— विवेक मेहता —
वर्ष 1998 की दिवाली पर मालूम हुआ था कि मामाजी बीमार हैं। गंभीर रूप से। उन्हें रतलाम के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। इंदौर, मुंबई, दिल्ली भी ले जाने की बात चल रही थी जिसे मामाजी ने अस्वीकार कर दिया था। कहा- ‘क्या सामान्य आदमी वहां इलाज के लिए जा सकता है?’ वे लोहिया जी के सहयोगी थे और अंत तक समाजवादी ही बने रहे। सुर्खियों में बने रहना उन्हें आया नहीं। हां, जमीन से जुड़ना उन्हें आता था। जमीन से उनका जुड़ाव ही था कि बड़ी-बड़ी सरकार उन्हें उखाड़ न सकी। कोई लहर अपना प्रभाव दिखा न सकी। विचारक भी थे पर संसद की बहस में, अखबारों में उनका नाम न के बराबर आया। एक बार नीमच के घर पर जब वे आए थे तो उनसे किसी ने सवाल किया था इस बारे में। उनका कहना था कि संसद में हम बहस तो करते हैं, पत्रकार उसी की बात सामने रखते हैं जो ब्रीफकेस की सुविधा देता है या विवादित बात करता है। सोचा था इस बार रतलाम से गुजरते हुए उनसे मुलाकात करूंगा मगर झमेलों से निकल नहीं पाया और मालूम पड़ा कि 26 दिसंबर को बामनिया में उन्होंने देह त्याग दी।
लोहिया जी उनके कार्यों, विचारों से प्रभावित थे। लंबे अरसे तक मामाजी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद आए समाजवादियों के बिखराव में वे प्रभावी संगठन की भूमिका निभा नहीं पाए और अपने पुराने कार्यक्षेत्र बामनिया भील आश्रम तक सिमट कर रह गए। उनका परिवार बहुत बड़ा था भील मामाओं का। मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान में फैला हुआ। वे उनमें से एक थे इस कारण पंडित बालेश्वरदयाल दीक्षित नहीं मामा बालेश्वर दयाल के नाम से पहचाने जाते थे।
मामा जी के बारे में जब से समझ आयी तब से सुनता आया हूं। मंदसौर जिले का जीरन गांव समाजवादियों का गढ़ रहा। अनेक ख्यात लोग वहां आए। मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे। लेखक भी थे। जब मैं 10-11 बरस का रहा हूंगा तब घर में पुस्तकों की थप्पियां आईं। सभी पर दाढ़ी वाले व्यक्ति का फोटो। पुस्तक का नाम था- ‘संघर्ष सपूत मामा बालेश्वरदयाल’। लेखक मंगल मेहता। मुझे लगता था यह व्यक्ति कोई बड़ा आदमी तो है जिस पर इतनी मोटी किताब लिखी गई। किताब शीघ्र बिक भी रही थी। अखबारों में भी उसकी चर्चा थी। पापा के दोस्तों का कहना था कि मामाजी पर लिखने की कीमत मंगलजी को चुकानी पड़ी। सुनकर गर्व होता था।
मामाजी कई बार घर पर भी आए। मैं पढ़ाई के लिए बाहर होने के कारण उनसे मिल नहीं पाया। मेरी पहली मुलाकात उज्जैन के टाउनहॉल में हुई थी। 