिया ! और उस कारण लोगों के रोजमर्रा के विषय हाशिये पर जाने की शुरुआत हुई ! फिर नई आर्थिक नीति से लेकर महंगाई, बेरोजगारी जैसे महत्त्वपूर्ण सवालों पर आंदोलनों की जगह ! जनलोकपाल जैसे अजीबोगरीब मुद्दे पर, आंदोलन आया भी और बीजेपी को सत्ता में चढ़ाकर ठंडा भी हो गया ! मतलब इस आंदोलन के परदे के पीछे संघ के लोग थे ! जो रोज सुबह पांच बजे आज दिनभर जंतर-मंतर पर क्या होगा यह तय किया करते थे ! यहां तक कि कौन से नारे लगाने हैं और कौन से नहीं !
दलितों और पिछड़ी जातियों से लेकर आदिवासियों तक पैठ बनाने के कारण इन सब वर्गों में कम्युनिस्ट , सोशलिस्ट, नक्सलियों से लेकर आंबेडकरी तथा कई स्वयंसेवी संस्था, विभिन्न प्रकार के मज़दूरों के संघटन जो सेकुलर थे ! लेकिन उनके पचास साल पहले के कामों के बावजूद, भले ही वह विस्थापन विरोध के होंगे या पर्यावरण संरक्षण के, पहचान की राजनीति में सब के सब ओझल हो गए। और देखते-देखते हिंदुत्ववादियों के चंगुल में ज्यादातर लोग चले गए ! और भागलपुर से लेकर गुजरात तक के दंगों में हरावल दस्ते के रूप में काम करते हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ मॉबलिंचिग जैसे हमलों में आगे रहते हैं ! और समस्त उत्तर भारत की, सत्तर के दशक में शुरू हुई अगड़ी-पिछड़ी जातियों की राजनीति में ! मंडल की जगह कमंडल की राजनीति करने में सक्षम हुए !
ज्यादातर पिछड़ी जातियों के लोगों ने, मंदिर वहीं बनाएंगे के आंदोलन में शामिल होना शुरू किया ! और उस कारण, उत्तर भारत की राजनीति में कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार जैसे लोगों को आगे बढ़ाना शुरू किया ! और बसपा तथा सपा व समता पार्टी मतलब ! किसी जमाने के कुजात समाजवादी ! जॉर्ज फर्नांडिस के एनडीए का अध्यक्ष बनने तक का सफर ! उनकी राजनीतिक आत्महत्या का सफर रहा है ! और गुजरात दंगों से लेकर ओड़िशा के कंधमाल के, फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दोनों बच्चों को जिंदा जलाने की घटना में क्लीनचिट देने की पतनशीलता तक चले गए थे !
अन्यथा नरेंद्र मोदी जैसे आदमी को भारत के प्रधानमंत्री का पद संभालने के लिए चुना नहीं गया होता ! सौ साल पहले के नाजीवादी जर्मनी की स्थिति में आज भारत को ले जाने के लिए संघ परिवार के अथक प्रयासों का फल है नरेंद्र मोदी की दिल्ली में सरकार !
आरएसएस संघटन की रचना, उसकी कार्यशैली तथा उसके बनाये हुए अन्य क्षेत्रों में अपनी, शाखा-उपशाखा और संख्या के हिसाब से संघ के विस्तार के ग्राफ ! यहां तक कि अपनी राजनीतिक इकाई बीजेपी की भी मतों के अनुपात से लेकर संख्यात्मक बढ़त को देखते हुए ! पता चलता है कि लगभग देश की आधी से भी अधिक आबादी को संघ ने अपने प्रभाव में ले लिया है ! और शिक्षा के क्षेत्र में, आज भारत के सबसे ज्यादा विद्यार्थियों से लेकर शिक्षकों और वाइसचांसलरों की संख्या देखकर लगता है कि आज की तारीख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बराबरी कर सकने की क्षमता और किसी भी संगठन की नहीं है !
