— विनोद कोचर —
नरसिंहगढ़ की छोटी सी जेल में मुझे करीब 19 महीनों तक उनका साथ मिला था।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सबसे पहले ‘जनता उम्मीदवार’ के रूप में, जबलपुर से लोकसभा का चुनाव जीतकर, जब वे लोकसभा में पहुंचे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, नाटे कद के इस नौजवान सांसद को देखकर हतप्रभ हो गई थीं।
आज जब राजनीति का नैतिक चरित्र इस हद तक पतित हो गया है कि सांसदों और विधायकों की खरीदी बिक्री के बाजार सजने लगने हैं और धन व सत्तालोलुप जनप्रतिनिधियों को अपने ज़मीरेज़र्फ का सौदा करते हुए जरा सी भी शर्म नहीं आती, तब शरद जी द्वारा युवावस्था में ही, सांसद की हैसियत से स्थापित चारित्रिक मापदंड की याद करते हुए सीना गर्वोन्नत हो जाता है।
नरसिंहगढ़ की जेल में तब, शरद जी के अलावा महान समाजवादी चिंतक, लेखक और, सड़क से संसद तक समाजवादी आंदोलन का परचम फहराने वाले सांसद मधु लिमये भी बंद थे।
आपातकाल घोषित करके, तमाम संवैधानिक मौलिक अधिकारों को निलंबित करते हुए तानाशाह बन चुकीं इंदिरा गांधी ने जब 1976 में लोकसभा के चुनावों को टालते हुए सदन का कार्यकाल एक और साल तक आगे बढ़ाने का फैसला किया तो, मधुजी के साथ, इस अलोकतांत्रिक एवं जनादेश का अपमान करने वाले फैसले के विरोध में संसद की सदस्यता से इस्तीफा देकर शरद जी ने नैतिकता, निर्भीकता और लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता का जो परिचय दिया था, उसकी कोई दूसरी मिसाल इतिहास में अब तक नजर नहीं आ रही है।
मधु जी ने तो अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी आदि, जेलों में बंद विपक्ष के तमाम सांसदों से अपील की थी कि एकजुट होकर वे सब संसद की सदस्यता से त्यागपत्र देकर तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की आवाज़ को बुलंद करें। लेकिन दलीय अनुशासन की आड़ लेकर उन्होंने मधु जी द्वारा की गई अपील को ठुकराकर देश के तमाम लोकतंत्र प्रेमियों का दिल तोड़ दिया था।
13 अप्रैल 1976 को अपने समाजवादी साथी श्री एनजी गोरे को लिखे अपने पत्र में, विपक्षी सांसदों के इस रवैये से दुखी होकर, जहाँ मधु जी ने ये लिखा कि,
‘…लोकसभा से इस्तीफा देने के प्रस्ताव को अमान्य करके प्रतिपक्ष के सदस्य जेलों में बंद लाखों कार्यकर्ताओं को निराशा के अंधकार में ढकेल रहे हैं…’, वहीं दूसरी तरफ, शरद जी के इस साहसिक कार्य की तारीफ करते हुए उन्होंने लिखा कि, ‘…इस लड़के ने बड़े साहस और चरित्र का परिचय दिया है। निश्चय ही वह प्रशंसा का पात्र है।…’
अन्य जेलों से आने वाले सैकड़ों पत्रों को पढ़कर लगा था कि सिर्फ दो ही सांसदों के इस्तीफों ने जेलों में बंद, सभी मतों को मानने वाले बंदियों का दिल जीत लिया था।
28 मई 1976 को चंपा जी (मधु जी की पत्नी), जेपी द्वारा मधु जी और शरद जी को दिनांक 26 मई 76 को लिखे गए पत्र लेकर आई थीं। शरद जी के इस्तीफे से खुश होकर जेपी ने शरद जी को लिखा था कि,
