मनुस्मृति किनके लिए मायने रखती है!

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— डॉ सुरेश खैरनार —

नुस्मृति यह धर्मशास्त्र है ऐसा कहा गया है ! ‘श्रुतिस्तु वेदों विज्ञयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः ‘श्रुति यानी ‘वेद’ और स्मृति यानी ‘धर्मशास्त्र’। यद्यपि वेदों में मनु का नाम मिलता है फिर भी वेदों के बाद बहुत समय बीतने पर स्मृति ग्रंथों का निर्माण हुआ। मनुस्मृति ईसवी पूर्व 200 से ईसवी सन् 200 के बीच लिखी गयी ऐसा माना जाता है। स्मृतिग्रंथ और स्मृतिकार अनेक हो गये ! किंतु मनुस्मृति सबसे अधिक महत्त्व रखती है ! विष्णु, पराशर, दक्ष, संवर्त, व्यास, हारित, शातापत, वशिष्ठ, आपस्तंभ, गौतम, देवल, शंख, लिखित, भारद्वाज, उशन, शौनक, याज्ञवल्क्य आदि प्रख्यात स्मृतिकारों के नाम तथा वचन ‘मन्वर्थ’ ‘मुक्तावली’ नामक टीका में पाये जाते हैं ! किन्तु परंपरा मनु की स्मृति को प्राचीनता की दृष्टि से सबसे प्राचीन मानती है ! जिस प्रकार गीता अनेक हुई, किन्तु ‘भगवद् गीता’ अमर हुई ! और महाभारत के बाद पुराण अनेक हुए किन्तु ‘महाभारत’ अमर हुआ ! उसी तरह अन्य अनेक स्मृतियों के होते हुए भी ‘मनुस्मृति’ का अग्रस्थान कोई भी स्मृति छीन नहीं सकी। आज तक मनुस्मृति हमारे देश पर, यहाँ की प्रजा पर तथा यहाँ के जनमानस पर, पूरी ताकत से राज कर रही है !

मनुस्मृति का रचयिता मनु ही होना चाहिए किन्तु उसका रचयिता मनु का शिष्य भृगु है ! अर्थात भृगु ऋषि जो भी कहेगा वह मनु द्वारा उसे बताया गया ही होगा ! ऐसा मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहा गया है।

प्रथम अध्याय सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बताता है जिसमें हिरण्यगर्भ के द्वारा विराट, विराट के द्वारा आदिमनु ! (जिसे स्वयंभू कहा गया है !), आदिमनु के द्वारा दस प्रजापति जिसमें भृगु ऋषि भी एक था, निर्माण किये गये ! इसी भृगु ऋषि पर धर्मशास्त्र सुनाने का या तैयार करने का काम सौंपा गया ! मनु उसके पास गये हुए ! सब महर्षि लोगों से स्वयं यह कहता हुआ दिखाया है !
एतव्दोऽयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः !
एतध्दि मत्तोधिऽजगे सर्वमेषोऽखिलं मुनिः ||1,59।।
मनुस्मृति

(यह भृगु महर्षि अभी तुम सबको यह शास्त्र पूरी तरह से सुनाएगा ! उसने यह शास्त्र मुझसे ही प्राप्त किया है ! )

मनु की सभी कल्पनाओं को, प्रत्यक्ष स्मृतिग्रंथ के ढांचे में डालने वाला, भृगु होने के कारण ! मनुस्मृति के हरेक अध्याय के अंत में ! भृगुप्रोक्त संहिता ऐसे शब्द मिलते हैं !
इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्ताया संहिता यां—-

अर्थात मनु कौन था? ‘वह स्वयंभू था’ इसका क्या मतलब निकलता है? वेदों में मनु का नाम आता है ! क्या वह मनु यही मनुस्मृति का स्वयंभू मनु है? जैसे ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के रुद्र सूक्त में ऋषि कहता है –
‘यानी मनुः अवृणीत पिता नः!’ (अर्थात हमारा पिता मनु भी रुद्र की इन दवाइयों को चाहता था !) मनु एक नहीं था, स्वयंभू मनु से और छह वंशज उत्पन्न हुए ! उन छह मनुओं के नाम हैं स्वरोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चासुष, और महातेजस्वी वैवस्वत ऐसे दिये हैं ! (1-62) मनुस्मृति कहती है  –
स्वायंभंवाद्दा सप्तैते मनवो भूरितेजसः ! स्वे स्वे न्तरे सर्वमिदमुत्पाद्दापुश्चराचरम!! 1.62