पचास साल से भी अधिक समय से, राष्ट्र सेवा दल के काम को देखते हुए मेरी समझ आई तब से यह चिंता और चिंतन का विषय रहा है कि हमें (राष्ट्र सेवा दल को) भी आनेवाले चार जून को 2023 में, 82 साल होने जा रहे हैं ! और संघ की शताब्दी 2025 में होने जा रही है ! हमारे और उनके बीच सिर्फ सोलह साल का फर्क है ! जबकि हमारे स्थापना के दूसरे ही साल मुंबई जैसे शहर में 125 शाखाओं का फैलाव था ! और मुंबई मिलों की तरह तीन पालियों में हमारी 125 शाखाओं की गतिविधियों का आयोजन होता था ! यह बात मुझे मेरे अध्यक्ष रहते हुए 2017 में पालघर के 90 साल से भी अधिक उम्र के नवनीत भाई शाह ने, अपनी मुलाकात के दौरान बताई है !
महाराष्ट्र में, मुझे सन् बयालीस के पचहत्तर साल के उपलक्ष्य में राष्ट्र सेवा दल की तरफ से आयोजित यात्रा के दौरान पहली बार पता चला कि, अकेले राष्ट्र सेवा दल के एक हजार से अधिक लोग 1942 के आंदोलन में शहीद हुए थे ! तीस साल से कम उम्र के!
वहीं गोवा मुक्ति की लड़ाई में ! गोवा, महाराष्ट्र और कर्नाटक के बेळगाव तथा अन्य सीमावर्ती इलाके के सैकड़ों राष्ट्र सेवा दल के सैनिकों ने, जिनमें बैरिस्टर नाथ पै से लेकर मधु लिमये, मधु दंडवते, नानासाहेब गोरे, महादेव जोशी, एडवोकेट राम आपटे, मेनसे, वासू देशपांडे शामिल थे, गोवा की आजादी के लड़ाई में हिस्सा लिया है ! वैसे ही हैदराबाद के निजाम के खिलाफ! मराठवाड़ा राष्ट्र सेवा दल के प्रोफेसर नरहर कुरुंदकर से लेकर अनंतराव भालेराव, डॉ बापु कालदाते, गंगाप्रसाद अग्रवाल, विनायकराव चारठानकर, गोविंद भाई श्रॉफ, जस्टिस नरेंद्र चपळगावकर जैसे सैकड़ों लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बिना उस आंदोलन में शिरकत की थी।
और आज हम कहाँ? और आरएसएस कहाँ? हमलोग लाख आरएसएस को संकीर्णतावादी बोलते आ रहे हों लेकिन इस किताब के शुरू में ही, आमुख में, बहुत अच्छी तरह से बताया गया है कि देवरस के नेतृत्व में (1980) संघ ने पहचान की राजनीति को हवा देते हुए दलितों से लेकर, पिछड़े और आदिवासियों के बीच में अपने अनुयायियों को भेजकर पैठ बनाई। जैसे त्रिपुरा में सुनील देवधर ने, या झारखंड में अशोक भगत ने। गुजरात के आदिवासियों के बीच डांग में असीमानंद जैसे लोगों ने। कहा कि “आप राम को जूठे बेर खिलाने वाली शबरी के वंशज हो !”
पचास साल से भी अधिक समय से हमारे मित्र कॉमरेड शरद पाटील, मेधा पाटकर, कुमार शिराळकर, किशोर ढमाले, वाहरू सोनवणे, अंबरसिह महाराज, प्रतिभा शिंदे ने आदिवासियों के विस्थापन के विरुद्ध या जमीन के पट्टे दिलाने के लिए अपने जीवन को लगा दिया लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर पहचान की राजनीति में संघ के लोग उनपर हावी हो गए !
और 1990 के तथाकथित जगतीकरण के संक्रमण काल में! लोगों के आर्थिक सवालों पर आंदोलन होने चाहिए थे लेकिन बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद छाया रहा। रथयात्राओं से लेकर कारसेवा तक ! सवाल आस्था का है, कानून का नहीं ! और सबसे बड़ा उदाहरण ! उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव से लेकर गुजरात के ताजा चुनावों तक, देश के इतिहास में सबसे अधिक महंगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार के बावजूद, सिर्फ धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव हुए! अगड़ा-पिछड़ा से लेकर सभी तरह के समीकरण को मात देते हुए ! सिर्फ गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं के सहारे चुनाव की नैया पार कर ले जा रहे हैं। मतलब सौ साल पूरे होने के पहले ही अघोषित हिंदूराष्ट्र बनाने में संघ को कामयाबियां हासिल हो रही हैं ! इस वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद उससे निपटने के लिए पहल करने की आवश्यकता है !