1983 में वे वैद जी की स्मृति में भाषण के लिए आए थे। भाषण में देरी थी। वे और हिंदुस्तान टाइम्स के शायद देवनारायण अवस्थी बैठे थे। मैंने नमस्ते कर कहा- “मैं मंगल जी का लड़का।” तत्काल बोले- “छोटा वाला!” “हां”; फिर तो- क्या करते हो? घर में सब कैसे हैं? प्रमोद (बड़ा भाई) कैसा है? आदि प्रश्नों की बौछार कर दी। पहली मुलाकात में ही लगा कि वह मेरे अपने हैं। अपनापन बना लेना ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी; उनका पूरा नाम था बालेश्वर दयाल दीक्षित। भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण परिवार में चैत्र शुक्ल दशमी के दिन संवत् 1964(सन1907) में उनका जन्म हुआ था। गांव था- निवाड़ी कला, जिला इटावा, राज्य उत्तर प्रदेश। पिता पंडित शिवशंकर स्कूल में हेडमास्टर थे। भीरु स्वभाव के। माता दुलारी बाई ने इन्हें बहुत दुलार से रखा। 1923 में मां का देहांत हो गया। पिता ने दूसरी शादी की। सौतेली मां ने भी इन्हें प्यार से रखा। मगर पिताजी का आतंक इनके मन पर बैठा हुआ था। इटावा में पढ़ते वक्त डॉक्टर सदरलैंड की पुस्तक ‘इंडिया, अमेरिका एंड ब्रदरहुड’ के दोनों भाग इन्होंने पढ़े और प्रभावित हुए। तभी समाचारपत्र में पढ़ा कि अकालग्रस्त क्षेत्रों में भील चंद पैसे के लिए अपनी संतानें बेच रहे हैं। तो ये व्यथित हुए। शायद इसी का प्रभाव रहा हो जिससे भीलों के बीच कार्य करने को प्रेरित हुए।
पिताजी चाहते थे कि यह नौकरी करें मगर यह नहीं चाहते थे। पढ़ते वक्त मालूम पड़ा कि गांधीजी ट्रेन से इस क्षेत्र से जाने वाले हैं तो इन्होंने अपने साथियों के साथ ट्रेन रोक कर भाषण करवाया। जैसे तैसे जेल जाने से बचे। कांग्रेस सेवा दल की खातिर पैसों का जुगाड़ करने के लिए दुकानदारों को राखी बांधी। पिताजी यह जानकर गुस्सा हुए। इनकी पिटाई हुई। मार खाकर यह पैसे लौटाने गए। ब्राह्मण को दिया कौन वापस लेता! इस कारण यह पैसे फेंक कर वापस आ गए।
1927 में 21 वर्ष की उम्र में इनका विवाह सरस्वती देवी से हो गया था। इनकी गतिविधियों के कारण पिताजी की नौकरी को खतरा पैदा हो गया। उन्होंने इन्हें घर छोड़ने का आदेश दे दिया। यह भी वहां खुश नहीं थे। निवाड़ी गांव छोड़कर मध्य प्रदेश के खाचरोद में आ गए। जहां इनके मामा जी रहते थे। कुछ दिनों बाद उनका तबादला हो गया। वे चले गए तो अपना खर्चा चलाने के लिए इन्होंने जैन स्कूल में ₹40 माह में नौकरी कर ली। अपने कार्यों से समाज में बदलाव लाने के चक्कर में एक बार सार्वजनिक रूप से सत्यनारायण की कथा करवाई और अपने चंद दोस्तों के सहयोग से हरिजनों के हाथों प्रसाद का वितरण करवाया। बड़ा झमेला हुआ। 67 लड़कों को जाति से बाहर कर दिया गया। इनकी नौकरी भी गई। ग्वालियर सरकार के मुखपत्र ‘जयाजी प्रताप’ ने इनकी भर्त्सना की।
बाद में इन्हें थांदला के जैन स्कूल में हेडमास्टर की नौकरी मिल गई। कुछ दिनों बाद वहां की ईसाई मिशनरी के एक पादरी को हिंदी सिखाने जाने लगे। वहीं पर आदिवासियों से इनके सूत्र जुड़े। यह उनके दुख-दर्द सुनते। उपयोगी सुझाव देते। भीली बोली सीखने लगे। इनका संपर्क भीलों से बनता देख, पादरी ने नौकरी से निकाल दिया। संपर्क में आने के बाद इन्होंने महसूस किया कि मिशनरी भीलों का धर्मान्तरण करवाकर देश के लोगों को देश के प्रति वफादार नहीं रहने दे रही। भील को भील नहीं रहने दे रही। भीलों की स्थिति से ये नाखुश थे। शोषण, बेगार आदि से रोकने के लिए यह उन्हें संगठित करने का प्रयास करने लगे। इस कारण पादरी, सेठ और रियासत सभी इनसे नाराज थे।