इन महा तेजस्वी सात मनुओं ने अपने अपने मन्वंतर में संपूर्ण चराचर की उत्पत्ति कर उसकी सुरक्षा भी की ! सृष्टि की उत्पत्ति करने की शक्ति रखने वाले ! कोई महाशक्तिशाली काल्पनिक नाम ही ‘मनु’ है जो हम सब मनुष्यों का पूर्वज है, जैसा हमें बताया जाता है !

कुल्लूक भट्ट ने मनुस्मृति पर ‘मन्वर्थ मुक्तवली ‘नामक टीका या भाष्य लिखा जो अत्यंत प्रसिद्ध है ! इस पुस्तिका का लेखन इसी भाष्यसहित, मनुस्मृति के आधार पर किया है ! यह कहना इसीलिए आवश्यक है कि निर्णयसागर जैसे अत्यंत विख्यात प्रेस द्वारा, कुल्लूक भट्ट के भाष्य सहित प्रकाशित मनुस्मृति का यह संस्करण सारे देशके विद्वानों में प्रमाण माना जाता है !

मनु के बारे में और एक जानकारी। प्रोफेसर आ. ह. साळुंखे जैसे विद्वान मनुस्मृति के समर्थकों की संस्कृति नाम की एक छोटी सी पुस्तिका में कह रहे हैं कि “मनु नाम बहुत प्राचीन है ! सिर्फ भारतीय ही नहीं, समस्त इंडो-यूरोपियन लोगों की नजर से ऐसा कोई पूर्व पुरुष था जिसका नाम मनु या उससे मिलता-जुलता था। भारतीय भाषाओं में भी। मानव, मनुष्य इत्यादि शब्दों का इस्तेमाल करने की परंपरा जारी है। और यह मनुस्मृति के बहुत ही पहले का नाम है।

मनुस्मृति की उम्र सवा दो हजार वर्ष पुरानी है ! और मनु उससे भी पहले, कम-से-कम तीन से चार हजार साल पुराना है। और तत्कालीन समाज के ऊपर जबरदस्त प्रभाव रखने वाले, सम्मानित मनु के साथ मनुस्मृति का कुछ भी संबध नहीं है ! यह साळुंखे जी की टिप्पणी है।

मनु के नाम से, भृगु वंश के किसी ब्राह्मण लेखक की लिखी हुई स्मृति है ! यह ग्रंथ, भारतीय इतिहास का, सामाजिक दृष्टि से, सबसे विकृत ग्रंथ है। इस ग्रंथ ने, बहुजन समाज और स्त्रियों की कम-से-कम सौ पीढ़ियों को अज्ञानी, अपमानित, तिरस्कृत, लाचार और गुलाम बनाकर रखने के साथ ही उनका हर तरह से अधःपतन करने के अलावा और कुछ भी नहीं किया !

इस तरह का अधःपतन का जीवन मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल है ! ( कर्मविपाक के सिद्धांत के अनुसार ! ) और यही मेरा धर्म है ! और यही नीति है ! यह विचार लोगों के दिमाग में डालकर शोषितों के दिमाग में शोषकों का प्रभाव काम करने लगा ! शोषकों के हितों की रक्षा करने में ही अपने हित हैं, शोषितों को ऐसा लगने लगा ! भृगु ने, बहुजन समाज के कष्ट सहने की ताकत को बरकरार रखने के कारण उसकी अपनी सौ पीढ़ियों की सेवा करने के लिए, समाजव्यवस्था बनाने की चतुराई करके रखी हुई स्मृति मतलब मनुस्मृति !