‘…तुमने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर त्याग का जो साहसपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। देश के नौजवानों ने तुम्हारे इस कदम का हृदय से स्वागत किया है जो इस बात का सबूत है कि युवा वर्ग में त्याग, बलिदान के प्रति आदर की भावना कायम है। तुम्हारे इस कदम से लोकतंत्र के लिए संघर्षशील हजारों युवकों को एक नई प्रेरणा मिली है। मेरा विश्वास है कि इस उदाहरण से उनमें वह सामूहिक विवेक जागृत होगा जो लोकतंत्र के ढांचे में पुनः प्राणप्रतिष्ठा करने के लिए आवश्यक है।’
अपनी आंखों के इलाज के लिए शरद जी को 3 फरवरी 76 को इंदौर जेल भेजा गया था, जहाँ से 25 मार्च 76 को जब वे वापस नरसिंहगढ़ जेल लौटे तो साथ में वे मेरे लिए एक पत्र लेकर आए थे जो इंदौर जेल में बंद, आरएसएस के तत्कालीन अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख और 2000 में आरएसएस के सरसंघचालक बने श्री कु सी सुदर्शन ने मुझे लिखा था। इस पत्र में उन्होंने शरद जी की तारीफ करते हुए लिखा था कि,
‘….शरद जी का यहाँ का सहवास यहां के सभी बंधुओं के लिए अत्यंत आनंदप्रद रहा। उनका सहज निश्छल व्यवहार उन्हें आबालवृद्ध सभी का स्नेहपात्र बनाने में कारणीभूत रहा। ‘वर्तमान परिस्थितियों में युवकों का दायित्व’ – इस विषय पर उन्होंने एक परिचर्चा का शुभारंभ किया था, जिसपर यहां के अनेक नौजवान बोले। अंत में इस परिचर्चा का समापन भी श्री शरद जी के द्वारा ही हुआ। अध्ययन में विशेष अभिरुचि के कारण, जहाँ व्यापक अध्ययन का उनका सिलसिला चल ही रहा है, वहां प्रभावी वक्तृत्व एवं तर्कपद्धति के कारण अपनी बात को प्रभावपूर्ण ढंग से रखने का उनका कौशल भी सराहनीय है। आगे छोटे छोटे गुटों में अलग अलग विषयों पर चर्चा करने का जो कार्यक्रम बना था, उसमें एक विषय वे भी लेने वाले थे। किंतु अब उनके सहयोग से हमलोग वंचित हो जाएंगे।..’
शरद जी के साथ जेल में बिताए गए दिनों की और भी ढेर सारी यादें हैं लेकिन यादों का सिलसिला, जेल से बाहर आने के बाद का भी तो है।
आख़िरी बार शरद जी से मैं 18 अगस्त 2017 को, उनके निवास पर, तब मिला था जब उनके द्वारा आयोजित’ साझी विरासत’ कार्यक्रम में शामिल होने के लिए मैं दिल्ली गया था। हम दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। अपनी पत्नी, बेटे और बेटी के बेटे से भी उन्होंने मुझे मिलवाया और अपनी माँ की याद करते हुए उन्होंने मुझे बताया था कि साहसिकता और निर्भयता की विरासत उन्हें अपनी मां से मिली है।
जेल में मिली शरद जी की दोस्ती के बाद बमुश्किल हमदोनों 5-7 बार ही मिले होंगे लेकिन जब भी मिले, वे बांहें फैलाकर मुझसे गले मिलते थे और दिल खोलकर मुझसे बातें करते थे।
उनके राजनीतिक जीवन की कई कमजोरियां भी थीं। जार्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के साथ वे संघ/भाजपा के सहयोगी बने भी और उनसे उन्होंने नाता भी तोड़ा लेकिन उनकी साम्प्रदायिक विचारधारा से उन्होंने खुद को हमेशा अलग रखा।
ईमानदार और निर्भीक शरद जी को मैं प्रणाम करता हूँ।