बिना कारण बताए रियासत ने इन्हें गिरफ्तार किया। बाद में छोड़ दिया गया। 1935 में इन्होंने भैरवगढ़ में आदिवासियों का सम्मेलन किया। जिसमें बेगारी के मुद्दे पर प्रस्ताव पास किया। सम्मेलन के बाद घर से बुलावा आया। यह वहां गए। इनके संतान नहीं होने के कारण वहां इनकी दूसरी शादी की तैयारी हो रही थी। पिता के खौफ से यह पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी के लिए मना नहीं कर पाए। यह शादी होती इसके पहले ही तार आया। इनके साथी थांदला में गिरफ्तार कर लिये गए थे। यह उद्वेलित हो उठे। बिना बताए झाबुआ आ पहुंचे। वहां गिरफ्तार कर लिये गए। इन पर मुकदमा चला और सजा भी हुई।
मध्यभारत देशी लोक परिषद के कार्यों को गति देने के लिए 5000 रुपए की जमानत पर इन्हें रिहा करवाया गया। जेल से छूट कर ये मुंबई पहुंचे। वहां पर ‘जन्मभूमि’ के कार्यालय में इन्होंने डेरा डाला। समाचारपत्र में रियासत के द्वारा की जाने वाली ज्यादती के समाचार प्रमाण सहित छपने लगे। लोगों में चेतना जगी। मगर कुछ अन्य कारणों से लोगों का मनोबल गिरा। यह फिर गिरफ्तार किए गए। जमानत जब्त हो गई। इन्होंने अपनी पत्नी के गहने बेचकर जमानत देने वाले के पैसे चुकाये।
5 अप्रैल 1937 को बामनिया में इन्होंने मकान किराए पर लेकर भील आश्रम चालू किया। अकाल के वक्त इनके ही प्रयासों से लोगों को खाने-पीने की सामग्री मिल पाई। उस समय मिशनरी ने भी भीलों की सहायता की थी। डोनेशन के पैसों से। कोरे कागज पर उनसे अंगूठा लगवाया था। उनका उद्देश्य स्पष्ट था। बारिश होने पर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने भीलों पर दबाव बनाया। कानूनी कार्रवाई की धमकी दी। मामा जी ने लोगों को समझाने का प्रयास किया। मगर उनके मन से डर न निकला तो इन्होंने सार्वजनिक पर्चा निकाला, दुष्काल के वक्त भील लोगों को जो भी सहायता दी गई उसका देनदार भील आश्रम का संचालक बालेश्वरदयाल है। इस पर्चे का प्रभाव हुआ। पादरी इनके प्रभाव को जानते थे। चुप होकर बैठ गए। भीलों को भी राहत मिली। कुछ दिनों बाद बेडाखोर गांव में इन पर जानलेवा हमला भी किया गया। यह बच गए।
भीलों को यदि सवर्ण मान लिया जाए तो उनसे बेगार नहीं ली जा सकती। उन्हें बेगारी से बचाने के लिए समाज उन्हें क्षत्रिय मान ले इसके लिए इन्होंने प्रयास किए। पुरी के शंकराचार्य को यह समझाने में सफल रहे। उन्होंने भीलों को जनेऊ धारण करने का अधिकार दिया। बदले में यह भी भीलों से शराब और मांस का भक्षण छुड़ाने में सफल रहे। तब इनके इस कार्य से न केवल धर्मान्तरण पर रोक लगी बल्कि लोगों के स्वार्थ पर भी चोट पहुंची। वायसराय ने इन्हें बगावत फैलाने के लिए जिम्मेदार मानते हुए अक्टूबर 44 में बामनिया-इंदौर रियासत से निष्कासित कर दिया। निर्वाचन का समय इन्होंने दाहोद और पंचमहाल में रहकर गुजारा। इनके कार्यों की ख्याति फैल रही थी। अगस्त 45 में अखिल भारतीय देसी राज्य परिषद की बैठक पंडित नेहरू की अध्यक्षता में कश्मीर में हुई। जिसमें प्रस्ताव पास कर इनके निष्कासन का विरोध किया गया।