मनुस्मृति में ब्राह्मणों के आपत्तिजनक हितों की रक्षा करने के लिए रचे गए श्लोकों के कारण, उसकी काफी आलोचना भी होती आई है। और उस आलोचना को टालने के लिए उसका समर्थन करने वाले लोगों ने कहना शुरू किया कि मनु क्षत्रिय था ! लेकिन इस तरह का ग्रंथ क्षत्रियों ने लिखा या ब्राह्मणों ने, इससे क्या फर्क पड़ता है? सवाल है क्या वह न्याय पर आधारित है? या विवेक तथा नैतिकता के आधार पर लिखा गया है? और वर्तमान मनुस्मृति अगर मनु ने लिखी ही नहीं, तो मनु क्षत्रिय था या ब्राह्मण, यह सवाल असंबद्ध हो जाता है !

भृगु निसंदेह ब्राह्मण था ! इसलिए भृगु ने मनु का क्या लिया? और खुद का क्या डाला? यह हमें भी मालूम नहीं है ! लेकिन भृगु ने मनुस्मृति में अपनी तरफ से कुछ लिखा है यह बात मनुस्मृति के समर्थक भी मानते हैं ! इसलिए वर्तमान मनुस्मृति की जिम्मेदारी भृगु के ऊपर, मतलब ब्राह्मणों के ऊपर ही आती है ! और इसी कारण, ब्राह्मण हर तरह से पूजनीय होता है क्योंकि वे सर्वश्रेष्ठ देवता होते हैं ! अब इस जगह पर मनुस्मृति ने विद्वत्ता या चरित्र तथा गुणवत्ता की परवाह नहीं की है ! उल्टा इन सभी बातों को ठुकरा कर सिर्फ वह जन्मना ब्राह्मण है इतनी बात पर्याप्त मानी गई है !

ब्राह्मणों की तारीफ करने वाले वचनों को देखते हुए लगता है कि यह सिर्फ ऊपरी तारीफ के लिए नहीं है ! इससे संबंधित कानून के प्रावधानों का पक्का बंदोबस्त किया है ! उदाहरण के लिए, अगर किए जा रहे यज्ञ के, धन के अभाव में, अधूरा रहने की संभावना दिखाई दे, तो दूसरे की संपत्ति हथियाने की इजाजत ब्राह्मण को दी गई है ! और ब्राह्मण को दान देने से दान देने वाले को दुगुना फल मिलता है ! सिर्फ ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ ब्राह्मण अपना पेट भरने के लिए राजा को उपदेश देने का अधिकार रखता है ! लेकिन शूद्र किसी भी परिस्थिति में राजा का धर्मप्रवक्ता नहीं हो सकता ! जिस राजा को शूद्र मनुष्य धर्मोपदेश करता है वह राष्ट्र कीचड़ में फंसी हुई गाय के जैसा नष्ट हो जाता है ! “निर्बुद्धि ब्राह्मण ने राजा को धर्मोपदेश किया तो, राष्ट्र की प्रगति होती है ! और विद्वान शूद्र ने राजा को उपदेश किया तो, राष्ट्र की अधोगति होती है ! इसका मतलब मनुस्मृति को धर्म, सद्गुण, विद्वत्ता और गुणवत्ता की कोई परवाह नहीं है ! यही इस तरह के श्लोकों से सिद्ध होता है !

शुद्ध प्रजा यानी संतान निर्माण हो इसलिए स्री की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ! जाहिर है कि स्त्री को स्वयं निर्णय का अधिकार दिया जाए तो वह अपना जीवन साथी खुद ढूंढ़ेगी और उसमे वर्ण व्यवस्था के बंधन तोड़ डालेगी इस भय के कारण, स्त्री की रक्षा करना अनिवार्य माना गया है ! प्रजाविशूद्धर्थ यानी शुद्ध वंश की खातिर अर्थात ब्राह्मण जाति का उच्च स्थान अबाधित रहे इसलिए स्त्री को बंधनों में रखना यही उपाय मनुस्मृति ने खोज निकाला है ! घर के कामकाज, स्वच्छता, भोजन पकाना, गृहकार्य की व्यवस्था, धार्मिक आचरण और धन बचाने अथवा खर्च करने जैसे कामों में स्त्री की नियुक्ति हो ऐसा नियम बनाया गया है ! स्त्री को केवल परवश ही नहीं बल्कि अप्रतिष्ठित बनाने के लिए धर्म के अंदर मंत्रपूर्वक संस्कारों का अधिकार उसे नहीं दिया गया!
नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैः इति धर्मे व्यवस्थितीः! (9.18)
उनके लिए तो विवाह विधि ही उनका वैदिक अर्थात उपनयन संस्कार है ऐसा स्मृतिकारों का कहना है ! उन्हें गुरु के पास अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं, पतिसेवा ही उनका गुरुकुल निवास है ! और रसोई में गृहकृत्य करना यही उनके लिए होमहवन है !

इसके बाद सबसे महत्त्वपूर्ण कानूनी मामला आता है जो ऊपर दिखाई गई मनुप्रणीत स्त्री शूद्रों की दमनकारी व्यवस्था को और अधिक दृढ़ करने हेतु उपयोग में लाया गया है !

अपराध तथा दंड बतलाने वाले 8वें न्यायनिर्णय नामक अध्याय में प्रथमतः यह आदेश दिया है कि न्यायालयों में न्यायाधीश हमेशा ब्राह्मण ही रखना चाहिए ! शूद्रजाति का न्यायाधीश कभी नहीं नियुक्त करना चाहिए ! भले ही वह ब्राह्मण न्यायाधीश नाम का ही ब्राम्हण क्यूँ न हो!
जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद ब्राम्हणब्रुवः!
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न तु शूद्रः कथंचेन!! 8.20!!
यस्य शूद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम !
तस्य सीदती तद्राष्टं पंके गौरीव पश्यतः!! 8.21!!

जिस राजा की सभा में शूद्र न्यायाधीश न्यायदान करता है, उसका राष्ट्र कीचड़ में फंसी गाय की तरह नष्ट हो जाता है ! इस तरह पूरी न्यायनिर्णय प्रक्रिया ब्राह्मणों ने अपने हाथों में रखी थी ! इसलिए शूद्रों पर तरह-तरह के अन्याय करने में इस व्यवस्था को कतई शर्म या संकोच नहीं हुआ ! उदाहरण के तौर पर सभी प्रकार के पाप करने पर भी राजा ने ब्राह्मण को वध दंड कभी भी नहीं देना चाहिए ! केवल राष्ट्र से बाहर कर देना ही उसके लिए काफी है ! वहां भी उसका सारा धन सुरक्षित रहे इसकी खबरदारी राजा को लेनी चाहिए !
न जातु ब्राम्हणं हन्यात सर्व पापेष्वपि स्थितम!
राष्ट्रादेन बहिः कुर्यात समग्रधमनक्षतम!! 8.380!!

कहाँ यह दंड विधान और कहां शूद्रों के प्रति किया जाने वाला दंडविधान ! उसके मुख में लोहे का दस उंगली लंबा कीला आग में गरम करके ठूंसने की सजा 8.271 में, उसके कानों में उबलता तेल डालने की सजा 8.272 में, उसकी जीभ काट लेने की सजा 8.270 में बताई गई है ! उसके अपराध कौन-से हैं? जिनके कारण इतनी बड़ी सजा देने का फैसला मनुस्मृति करती है? शूद्रों ने ब्राह्मण का नाम और जाति का उच्चारण करना, उन्हें धर्मोपदेश करना, तथा उनके प्रति दारुण-कठोर शब्दों का प्रयोग करना यही वे तीन अपराध हैं ! इतना ही नहीं, विद्या स्नातक ब्राह्मणों के लिए शूद्र के राज्य में रहने पर प्रतिबंध लगाया गया है ! उसी प्रकार अंत्यज या अस्पृश्यों के लिए गांव में भी रहने से मना किया है !
न शूद्र राज्ये निवसेत त्राधार्मिक जनाहुते !
न पाशंडी गणा कांते नोपसृष्टेहेन्त्य जैनृभिः!! 4.61!!

अब इस तरह के 2686 श्लोकों की मनुस्मृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक की, इतना ही नहीं मृत्यु के बाद भी मनु के नियम इन्सान का पीछा नहीं छोड़ते ! इन नियमों का प्रवर्तन तथा संग्रह करने का काम काफी लंबे समय तक चला होगा ! और वह आज भी लागू करने की बात संघ के लोग किए जा रहे हैं ! मतलब ब्राह्मणों का वर्चस्व और स्त्री-शूद्रों का शोषण बदस्तूर जारी रहना चाहिए वाले लोगों की मानसिकता को क्या कहेंगे?