भीलों के उत्थान के लिए इन्होंने योजनाएं बनाकर नेहरू को भेजीं। नेहरू उससे प्रभावित भी हुए। सहयोग का वादा भी किया। परंतु जब सहयोग देने की स्थिति में थे तो सब वादे भूल गए। आजादी के बाद भीलों के उत्थान के लिए इनके संघर्षों के कारण राजस्थान सरकार ने इन्हें निष्कासित किया। उस वक्त सरकार के मुखिया जयनारायण व्यास थे जो एक समय इनके संघर्ष के साथी रहे।
इनके कार्यक्षेत्र का दौरा शेख अब्दुल्ला, जयप्रकाश, लोहिया ने किया और इनके कार्यों से प्रभावित भी हुए। सुभाष चंद्र बोस भी एक बार आए थे। विडंबना ये कि जब भारत आजाद हो रहा था तब यह जेल में बंद थे। दूसरे दिन भी बंद रहे। 17 अगस्त को राजाजी के आदेश से मुक्ति मिली। अपने क्षेत्र में कई सम्मेलनों का आयोजन किया मगर चंदा नहीं जमा किया। सम्मेलन में आने वाले अपने साथ खाने में एक रोटी सम्मेलन के लिए लाते थे। उससे अन्य लोगों के खाने की व्यवस्था होती। लोग जो चढ़ावा चढ़ाते, उससे अन्य खर्चों की व्यवस्था होती। भीलों के लिए इतने अपनत्व से काम करने वाला उनका अपना ही होगा। मामा ही होगा। इसलिए यह मामाजी के नाम से ख्यात हो गए।
सन 45 के आसपास यह कांग्रेस के समाजवादी गुट से जुड़े। सन 60 से यह समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष रहे। अच्छे चिंतक भी थे। चौखंबा, जन, गोबर पत्र के संपादक मंडल में रहे। कुछ भीली भाषा में पुस्तकें भी प्रकाशित कीं। भील लोग गरीबी में जीते थे। लंगोट में रहते थे, लंगोटिया कहलाते थे। मामाजी ने उन्हें इतना सक्षम बनाया कि अब कोई लंगोट में नहीं दिखाई देता। विडम्बना है कि इन लोगों ने अब कर्म, संघर्ष को भूल कर बालेश्वर दयाल को भगवान मान लिया। उनकी मूर्ति पर चढ़ावा चढ़ाया जाता है, भजन कीर्तन होते हैं।
मध्य प्रदेश में ’77 में जनता पार्टी की सरकार बनी। राज्यसभा के उपचुनाव में इन्हें चुनकर भेजा गया। उस वक्त कैलाश जोशी मुख्यमंत्री थे। फिर उन्हें हटाकर दूसरे मुख्यमंत्री का चयन करते वक्त समाजवादी गुट ने संविद सरकार के वक्त भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने का विरोध किया। मगर चुने वे ही गये। ’78 में जब रेगुलर राज्यसभा के चुनाव हुए तो मुख्यमंत्री इनसे खार खाए थे। चुनाव में उठापटक हुई। यह तीसरे दौर की गणना के बाद मुश्किल से चयनित हो पाए। बाद में भ्रष्टाचार के और आरोपों ने इनकी तथा समाजवादी धड़े की राय को सही ठहराया।
मामा जी काम में विश्वास रखते थे। अनावश्यक बयानबाजी में नहीं। संकोची भी थे। समाचारों की सुर्खियों में वे चाहे नहीं रहे हों मगर उनके काम उनके क्षेत्र में उन्हें सुर्खियां दिलाते रहे। मरने के 24 साल बाद उन्हें याद किया जाता है। उनके संघर्ष को भुनाने के लिए, उन्हें अपने पाले में दिखाने के लिए हर पैंतरा आजमाया जाता है। शायद उनके वारिस उनकी विरासत को नहीं संभाल पा रहे और एक दिन सरदार पटेल, सुभाष की तरह उन्हें भी हथिया लिया जाएगा!