आरएसएस के द्वितीय संघप्रमुख श्री माधव सदाशिव गोलवलकर ने हमारे देश के संविधान का ऐलान होने के बाद कहा था कि मनुस्मृति जैसा हजारों वर्ष पुराना संविधान रहते हुए विदेश की नकल करके बनाये गये गुदड़ी जैसे इस संविधान की क्या जरूरत थी? जिसमें भारतीयता का कुछ भी समावेश नहीं है !

और आज भी संघ के लोग वर्तमान भारतीय संविधान को बदलने की कवायद कर रहे हैं ! आरक्षण से लेकर विवाह जैसे व्यक्तिगत मामले में भी सरकारी दखलंदाजी उसके प्रमाण हैं ! और न्यायपालिका को धमकी भरे स्वर में कानून मंत्री कहते हैं कि “सर्वोच्च न्यायालय को व्यक्तिगत मामले की सुनवाई के बजाय सिर्फ संवैधानिक मामलों को देखना चाहिए ! और देश के गृहमंत्री ने कहा कि न्यायालयों को बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की मानसिकता को देखते हुए फैसले देने चाहिए ! सबरीमला के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उन्होंने यह कहा है ! और राममंदिर बनाने के निर्णय में संविधान की जगह बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को देखते हुए ही हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय ने निर्णय किया है !

मतलब हमारे देश में सवाल आस्था का है कानून का नहीं, यह आलम है ! उसी तरह आम लोगों के जीवन में शादी-ब्याह से लेकर खानपान तक हस्तक्षेप करने की कोशिश, मनुस्मृति में बतायी गयी विभिन्न बातों को अमल में लाने की कोशिश जारी है ! भले उसे लव जेहाद की आड़ में किया जा रहा है। अंतर्जातीय और अंतरधर्मीय विवाहों को लेकर विभिन्न राज्यों की सरकारों ने अलग-अलग कानूनी प्रावधानों को करने की बात की है। वंशश्रेष्ठत्व के लिए मिश्र विवाह पर पाबंदी के ढाई-तीन हजार वर्ष पहले के मनुस्मृति के नियमों का पालन करने का प्रयास किया जा रहा है !

हालांकि डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने, जातिव्यवस्था खत्म करने का सबसे कारगर कदम अंतर्जातीय और अंतरधर्मीय शादियाँ करने को बताया है ! लेकिन वर्तमान समय में भारत की सरकार लव जेहाद की आड़ में, मनुस्मृति के अनुसार मिश्र विवाह करने से कैसे बुरे परिणाम आने वाले पीढ़ी पर होते हैं जैसी अवैज्ञानिक बातें बता कर ऐसी शादियों को रोकने के कानून बना रही है !

आज से 95 साल पहले, 25 दिसंबर 1927 के दिन ! डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने, महाड के तालाब के पानी के लिए आयोजित सत्याग्रह के दौरान, मनुस्मृति दहन का कार्यक्रम किया था, जो 25 दिसंबर की शाम को 4.30 बजे से शुरू हुआ, इस संकल्प के साथ कि सभी स्त्रियां और पुरुष जन्म से ही समान दर्जे के हैं और मरते समय तक समान ही रहेंगे ! और विषमतामूलक तथा गैरबराबरी का समर्थन करने वाले सभी प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथों का तीव्र शब्दों में धिक्कार किया गया ! जिसमें श्रुति स्मृति, पुराणों को नकारा गया !

मनुस्मृति दहन का प्रस्ताव सहस्रबुद्धे जी ने रखा और या. ना. राजभोज ने उस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए जबरदस्त भाषण दिया ! और रात के 9 बजे, महाड के सम्मेलन की जगह पर एक गड्ढा खोदकर, एक अस्पृश्य बैरागी के हाथ से मनुस्मृति का दहन किया गया ! हालांकि मनुस्मृति दहन का यह कार्यक्रम पहला ही था ऐसा नहीं है। इसके एक साल पहले 1926 में तत्कालीन मद्रास राज्य में ब्राह्मणेतर दल के द्वारा रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में, दहन किया गया था ! लेकिन जातिव्यवस्था से पीड़ित और सबसे निचले स्तर के लोगों द्वारा, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के अगुआई में महाड में इतनी बड़ी संख्या में स्त्रियों और पुरुषों की उपस्थिति में ! स्त्रीदास्यविरोधी और ब्राह्मणीधर्मग्रंथ का सामुदायिक रूप से दहन करने की घटना का एक अलग एतिहासिक महत्त्व है !

ब्राह्ममणीधर्मग्रंथ शब्द शायद कुछ लोगों को अटपटा लगे, इसलिए मैं थोड़ा विस्तार से रोशनी डालने की कोशिश करता हूँ ! डॉ बाबासाहब आंबेडकर की ही भाषा में ब्राह्मणी समाजव्यवस्था का स्वरूप यानी मनुस्मृति ! वह एक कानूनी संहिता के रूप में अस्तित्व में थी ! प्राचीन काल में अनेक प्रकार की ब्राह्मणी साहित्यकृतियां मौजूद थीं ! उसमें से समाजव्यवस्था और उसकी कानूनी संहिताओं को एक करने वाली कृति (स्मृति) मतलब मनुस्मृति ! मनुस्मृति ने ब्राह्मणी समाजव्यवस्था का निर्माण करने के लिए अलग-अलग प्रकार के कानून बनाने के क्रम में चातुर्वर्ण्य, जाति-व्यवस्था और स्त्रीदास्य का खुलकर समर्थन किया है !

डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी इस कड़वे यथार्थ को रेखांकित किया है कि “समाज के सबसे निचले स्तर पर अगर कोई है तो वह स्त्री ही है !” भले ही वह ब्राह्मण क्यों न हो ! एक मेहतर की पत्नी मेहतरानी मेहतर के घर में और भी उपेक्षित होने के कारण ! सबसे निचले स्तर पर औरतें ही हैं इसे उचित ठहराने वाली बात मनुस्मृति के पन्नों पर जगह-जगह लिखी हुई है !

उदाहरण के लिए स्त्री को जीवन भर संभालने का जिम्मा पुरुषों को ही सौंपा गया है ! बचपन में पिता, तरुण अवस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र को उसे सम्हालने के नियम मनुस्मृति में ही लिखा हुए हैं। मतलब स्त्रियां स्वतंत्र नहीं हैं ! उनका अपना व्यक्तित्व नहीं होता है ! ऐसा मनु कहता है ! और इसीलिए आज भी स्त्री की पहचान फलाने की बहू, बेटी, पत्नी या मां के रूप में की जाती है, उसकी खुद की पहचान कहां है? ऐसे ग्रंथ का स्त्रियों की गुलामी के अलावा और क्या योगदान है?

पति के निधन के बाद सती हो जाने की बात ! शायद विश्व के किसी और ग्रंथ या कानून में है कि नहीं, मालूम नहीं ! लेकिन मनुस्मृति में शादी-ब्याह से लेकर, कितना भी घटिया पति हो उसके साथ निभाने की जिम्मेदारी स्त्रियों के ही कंधे पर डाली है ! उसे अलग होने की इजाजत नहीं है ! आज भी धार्मिक विधियो में स्त्री को स्वतंत्र रूप से विधि करने की इजाजत नहीं है इसलिए उसे अर्धांगिनी कहा जाता है ! उसे सिर्फ पुरुषों के साथ हाथ लगाना है ! उसे वेदपठन तो दूर की बात है वेदों को सुनने का भी अधिकार नहीं है ! और आगे चलकर मनुस्मृति कहती है कि “स्त्रियों के ऊपर संस्कार करते वक्त वेद मंत्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए!” और वह आज भी जारी है !

तो ऐसी मनुस्मृति को कालबाह्य करार देकर उसे मृत घोषित कर दिया तो क्या हर्ज है? और आज से 95 साल पहले डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने उसे जलाया तो वह सही मायने में स्त्री मुक्ति का दिवस है ! मेरी तो राय है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भले ही 8 मार्च को स्त्री मुक्ति दिवस के रूप में मान्यता है लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो स्त्रियों की मुक्ति की सच्ची शुरुआत 25 दिसंबर 1927 के दिन, डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने महाड में मनुस्मृति दहन किया तब से हुई है ! तो फिर आगे से भारत में स्त्री मुक्ति के दिवस के रूप में 25 दिसंबर को मनाने की शुरुआत होनी चाहिए !

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